कॉलेज के चुनावों में आम चुनावों अर्थात लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका, पंचायत आदि के चुनावों की तरह वोट खरीदे नहीं जाते, क्योंकि कॉलेज के विद्यार्थी जागरूक होते हैं। वे वोट बेचने को अपनी शान और अपने अधिकार दोनों के खिलाफ समझते हैं, लेकिन कॉलेज के चुनावों पर भी अन्य चुनावों की तरह ही खूब खर्च होता है, क्योंकि वोटरों के लिए पार्टियों आदि का आयोजन होता है, इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से वोट खरीदे जाते हैं। कुछ उन पागल विद्यार्थियों का, जो दूसरी पार्टी के समर्थक हैं, अपहरण भी करना पड़ता है। अपहृत किए हुए विद्यार्थियों से बुरा व्यवहार करना कॉलेज की राजनीति में उचित नहीं माना जाता, इसलिए उन्हें खिला-पिलाकर अपने पक्ष में किया जाता है। जो इतना करने पर भी न मानें उनके लिए मजबूरी में दूसरी नीति अपनाई जाती है अर्थात लातों के भूतों को लातों से ही मनाया जाता है। उनसे चुनाव वाले दिन जबरदस्ती अपने पक्ष में वोट डलवाए जाते हैं और जबरदस्ती करने के लिए, जबरदस्ती करने में विशेषज्ञ व्यक्तियों के प्रबन्ध पर भी खर्च तो होता ही है। इस प्रकार के अनेक छोटे-मोटे खर्चों से लम्बा बिल तैयार हो जाता है। इसी बिल के भुगतान हेतु यादवेन्द्र ने प्रथम बार रुपए माँगे थे और पिता की मौन सहमती और माता अकाट्य तर्क से प्रभावित होकर यादवेन्द्र वहाँ से चला गया। अगली सुबह उसने सेठ जी से पैसे लिए और कॉलेज को चल पड़ा। महीना भर वे दिलो-जान से अपने कर्मक्षेत्र में डटे रहे। 'राजनीति में सब कुछ जायज होता है' कि धुन पर उन्होंने भी सब कुछ किया और उनका सब कुछ करना चोखा रंग लाया। यादवेन्द्र कॉलेज का प्रेजीडेण्ट चुना गया। कुछ दिन तक तो यादवेन्द्र के पाँव जमीन पर न पड़े क्योंकि चंद दिन पहले तक वह कॉलेज का एक आवारा, बदमाश विद्यार्थी था, मगर अब उसका शुमार सभ्य और सुसंस्कृत लड़कों में होने लगा। वह कॉलेज का अहम विद्यार्थी बन चुका था।
असंतुष्टि तो मानव प्रवृत्ति का स्वभाव है। यादवेन्द्र भी इस प्रवृत्ति का शिकार होने के कारण धीरे-धीरे अपनी इस सफलता से भी असन्तुष्ट रहने लगा। वैसे सन्तुष्टि को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन यह आसमान की बुलन्दियों तक पहुँचने की तमन्ना के सामने खोखली है और कोई भी समझदार व्यक्ति इसे अपने गले का हार नहीं बनाता। यादवेन्द्र ने भी नहीं बनाया। वह अब कॉलेज की राजनीति के संकीर्ण दायरे में छटपटाने लगा और राज्य की राजनीति में कूदने को उतावला हो गया। यह उसकी किस्मत थी कि राज्य में विधानसभा के चुनाओं की घोषणा हो गई। महीने बाद चुनाव होने थे। यादवेन्द्र ने राजनैतिक पार्टियों से साँठ-गाँठ करनी शुरू कर दी।
राजनीति के सागर में छोटी मछलियों की कोई औकात नहीं होती। यह तो मगरमच्छों का वह युद्धक्षेत्र है, जिसमें छोटी मछलियों की बली दी जाती है। सरकार बनाने के लिए किए जाने वाले यज्ञ में अनेक की आहुति दी जाती है, लेकिन यादवेन्द्र की स्थिति ऐसी न थी। वह मगरमच्छ न सही, मगर वह छोटी मछली भी न था। कॉलेज का प्रेसीडेंट होने के कारण सभी पार्टियों वाले उससे अच्छा व्यवहार करते थे। वह अभी तक इस दुविधा में था कि कौन सी पार्टी से जुड़ा जाए कि तभी टिकटों की घोषणा हो गई। उसके इलाके में 'जन उद्धार संघ' वालों ने शंभूदीन को टिकट दी। शंभूदीन से यादवेंद्र की पुरानी जान पहचान थी। कॉलेज के शुरुआती दिनों में शंभू ने ही उसे राजनीति का ककहरा