शंभूदीन ने बदले हुए हालात देखकर यादवेन्द्र को नेक-सलाह दी थी कि तुमने काफी रूपए कमा लिए हैं, अब तुम मुझे अपने व्यवसाय को बंद कर दो और साथ में यह भी कहा कि जो माल गोदाम में है उसे जल्दी से जल्दी निकाल देना। यादवेन्द्र 'सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी' जैसे इस व्यवसाय को छोड़ने के लिए तैयार न था, वह बोला, "इतनी जल्दी इतना माल कैसा निकाला जाएगा।"
"उसकी तुम चिंता न करो, मैं सारा माल ठिकाने लगवा दूँगा।" - शंभू ने उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा।
यादवेन्द्र के इस विषय को टालने के लिए कहा, "अभी इतनी जल्दी भी क्या है, निकाल देंगे धीरे-धीरे।"
शंभू ने हैरान होकर कहा, "धीरे-धीरे।! अरे भइया अब तो एक पल की देरी भी तुम्हारे लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब अपना राज तो है नहीं। दुश्मनों का राज है, वो भला हमें क्यों छोड़ेंगे। अपनी स्थिति ती तुम जानते ही हो।"
यादवेन्द्र दुविधा में फँस गया बोला, "हाँ, परिस्थितियों से तो मैं वाकिफ़ हूँ मगर...अगर-मगर छोड़ो, जल्दी से अपना मुँह साफ कर लो। बहुत खा लिया है। अब तो भलाई इसी में है कि डकार की आवाज़ भी न आए।" यादवेंद्र को चुप देखकर उसने कहा, "कहो तो मैं अभी आदमी भिजवा दूं।"
"नहीं, नहीं, मैं खुद ही बंदोबस्त कर लूँगा।"
कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद वह शंभू से विदा लेकर घर को चल पड़ा। रास्ते भर वह यही सोचता आया कि कोई ऐसा तरीका अपनाया जाए जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। आदमी जैसा चाहता है वैसे तर्क उसे मिल ही जाते हैं। उसके दिमाग ने कहा कि विरोधी विधायक स्वयं तो माल पकड़ने आएँगे नहीं, आएगी तो पुलिस ही, वही पुलिस जो पिछले आठ वर्ष से अपनी आँखों से इस व्यवसाय को चलता देख रही है। राज्य भर के पुलिस अधिकारी उसे जानते हैं। जो भी उसके थाने का इंचार्ज होता या जिला स्तर का पुलिस अधिकारी होता, सबको उनका हिस्सा तब भी पहुँचता था, अब भी पहुँचेगा। उसका दिमाग कह रहा था कि नेताजी तो ऐसे ही डर रहे हैं। पुलिस अपनी कमाई के इस जरिए को क्यों बंद होने देगी। अपने तर्कों से संतुष्ट होकर वह निश्चित होकर बैठ गया लेकिन वह इस बात को भूल गया कि पुलिस तो सत्ता की गुलाम है। सत्ता बदलते ही पुलिसवाले भी बदल जाएँगे। फिर यादवेंद्र तो सत्ताधारी दल की आँखो की किरकिरी बना हुआ था, क्योंकि उसकी स्पोर्ट के कारण ही शंभूदीन को हराना मुश्किल था। उसको तोड़ देने का अर्थ है, शंभूदीन की रीढ़ की हड्डी तोड़ देना। इसके अतिरिक्त सता- पक्ष यह भी कैसे सह सकता था कि कमाई तो कोई और करे और बदनाम हो उनका शासन।
यादवेन्द्र का अमीर हो जाना भी उन्हें चुभता था। गरीबों के देश में किसी एक का अमीर होना अपराध है और देश में ऐसे आपराध नहीं होने चाहिए, ऐसी मान्यता है सत्ताधारी दल की और समता की समर्थक यह पार्टी इस अपराध को मिटाना चाहती है। इसके लिए वह विरोधी पार्टी के अमीरों से धन छीनकर अपनी पार्टी के गरीबों में बाँटना चाहती है। वैसे तो समता सिर्फ ख्याली पुलाव है क्योंकि आप एक बार धन-जमीन बराबर कर सकते हो, लेकिन सदा बराबर नहीं रख सकते। जो मेहनती होगा, बुद्धिमान होगा, वह आगे निकल जाएगा, जो ऐय्याशी करेगा, लापरवाही करेगा, वह पिछड़ जाएगा। एक बाप के दो बेटे जब बराबर नहीं रह पाते, तो सारा समाज बराबर रह पाएगा, यह संभव ही नहीं। वैसे इस सच को 'लोक सेवा समिति भी जानती है। 