Yugantar - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

युगांतर - भाग 19

रश्मि के घर आने के बाद रमन को तो जैसे नया जीवन मिल गया। यशवंत का स्कूल में दाखिला करवा दिया गया। यशवंत के स्कूल जाने के बाद वह रश्मि को संभालने में व्यस्त रहती। यशवंत के आने के बाद भी कोई समस्या नहीं थी क्योंकि घर के काम के लिए नौकरानी थी ही। उसकी दस साल की बेटी भी साथ आ जाती थी। रमन ने तो पहले भी उसको लाने से मना नहीं किया था और वह उस लड़की को खाने-पीने के लिए वह सब देती थी, जो घर में बनता था। अब उसने नौकरानी को कहा कि अपनी बेटी को रोज़ लेकर आया कर। इसके लिए उसने उसका वेतन भी बढ़ा दिया था। दिन में वह लड़की स्कूल जाती और स्कूल के बाद सीधे रमन के पास आ जाती। रमन को इससे दो बच्चों को संभालना आसान हो गया था। यादवेंद्र जब रमन को खुश देखता तो सोचता कि उससे तो गलती हुई थी, लेकिन भगवान ने उसकी गलती की सज़ा देने की बजाए इसे इस प्रकार संभाला कि वह घर में खुशी लाने वाली बन गई। शांति को तो जिला कार्यालय में भेज दिया गया था। शुरूआत में वह रोज़ फोन करके जताती थी कि उसके बिना उसका दिल नहीं लगता। धीरे-धीरे फोन हफ्ते में एक बार आने लगा। अब तो कभी कभार फोन आता था। शांति का व्यवहार बता रहा था कि वह अतीत को भुलाकर भविष्य को संवारने में व्यस्त हो गई है। यादवेंद्र भी उससे पीछा छुड़वाना चाहता था। सब इतने बढ़िया ढंग से हुआ कि यादवेंद्र हैरान था। उसका दिल कहता था कि आदमी की सोच कुछ नहीं करती। होता वही है जो भगवान चाहता है। वह भगवान का शुक्रिया अदा करता, लेकिन यह शुक्रिया भाव ज्यादा देर तक नहीं चला और जल्द ही शिकायत मन में उभर आई।
किसी की भी ज़िंदगी कभी भी एक ढर्रे पर नहीं चलती क्योंकि परिवर्तन जीवन का अटल नियम है। यादवेंद्र की ज़िंदगी फिर कैसे एक ढर्रे पर चल सकती थी। शांति के जाने के बाद उसका जीवन रूपी समुद्र शांत लगने लगा ही था कि एक तूफान उठ घड़ा हुआ। एक मुसीबत के आते ही आदमी को लगने लगता है जैसे उस जैसा कोई बदकिस्मत नहीं। यादवेंद्र भी यह भूलकर कि उसने जो गलती की थी, उससे उसका गृहस्थी भी बिखर सकती थी, अपनी किस्मत को बुरा-भला कह रहा था। किस्मत को बुरा भला कहने का कारण था, राजनीति में आया तूफान। उनकी सरकार का अभी डेढ़ वर्ष पड़ा था, लेकिन मुख्यमंत्री के विरोधी गुट ने बगावत कर दी। मुख्यमंत्री ने जब उनकी एक न सुनी तो एक तिहाई विधायकों ने अपनी नई पार्टी 'जन मोर्चा पार्टी' का गठन कर लिया। ऐसा नहीं कि यह बगावत अचानक हुई, अपितु दूसरी बार सत्ता प्राप्ति के बाद ही कुछ विधयक मुख्यमंत्री बदलने को लेकर शोर मचाए हुए था। वैसे ऐसी खींचतान तो हर पार्टी में होती ही है क्योंकि विधायक बनने के बाद कौन ऐसा होगा, जो झंड़ी लगी कार का सफर करना न चाहेगा और हर किसी को यह सौभाग्य मिले, ऐसा भी संभव नहीं और जिन्हें यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता, उनका विद्रोह पर उतर आना भी स्वाभाविक ही है। मुख्यमंत्री महोदय पिछले तीन साल से अपनी ही पार्टी के विरोधी विधायकों को एक जुट होने से रोके हुए थे। जो थोड़ा उछलता उसे साम-दाम-दंड-भेद से चुप करवा दिया जाता, लेकिन एक सीमा के बाद न उनकी माँगों को पूरा किया जा सकता था और न ही कोई इतना बड़ा डर उनके पास था, जिसे दिखाकर उन्हें चुप करवाया जाए। धीरे-धीरे विरोधी विधायक एकजुट होने लगे। विपक्षी दल भी हालात पर नज़र रखे हुए था। उसने धर्मवीर वर्मा को समर्थन देने की बात तो नहीं कही, लेकिन धर्मवीर को अंदाज़ा था कि उसे उनका समर्थन मिल जाएगा। बस इसी गलतफहमी में उसने घोषणा कर दी कि उसे मुख्यमंत्री बनाया जाए, नहीं तो वह पार्टी छोड़ देगा। पार्टी हाई कमान ने इसे मानने से इंकार कर दिया। धर्मवीर अपने सहयोगी विधायकों को लेकर अलग हो गया। 'जन उद्धार संघ' दल की सरकार अल्पमत में आ गई। विपक्ष ने धर्मवीर का साथ देने की बजाए जनता की अदालत में जाने का निर्णय लिया क्योंकि उनका सर्वे कह रहा था कि विरोधी पार्टी में फूट के बाद वे आसानी से सत्ता में आ जाएँगे। परिणामस्वरूप मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो गई।
