शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 14 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 14

[ शिवाजी महाराज और धर्म ]

शिवाजी ने इसलामी शत्रुओं से लड़ाइयाँ कीं, किंतु इसलामी प्रजा से उनका कोई शत्रुत्व नहीं था। आदिलशाह, मुगल, सिद्दी ये सब इसलामी थे। इसलामी प्रजा को शत्रु मानना तो दूर, शिवाजी ने उन्हें अपनी सेना और नौसेना में शामिल किया। उन्हें बड़े-बड़े ओहदे दिए। इब्राहिम खान, दौलत खान आदि मुसलमानों ने शिवाजी की नौसेना में सबसे ऊँचे पदों की शोभा बढ़ाई। शिवाजी सभी के राजा थे, केवल हिंदुओं के नहीं।
धर्म महत्त्वपूर्ण है, किंतु राष्ट्र के विकास में, राष्ट्र की सुरक्षा में धर्म रुकावट नहीं बनना चाहिए। यही संदेश शिवाजी ने अपने आचरण से दिया है।

धार्मिक एकता का उदाहरण
राज्याभिषेक के अवसर पर रायगढ़ में अनेक नई इमारतों का निर्माण किया गया। शिवाजी मोरोपंत पिंगले को साथ लेकर निर्माण कार्यों का निरीक्षण करने निकले। जगदीश्वर के मंदिर को देखकर उन्होंने कहा— “मंदिर बनाया, अच्छा किया किंतु मेरी मुसलिम प्रजा के लिए मसजिद का निर्माण क्यों नहीं किया?” महाराज ने तत्काल आज्ञा दी कि मुसलिमों के लिए मसजिद बनाई जाए। मोरोपंत पिंगले ने आज्ञा का पालन करते हुए रायगढ़ में मसजिद का निर्माण किया। —(न्यू हिस्ट्री ऑफ मराठा / जी. एस. सरदेसाई / भाग 1 / पृष्ठ 264

नरहरि कुरुंदकरजी ने शिवाजी के धार्मिक आचरण का वर्णन इस प्रकार किया है—
‘शिवाजी धार्मिक थे, किंतु धर्म पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं करते थे। वे कठोर थे, किंतु क्रूर नहीं थे। साहसी थे, किंतु हठी नहीं थे। व्यावहारिक थे, किंतु ध्येयरहित नहीं थे। वे ऊँचे उद्देश्य के सपने देखते थे और उन सपनों को पूरा भी करते थे। वास्तविकता पर उन्हें अटल विश्वास था। वे सादगी से नहीं रहते थे। वे आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे और वैभवशाली रहन-सहन रखते थे, किंतु वे रहन-सहन पर अनावश्यक खर्च नहीं करते थे।’