'समता लाना' सिर्फ नारा है। असल मकसद दूसरे दल के अमीरों को गरीब बनाकर खुद अमीर होना है। इसके पीछे उनका तर्क है कि अमीरों ने गरीबों का खून चूसा है, इसलिए उनको दंड मिलना चाहिए और गरीब इतने समय से खून चुसवाते आए हैं, इसलिए उनका अमीर हो जाना उनके जख्मों पर मरहम की तरह है। यादवेंद्र को गरीब बनाने में तो सब खुश होंगे क्योंकि वह गैरकानूनी, समाज विरोधी काम कर रहा है। यादवेन्द्र उजड़ने वालों की श्रेणी में है क्योंकि उसके उजड़ने से ही कोई और आबाद होगा।
यादवेन्द्र जिस पुलिस के सहारे सुरक्षित रहना चाहता है, वह पुलिस सदा की तरह सत्ता के इशारों पर चलेगी, इसका ख्याल उसे नहीं। उसे लगता है कि वह पुलिसवालों को कमाकर देता है, लेकिन उसे यह ख्याल नहीं कि उनको कमाकर देने को बहुत तैयार बैठे हैं। यादवेंद्र की कमाई बंद होने का अर्थ यह नहीं कि पुलिसवालों की कमाई बंद हो जाएगी। उनकी कमाई तो जारी रहेगी, बस आदमी कोई और होगा। यादवेंद्र का भ्रम जल्दी ही निकल गया क्योंकि पुलिस ने छापा मारकर माल पकड़ लिया। यादवेंद्र पुलिस के हाथ नहीं आया तो उसको पकड़ने के सख्त आदेश जारी हो गए। पुलिस अगर चाहे तो आसमान में छिपे अपराधियों को भी ढूँढ सकती है, फिर यादवेन्द्र जैसे आदमी की पकड़ना कौन-सी मुश्किल बात है। आज तक उसके गैरकानूनी कार्य पर पुलिस ने आँखें मूंद रखी थी, क्योंकि सरकार का उसके सिर पर हाथ था। अब पुलिस उसे पकड़ने चाहती है क्योंकि सरकार की इच्छा यही है। सरकार की इच्छा को पूर्ण करने में पुलिस ने ज्यादा देर नहीं लगाई, लेकिन दो दिन तक पुलिस के हाथ न आने का फायदा यह हुआ कि शंभूदीन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। वह भले वर्तमान विधायक नहीं था, लेकिन अब भी उसका रसूख तो था। सज़ा देना भले अदालत का काम है, लेकिन सज़ा कितनी मिलेगी, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि पुलिस किस ढंग से केस बनाती है। शंभूदीन का रसूख यहीं काम आया। यादवेंद्र को पकड़ा गया, लेकिन मुख्य दोषी यादवेंद्र का नौकर बनाया गया। माल पकड़ते समय ड्यूटी मजिस्ट्रेट की उपस्थिति ज़रूरी होती है। कई बार बिना ड्यूटी मजिस्ट्रेट के माल पकड़ा जाए तो बाद में ड्यूटी मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर करवाकर ऐसा दिखाया जाता है कि वह मौके पर मौजूद था, लेकिन यहाँ ड्यूटी मजिस्ट्रेट की मौजूदगी नहीं दिखाई गई, जिससे केस कमजोर हो जाए। एन.डी.पी.एस. के मामले में कई बार साल भर जमानत नहीं मिलती, लेकिन यादवेंद्र हफ्ते भर बाद जमानत पर आ गया।
रहने को भले वह सात दिन हवालात में रहा, लेकिन यादवेंद्र जब बाहर आया तो वह किसी से भी नज़र नहीं मिला पा रहा था। उसने नेताजी को कहा, " काश! मैंने आपकी बात मानी होती।"
शंभू ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, "कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा।"
असली राजनेता वही होता है, जो आपदा में अवसर की तलाश करे। शंभूदीन उसे समझाने लगे, "जो होता है, वह ठीक ही होता है। हम इसे मुद्दा बनाएँगे।"
"वो कैसे?"