'चुनाव' बड़ा भयानक शब्द है, सत्ता पक्ष के नेताओं के लिए। चुनावों की बदौलत ही नेता लोग जनता पर शासन करते हैं और इन्हीं का नाम सुनते ही सत्ता पक्ष वालों के होश उड़ जाते है क्योंकि चुनाव इनकी परीक्षा है और इसमें फेल होने का अर्थ है पाँच साल के लिए हाशिए पर चले जाना। जिन्होंने एक बार सत्ता-सुख भोग लिया उनके लिए हाशिए पर चला जाना मौत से भी ज्यादा भयानक है। राज्य में आज तक दो ही मुख्य पार्टियाँ थी, इसलिए आमने-सामने की टक्कर थी। नई बनी पार्टी 'जन मोर्चा पार्टी' सिर्फ कुछ सीटों पर ही मजबूत पकड़ नहीं रखती, अपितु हर जगह उनके वोटों के कारण तिकोने मुकाबलों की संख्या बढ़ गई और तिकोने मुकाबले में कौन जीतेगा, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है। इस नई पार्टी ने न सिर्फ 'जन उद्धार संघ' की नाक में दम कर दिया, अपितु विपक्षी दल 'लोक सेवा समिति' को भी चिंता में डाल दिया।
सभी पार्टियाँ दिन-रात मेहनत कर रही थीं। केंद्रीय नेताओं को बुलाकर जनसभाओं को संबोधित करवाया जा रहा था। जो संभव ही नहीं, ऐसे भी वायदे किए जा रहे थे। चुनाव होने के बाद जिस आदमी को नेता जी से मिलने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है, उसको नेताजी घर आकर न सिर्फ दर्शन दे रहे थे, बल्कि पाँव तक पकड़ रहे थे। मुसीबत में गधे को भी बाप कहने की परंपरा तो हमारे देश में सदा से रही है। आज वोटरों को बाप तुल्य माना जाना कह रहा था कि नेताओं की नज़र में वोटर गधे होते हैं और वोटर इसे न समझकर यह साबित कर रहे थे कि नेताओं की सोच गलत नहीं।
चुनावों से पहले सबने दूसरों पर खूब आरोप लगाए। चुनाव का दिन आया तो यहाँ जिसका जोर चला उसने खूब धक्का किया। लड़ाई-झगड़े भी हुए लेकिन चुनावों ने तो सम्पन्न होने ही था और वे हो गए। वोटों की गिनती हुई, तो जनता का फैसला चौंकाने वाला था। तीनों पार्टियों में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिल पाया। आज़ाद उम्मीदवार भी जीते, लेकिन कोई भी दल ऐसी स्थिति में नहीं था कि सिर्फ आज़ाद उम्मीदवारों के बलबूते सरकार बना सके। सत्ता प्राप्ति के लिए फिर राजनीति शुरू हुई। कई दिनों तक विधायकों ने 'आया राम, गया राम' का खेल खेला। अंत में 'लोक सेवा समीति' तिकड़मबाजी के दंगल में विजय हुई। आजाद विधायक भी उनसे मिल गए। 'जन मोर्चा पार्टी' को 'लोक सेवा समिति' को समर्थन देना ही पड़ा, क्योंकि वह अपनी पुरानी पार्टी के साथ जा नहीं सकती थी, फिर 'लोक सेवा समिति' सबसे बड़ा दल था और उन्होंने धर्मवीर को उपमुख्यमंत्री का पद देने की बात कह दी थी।
इस सारे घटनाक्रम का प्रभाव 'जन उद्वार संघ' पर पड़ा। सरकार बनाने लायक विधायक उनके पास थे नहीं। आज़ाद विधायक भी उसी दल का साथ देते हैं, जो सरकार बनाने की स्थिति में हो। 'लोक सेवा समिति' तो उनकी कट्टर दुश्मन थी और 'जन मोर्चा पार्टी' ने उनके साथ आने से मना कर दिया, इसलिए किनारे पर खड़े होकर घटनाक्रम देखते रहने के सिवा उनके पास कोई साधन नहीं था। बदलाव की आँधी में शंभूदीन भी चुनाव हार गया था, यह यादवेंद्र के लिए बड़ा झटका था।

क्रमशः

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