मुझे संघर्ष करना है Yogesh Kanava द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मुझे संघर्ष करना है

अकेलापन व्यक्ति को बहुत कुछ सिखाता है । अपने अकेलेपन से मैंने भी बहुत कुछ सीखा है । अकेली औरत के लिए समाज में जीवन निर्वाह करना काफी मुश्किल हो जाता है । ज़माने की सारी निगाहें औरत के भौतिक धरातल को टटोलती, कुछ खोजती सी और अपने ही हिसाब से अर्थ निकालती सी । जिसको जो अर्थ निकालना है ,जो कहना है, वह वही कहता रहता है। जितने सर उतने ही विचार । पुरुष अकेले रहता है तो संभवतः इतनी बातें नहीं बनती हैं लेकिन औरत अगर अकेली रहे तो समाज उसे सहारा देने के बजाय उसका जीना दूभर कर देता है । समाज के तमाम ठेकेदार झंडा उठाए खड़े हो जाते हैं । आज मैं अपने ही विचारों में खोई घर की बालकनी में बैठे अपना विगत और आगत सोच रही थी । मौसम का मूड भी समाज के ठेकेदारों की तरह चेहरा देखकर बदलता रहता है । सर्द मौसम में खुशगवार धूप अच्छी लग रही थी। विचारों में खोए रहने के कारण पता ही नहीं चला कब धूप बादलों की ओट में घूंघट काढ बैठ गई थी, बादलों के उस पार । अचानक हुई ठंड के बाद ही मैंने आसमान में झांका तो यही लगा शायद बरसात आने वाली है । मैं वहीं बैठी रही बालकनी में ही, और अभी भी अपनी ही उधेड़बुन मे लगी तय नहीं कर पा रही थी कि मैं अन्दर जाकर दुसाला ले लूं या फिर यूं ही बैठी रहूं । उठने का मन ही नहीं कर रहा था सो मैं बैठी रही । सोचने लगी चलो इन बादलों से ही बात करूं । बादल उमड़-घुमड़ कर अनेक आकृतियों मे नज़र आ रहे थे।बादलों में एक आकृति जो मुस्कुरा रही थी लग रहा था वह कुछ कह रही है या कि अपने अंदर समेटे बून्दों पर उसका अहंकार छलक रहा था । तभी एक‌ और आकृति उभरी, बादलों के बीच एक अकेली बदली जो खुद का अस्तित्व बचाए रखने के लिए, संघर्ष कर रही थी। और बादल उसे अपने आगोश में ले उसका अस्तित्व खत्म करता सा नजर आ रहा था । पर तभी बरसात होने लगी मानो उस बदली का चूर-चूर हुआ अस्तित्व बूंद बूंद कर धरती पर गिर रहा था । खामोश मैं देखती रही यह सब । बालकनी के खुले हिस्से में पानी थोड़ा सा दिखने लगा था बालकनी पर गिरती इन बूंदों पर मेरी नज़र टिक गई । आसमान से गिरी ये बूंदे फर्श से टकराकर फिर से ऊपर की ओर उछलती हैं , गोयाकि वह छलांग लगाकर वापस अपने बदली से जा मिलना चाह रही थी ,या कि उस बादल की निष्ठुरता पर प्रतिकार कर रही थी, मालूम नहीं । तुम ठीक सोच रही हो , हम बारिश की बूंदे हैं । हम बूंदों ने ही एक एक मिलकर बादलों की रचना की थी । और जब उस बादल पर‌ बोझ बन गई तो टूट कर अलग होना पड़ा । टूटने का दर्द तुम नहीं जानती सकती हो । यह तो हम अपने शरीर पर झेलती हैं । हमारे दुखों की दास्तान यहीं खत्म नहीं हो जाती है धरती से टकराकर टूट कर बिखरने का दर्द और फिर खत्म होने का दर्द हम खुद झेलती हैं । फिर भी हमें खुशी है कि धरती के गर्भ में पड़े सूखे बीजों को हमारी टूटन ही नया जीवन देती है । मैं बोल पड़ी तुम बारिश की बूंदे भी बोल सकती हो? तुम्हारा दर्द वाकई जायज है। पर तुमने यह कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हारा दर्द नहीं समझ सकती हूं । मै समझती हूं टूटन क्या होती है, अकेलापन क्या होता है अपनों से बिछड़ने का दर्द हो जाता है , मैं जानती हूं सब कुछ ।अकेलापन व्यक्ति को बहुत कुछ सिखाता है। वो बंऊद फिर बोली- तो तुम अकेली रहती हो, क्यों रहती हो अकेली ? तुम्हारा कोई भी नहीं है, मैं बारिश की बूंद तुम्हारी आंखों में आंसू बनकर बैठ जाती हूं । बस हम‌दोनो‌साथ हो जाएंगे । बस इतना ध्यान रखना मुझे तुम आंख से गिराना मत । मेरे अस्तित्व के लिए तुम्हारी आंखें सबसे महफूज लग रही है । बोलो बताओ ना ,मुझे अपनी आंखों में जगह दोगे ना ।

