शंख में समंदर -- सतह पर उभरते चित्रों का कोलाज
लेखक--डॉ. अजय शर्मा
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आओ बात करें कुछ मन की,
जीवन की और उसके क्षण की |
ज़िंदगी की सुनहरी धूप-छाँह सबको अपने भीतर समो लेती है | कौन बचा रहता है उससे ? यह तो ऐसी छतरी ओढ़ाकर हम सबको अपने नीचे पनाह देती है जिसमें से भरी ग्रीष्म में धूप भी जलाती है और भरी बरसात में तड़ातड़ पानी बरसने से उसमें छेद भी हो जाते हैं जिसमें से टप-टप बूंदें देह को भिगो भी सकती हैं | बस, जीवन कुछ ऐसा ही है | कभी भरी बारिश में भी सूखा तो कभी भरी ग्रीष्म में जलता हुआ |
प्रत्येक मनुष्य के जीवन का दृष्टिकोण भिन्न होता है | कोई प्रत्येक परिस्थिति में सहज बना जीवन के किसी भी परिवेश में से बखूबी निकल जाता है तो कोई परिस्थितिजन्य चित्रों से स्वयं को अधिक प्रभावित पाता है लेकिन मानव में संवेदना का होना इस बात का साक्षी है कि वह जिंदा है और जिंदा है तभी वह अपने चारों ओर पसरे वातावरण से प्रभावित होता है और चिंतित भी |
इन कठिन कष्टकारी दिनों में जब प्रत्येक मनुष्य एक अलग प्रकार की भावभूमि को ओढ़ता -बिछाता रहा है, एक दूरी में कसमसाता रहा है, एक एकाकीपन से जूझता रहा है उस समय कोई संशय नहीं कि यह सोशल मीडिया एक वरदान के रूप में ईश्वर की जाने कौनसी आँख सा प्रगट हो गया है और उसने हम सबको कोई न कोई मार्ग सुझाया है |
इसके साथ यह भी सच है कि हमारी पीढ़ी जो टाइप करना तक नहीं जानती थी,उपन्यासों व कहानियों के लिखने के बहाने हम एक दिन में बीस/पच्चीस पेज़ घसीट डालते थे,इस कॉमप्युटर के आने के बाद दिन में दो/चार पेज़ भी लिखने कठिन हो गए | हम टाइप करने के साथ ही सोशल-मीडिया से जुड़ते चले गए और सच कहें तो आदी हो गए | खैर, इसमें यह भी सच है कि इन कोविड के दिनों में हम सबने बहुत सी नई चीज़ें सीखीं और उनका लाभ भी प्राप्त किया |
डॉ. अजय शर्मा से मेरा परिचय भी इसी सोशल मीडिया के माध्यम से ही हुआ है | इसमें कोई संशय नहीं कि जहाँ सोशल मीडिया ने हम सबको एक अलग परिवेश में ला खड़ा किया है,वहीं इससे कितने अच्छे मित्र व समृद्ध व्यक्तित्वों से परिचित करवाकर दुनिया को मुट्ठी में भर लिया है | वहीं इस उम्र में ऐसे मित्र भी मिल गए हैं कि जिन्हें एक-दो बार मैसेंजर के माध्यम से परखने पर मित्रों की सूची में से निकालना भी पड़ा है |
जीवन की आपाधापी में न जाने कितने स्वप्न केवल स्वप्न बनकर ही धूलि-धूसरित हो जाते हैं |मेरे विचार में इसके लिए बहुत दुखी अथवा परेशान होने की आवश्यकता भी इसलिए नहीं होती क्योंकि यदि हम और कुछ भी न मानें अथवा न समझें तो भी यह तो बड़े स्वाभाविक रूप से बुद्धि में प्रवेश कर जाता है कि भई! जो होना है, वह होना ही है | यदि उन परिस्थितियों में माँ वीणापाणि मस्तिष्क में विराजमान रहें तो हम सही बुद्धि का प्रयोग करके अपनी वर्तमान परिस्थिति से संभवत: थोड़ा स्वयं को बचा सकें किन्तु प्राकृतिक घटनाओं के बीच से निकलना, उतना ही स्वाभाविक है जितना मूसलाधार बरसात में ताबड़तोड़ भीग जाना | हाँ, उसके लिए किसी संरक्षण को तलाश करने में हम अपने चक्षु व बुद्धि का प्रयोग करने में नहीं चूकते |फिर उस पर ही आ टिकते हैं कि भई --'हुई है वही जो राम रची राखा' | यानि सब कुछ ही तो सुनिश्चित है !