पढ़वाया था और उसे अपनी पार्टी में शामिल किया था। यादवेन्द्र ने भी उसे प्रेसीडेंट बनाने के लिए भरसक प्रयास किया था और उसे सफल बनाया था। अब फिर वैसी ही स्थिति थी। यादवेन्द्र पार्टी कार्यालय में पहुँचा। पार्टी सदस्य आगामी योजना बनाने में मग्न थे। शंभू ने ज्यों ही यादवेन्द्र को देखा, वह उठ खड़ा हुआ और उसे गले लगा लिया। दोनों दोस्त दो वर्ष बाद मिले थे, क्योंकि शंभू पिछले दो साल से राजधानी में बड़े नेताओं के साथ था और उसके उसी प्रयासों से उसे टिकट मिली थी। इलाके में जनाधार बनाने का काम उसके साथियों का था। दोनों को अब फिर एक दूसरे की जरूरत थी, इसलिए दोनों ने पुराने दिनों को याद किया। शंभू को जब पता चला कि यादवेन्द्र कॉलेज का प्रेजीडेंट भी है, तो वह खुशी से फूला न समाया और बोला, "दोस्त जब तुम आ गए हो तो समझो हमारी जीत निश्चित है।"
"जीत की तो भगवान जाने मगर मैं अपनी तरफ से पूरी ताकत झोंक दूँगा।"
"यह भी कोई बताने की बात है।" - शंभू ने उसकी निष्ठा को स्वीकृति दी।
पार्टी के सदस्य से यादवेंद्र की जान पहचान करवाई गई। सभी को अलग-अलग काम बाँटे गए थे। शंभू जानता था कि यादवेन्द्र लठ्ठमार व्यक्ति है, इसलिए उसने उसको अपने साथ ही रखा। अकेले चुनाव प्रचार पर भेजने में खतरा था। यादवेन्द्र भी शंभू के साथ रहकर ही खुश था। वह नदी का तैराक था। सागर में तैरना नहीं जानता था। राजनीति के इस सागर में तैरने के लिए उसे शंभू के प्रशिक्षण की जरूरत थी। यहाँ तक चंदे का सवाल था, यादवेन्द्र पीछे हटने वालों में न था। उसकी आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक थी। जमीन जायदाद अच्छी थी। खुलकर खर्च करते थे, लेकिन कभी भी उधार नहीं माँगते थे। पैसों की बचत कभी की नहीं थी। वैसे भी अकेली खेती से ज्यादा बचत की उम्मीद नहीं की जा सकती। हाँ, कंजूसी से चलें, तो यह संभव है, लेकिन ऐसा उनका स्वभाव न था। जितनी फसल होती उतना खर्च करके वे शाही जीवन जीते थे। यादवेन्द्र ने जब चंदों का नया खर्च प्रतापसिंह को बताया तो वह घबरा गया। जमा पूंजी होती तो और बात थी, लेकिन यादवेन्द्र इस खर्चे को घटाने की बात सुनने तक को तैयार न था। प्रताप सिंह को विवश होकर कर्ज लेने की मंजूरी देनी पड़ी। यादवेन्द्र ने लाखों रुपए चुनाव में झोंक दिए और इसका फल सौभाग्यवश मीठा ही निकला। चुनाव में जीत के समाचार ने उसकी उस थकावट को दूर कर दिया, जो उन्हें महीना भर सारे इलाके में दिन-रात घूमने से हुई थी। चुनाव के दिनों में जिसको मार-पीट के कारण चोट आई थी, उस पर भी जीत की मरहम लग गई। 'जन उद्धार संघ' एक अन्य पार्टी के सहयोग से सत्ता में आई। शंभूदीन ने दोनों पार्टियों के गठजोड़ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उसको मंत्री मंडल में ले लिया गया। वह अब राजधानी चला गया और इलाके का बंदोबस्त देखने वालों में यादवेंद्र को शामिल कर लिया गया। उन्हें पार्टी कार्यालय में रहकर लोगों की समस्याएँ सुनने की जिम्मेदारी मिली।
पार्टी कार्यालय, कार्यालय क्या, एक घर था। इसमें तीन कमरे, एक रसोईघर, एक ड्राइंगरूम और एक चौबारा था। ड्रॉइंग रूम में पार्टी के कार्यों का संचालन होता था। शेष भाग रात या दिन को आराम करने के लिए था। वैसे तो यह पूरी पार्टी के अधिकार क्षेत्र में ही था, फिर भी जिस प्रकार पहले यह शंभूदीन के विशेषाधिकार में था, उसी प्रकार अब इस पर यादवेन्द्र का विशेषाधिकार हो गया। यादवेंद्र अपना ज्यादातर समय यहीं बिताने लगा।