मेरी आंखों में अब सचमुच आंसू नहीं आते शायद बचे ही नहीं थे ।और ये बूंद फिर से मेरी आंखों को नम करना चाहती है । मेरी सूख चुकी पथराई आंखों के दर्द में भी खुशी की चाह पैदा करना चाहती है ।

फिर वह धीरे से बोली देखो मैंने तुम्हें अपना दर्द बता दिया अब तुम ही बताओ ना अपना दर्द मुझे आंखों से आंसुओं के सूखने का सबब , कुछ तो बताओ । और उस बारिश की नन्ही सी बूंद को मैं क्या क्या बताती। कैसे-कैसे बताती कि अपने किस तरह से सारे सपने तोड़ जाते हैं । आखिर हम क्यों देखते हैं ऐसे सपने जो केवल टूटने के लिए ही होते हैं ? विचारों के इस जंगल में जाने कब तक मैं उसके साथ भटकती रही, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई बाहर दूध वाला दूध के लिए आवाज़ लगा रहा था । और मैं शांत सधे कदमों से बस दूध लेकर चाय बनाने किचन की ओर चल दी ।

मुझे लगा वह बूंद सचमुच मेरी आंखों में बैठ गई है । बरसों से पथराई आंखों में आज अचानक ही नमी कहां से आ गई मैं समझ गई थी किंतु आज मुझे बूंद की हिफाज़त करनी है। अब नहीं गिरने दूंगी इस बूंद को । इसे अब महफूज रखना ही होगा और मैं इसे महफूज रखूंगी । जो तकलीफ इसने झेली है मैंने झेली है इसे अब और नहीं झेलने दूंगी । इसे महफूज रख मैं जवाब दूंगी उन बादल को ,जिसने इसे बोझ समझ गिरा दिया था । मैं जवाब दूंगी समाज के उन तमाम ठेकेदारों को जो औरत और स्त्रीलिंग को केवल अपनी जागीर समझते हैं । बादल पुरुषवाचक है और बूंद स्त्री वाचक ,स्त्री और स्त्री वाचक केवल टूट कर बिखरने और अस्तित्व खोने के लिए ही तो नहीं बने हैं ना, उसका भी अपना वजूद है । वैसे भी उस छोटी सी बूंद ने खुद ही कहा है कि उसके खत्म होने से ही धरती पर पड़ा बीज अंकुरित होता है । यह बूंद ही है जो धरती के बांझपन को रोकती है। खुद अपने अस्तित्व खो कर ये औरत ही है जो पुरुष को पुरुष बनाती है ।

आज इस बूंद ने मुझे एहसास करवा दिया कि मैं सचमुच अकेली नहीं हूं मेरे साथ अब हर क्षण मेरी आंखों में बैठी वह बरसात की बूंद भी है जो मुझे याद दिलाती है कि मुझे संघर्ष करना है , मुझे संघर्ष करना है ,बस संघर्ष करना है।