किसी भी मनुष्य के सौ प्रतिशत स्वप्न तो साकार नहीं होते,वह बेशक हाथ-पैर मारता है लेकिन प्राप्त उतना ही होता है जितना उसके हाथ की लकीरों में होता है फिर भी वह प्रयत्न करने से नहीं रुकता और जहाँ अवसर प्राप्त होता है, घुसपैठ तो कर ही लेता है | मैं स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ | हाँ, कभी-कभी अपनी संवेदनाएं प्रस्तुत कर लेती हूँ वो भी बहुत कम | इच्छा होती है किन्तु शायद समय व अवस्था इसको न करने के सटीक बहाने मिल जाते हैं | कभी-कभी प्रखर संवेदनाओं से इतनी कष्ट में भी आ जाती हूँ कि चाहते हुए भी कोई प्रतिक्रिया नहीं लिख पाती और यदि आधी-अधूरी लिख भी पाती हूँ तो वे मेरे 'ड्राफ्ट'में सिमटी-सिकुड़ी रहकर अवश्य मुझसे नाराज़ पड़ी रहती होंगी |
पहले तो मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि डॉ. अजय शर्मा एक मैडिकल डॉक्टर हैं |जितना मैं उनको जान पाई थी उससे मुझे लगता था कि वे किसी कॉलेज अथवा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं | फ़ेसबुक पर देखा कि उनका नया उपन्यास आया है जो फ़ेसबुक से सम्बद्ध है | और जब उन्होंने यह भी लिखा कि जो मित्र उसे पढ़ना चाहें वे अपना पता भेज दें | मैं अपनी व्यस्तता के बारे में जानती थी, बहुत सी पुस्तकें आई हुई हैं और मैं किसी न किसी बहाने से उन्हें पढ़कर लिखने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूँ लेकिन कोविड में फ़ेसबुक को माध्यम बनाकर लिखा गया उपन्यास जानकर मन में उत्सुकता हुई और उन्हें अपना पता भेज दिया और हर बार की तरह भूल गई |
चार/पाँच दिनों बाद तो कुरियर से पुस्तक मेरे हाथों में थी | ओह! मैंने खुद मंगाया था तो उसे पढ़ना और कुछ समझना तो जरूरी था | मैंने उनकी पुस्तक के पीछे से उनका वॉट्सऐप नं लेकर उन्हें सूचना दे दी कि पुस्तक मेरे पास पहुँच गई है किन्तु मैं जानती हूँ कि मुझे पढ़ने में समय लग जाएगा | उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे लिख भेजा--"दीदी! कोई बात नहीं |"
जब मित्र मुझे पुस्तकें भेजते हैं और मैं पढ़ नहीं पाती, मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती है किन्तु हाल ही में कई ऐसे मित्रों की पुस्तकें आईं जिन्होंने मुझे इस विश्वास से पुस्तकें भेजीं कि मैं जल्दी कुछ लिख दूँ तो उनकी पुस्तक प्रकाशक के पास से निकल सके | इसके लिए मुझे अपने हाथ का काम छोड़कर जल्दी करनी पड़ती है जो मेरी 'मॉरल ड्यूटी' बन जाती है |
खैर,यह तो मैंने अपनी बात साझा की लेकिन अजय जी की पुस्तक तो मैंने आगे बढ़कर उत्सुकता से मँगवाई थी | मैं इससे पूर्व उन्हें कभी नहीं पढ़ सकी हूँ और मुझे विश्वास है कि उन्होंने भी मेरी कोई पुस्तक नहीं पढ़ी होगी | स्वयं मँगवाने के कारण मैं बहुत असहज थी कि मुझे जल्दी पढ़नी चाहिए | कुछ ऐसा हुआ कि बुखार आ गया और उन दिनों मेरा लेखन छुट गया|अब मैं लेटे-लेटे ही थोड़ा थोड़ा पढ़ने लगी | वो कमज़ोरी इतनी लंबी चली कि लैपटॉप पर अधिक बैठना संभव नहीं हो पाया | अत मैं इस समय का सदुपयोग दो पुस्तकें पढ़कर कर सकी जिसमें एक डॉ. अजय शर्मा का यह उपन्यास 'शंख में समंदर' है और एक प्रताप नारायण सिंह का उपन्यास है जिसके बारे में अभी दो-तीन दिनों में कुछ कहने की चेष्टा करती हूँ |
'शंख में समंदर' में डॉ.अजय शर्मा कहते हैं --