"हम कहेंगे कि राजनैतिक द्वेष के कारण उसे फँसाया गया है। उस पर झूठा आरोप लगाया गया है।"
"लेकिन आरोप तो झूठा नहीं।"
"जो झूठ नहीं, उसे झूठ बना देने और जो सच नहीं, उसे सच बना देने का नाम ही तो राजनीति है।"
"यह तो आप बेहतर जानते हैं।" - यादवेंद्र ने अनमने भाव से कहा। उसका दिल अभी भी नहीं मान रहा था। धंधा भी ठप्प हो गया और बदनामी भी। अदालत क्या फैसला सुनाएगी इसकी चिंता ही अलग और यह चिंता तब तक रहेगी जब तक फैसला नहीं होता और यह फ़ैसला जल्दी होने वाला नहीं ,क्योंकि हमारे यहाँ अदालत कछुए की चाल चलती है और ऐसा वह शायद जानबूझकर करती है क्योंकि वह मानसिक दण्ड देने में विश्वास रखती है। न्याय व्यवस्था का मानना है कि अपराध करने के बाद अपराधी पछताता होगा, सज़ा को याद कर-कर घबराता होगा और इस प्रकार वह मानसिक संताप झेलता है। उनकी यह सोच सब पर भले ही लागू न होती हो, लेकिन यादवेन्द्र पर यह कुछ सीमा पर लागू हो रही थी। ऐसा नहीं कि वह भावुक है या उसमें नैतिकता जाग गई है, अपितु पहली बार ऐसी स्थिति का सामना होने से वह घबराया हुआ है। कोर्ट-कचहरी से जिनका वास्ता नहीं पड़ता उनके लिए साथ ऐसा अक्सर होता है। गलती करने वाला डरता बहुत है और आम आदमी कोर्ट में जाने की धमकी ऐसे देता है जैसे इधर उसने अर्जी डाली, उधर विपक्षी को सज़ा आई। जो लोग कोर्ट की कार्यशैली को जानते हैं वे न तो कोई केस होने पर ज्यादा परवाह करते हैं और न ही बात-बात पर कोर्ट भागते हैं। शंभूदीन यादवेंद्र को कहता है , "तुम चिंता मत करो, हम एक बार सत्ता से बाहर हुए हैं, सदा के लिए नहीं। हमारी सरकार फिर आएगी। तब हम सब ठीक कर लेंगे।"
"यदि उससे पहले सज़ा हो गई तो...।"
"इतनी जल्दी सज़ा नहीं होती यहाँ। तुम्हारे बारे में फैसला होने में बीस वर्ष लग जाएँगे, इसलिए तुम बेफिक्र रहा करो।"
नेता जी का आश्वासन उसे तसल्ली देता है, फिर भी कभी-कभार चिंता उसे घेर लेती है और जब भी वह चिंतित होता है, उसे पिता जी की बातें याद आती हैं। वह सोचता है, काश! उसने पिता जी की बात मानी होती। काश! उसने कोई और व्यवसाय चुना होता। लेकिन काश कभी हाथ किसी के हाथ आए हैं, जो यादवेंद्र के आते। काश सिर्फ तनाव देते हैं। यादवेंद्र भी इन दिनों तनाव और चिंताग्रस्त हो जाता है।
क्रमशः