"फ़ेसबुक ने भी मुझे बहुत प्यार दिया है | नए पाठक भी दिए और रिश्ते भी | फ़ेसबुक के माध्यम से रचनाओं की चर्चा भी हुई | इसलिए एक छोटी सी दुनिया फ़ेसबुक पर ही बस गई | कभी-कभार ऐसा भी लगता है कि जो दोस्त पास हैं, उनसे कभी बात तक नहीं होती लेकिन फ़ेसबुक पर हर सुख-दु:ख बाँट लिया जाता है |शायद यह बदलती दुनिया का सच है |कहते हैं समय-समय पर कई पुरानी मान्यताएं टूटती हैं और नई बनती भी हैं | सारा संसार ऑन लाइन जुड़ गया है | कोरोना ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी |"
मुझे लगता है कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर हममें से काफ़ी मित्र कुछ ऐसा ही सोचते होंगे | मैं तो सोचती हूँ कि पूरी ज़िंदगी माँ शारदा की अनुकंपा बनी रहने के बावज़ूद भी मैं इतने मित्रों के पास तक नहीं पहुँच पाई थी जितनी इस सोशल मीडिया के माध्यम से पहुँच सकी | उसमें भी मैं केवल एफबी के साथ ही अधिक जुड़ी हुई हूँ | वह भी तीसरी पीढ़ी की इनायत के बाद जो उन्होंने एफबी पर मेरा एकाउंट खोल दिया | इस उम्र में आकर पुस्तकें संभालने का साहस भी नहीं हो पाता | वर्ष में एकाध पुस्तक के प्रकाशन के अतिरिक्त मैं 'मातृभारती' पटल पर लिखने में संतुष्टि महसूस करने लगी | अब जो प्रकाशक स्नेह से प्रकाशित कर दें, वो ठीक अन्यथा लेखन का वास्तविक आधार, हकदार पाठक होता है जो अब 'मातृभारती'पर मिल रहा है |
डॉ. अजय के इस उपन्यास से मुझे अपने मन की भी बहुत सारी बात साझा करने का अवसर मिल सका इसके लिए उन्हें धन्यवाद न दिया जाए, यह अभद्रता मैं नहीं कर सकती | जैसे उन्हें एफबी से बहुत प्यारे मित्र मिले, मुझे भी बहुत स्नेहिल मित्र व रिश्ते मिले जो उनके उपन्यास के गवाक्ष में से झाँकते दृष्टिगोचर होते हैं | हाँ, उन्होंने बाकायदा एक्टिंग की ट्रेनिंग का चित्र खींचा है, मुझे गांधीनगर के 'सिटी पल्स टेलीविज़न एंड फ़िल्म इंस्टीट्यूट 'में विज़िटिंग फैकल्टी, उससे पूर्व 'NID' अहमदाबाद में कुछ वर्ष भाषा-अधिकारी के रूप में रहने का अवसर प्राप्त हुआ जिसके कारण एक्टिंग व फ़िल्म मेकिंग की काफ़ी बारीकियाँ समझने का अवसर मिल पाया |
दूरदर्शन के लिए 'इसरो' के माध्यम से सरकारी योजना के अंतर्गत 'अब झाबुआ जाग उठा ' सीरियल के 70 एपीसोडस लिखने के लिए शूटिंग टीम के साथ झाबुआ व अलीराजपुर जैसे आदिवासी प्रदेशों में जाने के अवसर मिले | इस उपन्यास से गुजरते हुए मुझे बहुत सी बातें जैसे किसी खोह में खींचकर ले गईं | फ़र्क था तो यह कि यह प्रदेश गुजरात व मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है और इस उपन्यास की कथा के अंत में मुझे पंजाब के कई चित्र दिखाई दिए जिन्हें मैं अनजाने में ही दोनों प्रदेशों के अनुसार आँकने लगी |
उपन्यास में एक्टिंग की कक्षा के अनुभव मुझे कई बार भूत की गलियों में ले गए,फ़र्क था तो यह कि हम सशरीर इंस्टीट्यूट में कक्षाओं में उपस्थित होते थे और यहाँ सारा माज़रा 'ऑन-लाइन' का था | उन दिनों हमने कभी इस शब्द 'ऑन लाइन' को सुना तक नहीं था, जानने की बात तो बहुत दूर थी | उपन्यास के साथ मेरी बीमारी में यात्रा काफ़ी थकन होने के बावज़ूद भी एक सुर-ताल के साथ बढ़ती रही |
उपन्यास के विभिन्न अंशों में से लेखक के परिवार के परिदृश्य भी झाँकते रहे और बड़ी सहजता से कई स्थितियों का अनुमान भी लगता रहा |
अंत में तो जैसे नाटक के माध्यम से उपन्यास में पंजाब का विशेष चित्रण जीवित हो उठा | कहानी व नाटक के माध्यम से जैसे पंजाब के उस हिस्से को जी उठी जिसके बारे में न तो मैं बिलकुल भी भिज्ञ थी और न ही मैंने कभी सुना, जाना, देखा था |
'छल्ला नाव दरिया' की कहानी व पात्र पाठक को किसी अलग भावभूमि पर लेजाकर खड़ा कर देते हैं और पाठक उस नाटक का भाग बन जाता है | यह उपन्यास की सफलता है कि पाठक स्वयं को उसी मार्ग का सहयात्री महसूस करने लगे |
उपन्यास में एक्टिंग के साथ चलने वाले चिंतन, लेखन, एक्टिंग सभी आधारों को लिया गया है जो इस उपन्यास की 'ऑन लाइन' कक्षाओं में श्रीमाली जी के द्वारा सिखलाने की चेष्टा की गई है | नाटक के प्रति जो उत्साह व उत्कंठा प्रदर्शित होती है उससे जीवनंतता का अनुभव होता है |
एक एक्टिंग के टीचर के रूप में श्रीमाली जी ने कई खूबसूरत बातें बताईं जिनसे फिर मैंने अपने को .को-रिलेट' कर लिया |
"अपने चारों ओर देखो,महसूस करो,किसी के व्यवहार से उसे समझने का प्रयास करो,आँखें बंद करके रास्ते से मत गुज़रो, पहचानने की कोशिश करो कि लोग कैसा और क्यों ऐसा व्यवहार करते हैं ?" हम अपने उन छात्रों को कुछ ऐसा ही समझाया करते थे जो उपन्यास में श्रीमाली जी कई बार अपने 'ऑन लाइन ' छात्रों को समझाते हैं |
कई छोटी कहानियों का उपन्यास में सहज प्रवेश भी आनंदित करता है | जैसे --लेखक के घर में सत्यनारायण की कथा में कुत्ते के प्रवेश की घटना अथवा पति-पत्नी के कई बड़े सरल, सहज-संवाद जिनसे एक-दूसरे की परवाह का चित्र बनता है, बच्चों के कुछेक चित्र दिखाई देना संतुष्टि देता है | परिवार का जैसे पूरा चित्र उपन्यास में उभरकर आया है | लेखक ने वास्तव में अपने कई अनुभवों को उपन्यास में समेटकर शंख में समंदर भरा है | यह स्वाभाविक भी है,यह एक विशेष प्रकार का उपन्यास है | लेखक अपने लेखन में कहीं न कहीं तो होता ही है | डॉ. अजय शर्मा भी कभी बंद खिड़की के झरोखे से तो कभी दरवाज़े के बंद पल्लों में से चुपके-चुपके झाँकते दृष्टिगोचर हो ही जाते हैं |
डॉ.अजय शर्मा को उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई व अभिनंदन ! इसके माध्यम से मुझे अपनी कितनी ही बातें साझा करने का अवसर प्राप्त हुआ है | उपन्यास में छोटी -बड़ी कई ऐसी घटनाएँ हैं जिन्हें पढ़कर पाठक को आनंदानुभूति होनी स्वाभाविक है |
श्रीमाली जी एक्टिंग के एक गंभीर व अनुभवी अध्यापक हैं जो अपने छात्रों के साथ विभिन्न अनुभवों को साझा करते रहते हैं | उन्हें समझने पर एक अनुभवी प्राध्यापक का चित्र बनता है | उनके द्वारा अंत में सुनाई गई एक शिक्षाप्रद, संदेशपूर्ण छोटी सी कहानी से समापन करती हूँ |
एक दिन समंदर ने नदिया से पूछा --"जब तुम आती हो, अपने साथ बड़े-बड़े पहाड़ बहाकर ले आती हो | तुम्हारे प्रचंड से कोई नहीं बच पाता | लेकिन तुम कभी बाँस लेकर मेरे पास नहीं आतीं |"
नदिया बड़े प्यार से उत्तर देती है --
"क्या करूँ? जब मैं उसके पास जाती हूँ,वह झुककर जमीन पर इस कदर लेट जाता है,मैं चाहकर भी उसे साथ नहीं ला पाती | मैं उसके ऊपर से गुज़र जाती हूँ |"
इन संवादों से पूर्व व पश्चात श्रीमाली जी अपने छात्रों को क्या संदेश देना चाहते हैं, वह पाठक उपन्यास पढ़कर ही जान सकेंगे |
अस्तु !
अनेकों शुभकामनाओं सहित
डॉ. प्रणव भारती