सर्वधर्म समभाव में शिवाजी का गहरा विश्वास था। उन्होंने स्वयं पर हर दृष्टि से पूर्ण नियंत्रण रखा। सत्तर साल तक रसिकता में डूबने वाले शिवाजी नहीं थे। देश में क्या हिंदू राजा और क्या मुसलिम बादशाह। सत्तर साल की उम्र तक तो ये सुंदर तरुणियों एवं रूप-रत्नों का रसास्वादन करते ही थे। शिवाजी के पास इसके लिए अवकाश ही नहीं था। इसीलिए वे चित्रकला, शिल्पकला, संगीत आदि को आश्रय देने एवं विकसित करने की नहीं सोच सके। उन्होंने मजबूत किलों का तो निर्माण किया, किंतु (ताजमहल जैसी) भव्यता से सुशोभित, सजावटी इमारतें बनवाने की कभी नहीं सोची, न ही उनके पास इन सब बातों के लिए पर्याप्त संपत्ति थी। इन ललित कलाओं में रुचि रखते थे, लेकिन इनके लिए समय नहीं था।
शिवाजी महाराज की सेना में अनेक मुसलिम थे, जैसे सिद्दी हिलाल और सिद्दी वहावह, जो घुड़सवार सेना के प्रमुख थे। ये दोनों बाजीप्रभु के साथ घोड़खिंडी लड़ाई में मारे गए। नूरखान बेग (प्रथम सरनौबत), मदारी मेहतर ( अंगरक्षक/आगरा मुलाकात के समय), काजी हैदर (उर्दू/पर्शियन पत्र-व्यवहार के सचिव), शमाखान (सरदार), सिद्दी अंबर वहाद और हुसैन फना मियाँ (उच्च अधिकारी), दर्यासारंग इब्राहिमखान और सिद्दी संभल (ये पहले पूर्वी जंजीरा किले के सिद्दी के साथ थे, लेकिन बाद में शिवाजी के साथ आ मिले), सिद्दी मिसरी (सिद्दी संभल के भाई का लड़का ), सुलतान खान और दाउद खान (नौसेना अधिकारी), दौलत खान (मुख्य नौसेना प्रमुख) ये सब मराठा नौसेना में अनेक मुसलिमों के साथ नियुक्त थे। इनके साथ ही था मुहम्मद सैस, जो शिवाजी का तबेला-प्रमुख था।
शिवाजी का एकमात्र रंगीन व्यक्ति-चित्र मीर मोहम्मद ने बनाया था। कालांतर में यह चित्र इटली के ‘स्टोरिया द मोगार’ ग्रंथ में प्रदर्शित हुआ। शिवाजी महाराज केलसी के बाबा याकूब के अनुयायी थे। इससे यही साबित होता है कि शिवाजी केवल हिंदुओं के नेता नहीं थे। उनके आश्रय में सभी धर्मों के लोग थे, यहाँ तक कि अन्य महाद्वीपों के लोग भी उनके साथ बने हुए थे। मसलन एबीसीनिया के अनेक सिद्दी, पुर्तगीज व अंग्रेज आदि।
शिवाजी महाराज ने अपने मातामह (मामा) सिंदखेड़ राजा को आश्रय देने वाले गोमाजी नाईक के कहने से 700 पठानों को अपनी पैदल सेना में शामिल कर लिया था। यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके कारण बीजापुर की सेवक पठान-टुकड़ी अब जावली के मोरे को समाप्त करने के अभियान में महत्त्वपूर्ण मदद दे रही थी। ये सभी पठान रघुनाथ बल्लाल के अधीन थे।
औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता मशहूर है। शिवाजी के सर्व धर्म समभाव की तुलना में औरंगजेब की कट्टरता की औकात ही क्या थी!
औरंगजेब को पक्का यकीन था कि मुगल साम्राज्य एक इसलामिक साम्राज्य है। इस यकीन के चलते औरंगजेब ने भारी कोशिश और मेहनत की अपने आपको एक आदर्श मुसलिम शासक साबित करने की। भारत को दार-उल-हरब की स्थिति को दार-उल-इसलाम में तब्दील कर दिया जाए, ऐसा वह तहेदिल से चाहता था। गैर-मुसलिमों को वह काफिर, यानी विधर्मी ही मानता था। वह शिया और सूफी पंथ के अनुयायियों को सच्चे मुसलमान नहीं मानता था। उनके लिए उसके दिल में कहीं कोई दया अथवा ममता नहीं थी।

एडॉल्फ वेली नामक इतिहासकार के मुताबिक
‘राज्यारोहण के बाद औरंगजेब की कट्टरता और बढ़ गई। वह चित्रकला और मूर्तिपूजा को एक समान ही समझता था, चूँकि पैगंबर साहब ने मूर्ति पूजा पर प्रतिबंध लगाया था, लिहाजा औरंगजेब को चित्रकला भी पसंद नहीं थी। काव्य-कला उसे निरुपयोगी लगती थी। वह संगीत कला से भी नफरत करता था, क्योंकि उसके अनुसार संगीत-साधना करने से शरीर की इंद्रियों को अनैतिक सुख मिलने लगता था!
‘सन् 1666 में उसके कट्टर शत्रु शिवाजी ने आगरा की कैद से बिल्कुल चमत्कार की तरह पलायन किया। यह घटना उसके चेहरे पर एक तमाचे की तरह थी। इस दुःख को व्यक्त करने के लिए उसने शाही दरबार के तमाम गायन-वादन बंद करवा दिये।
दिल्ली और आगरा के महलों की दीवारों पर अनेक कलात्मक चित्र बने हुए थे। औरंगजेब ने उन सबको मिटा दिया। शहंशाह अकबर ने आगरा के किले में राजस्थान के जयमल और फत्ता नामक वीर योद्धाओं के हाथी पर सवार दो पुतले खड़े किए थे, उन्हें भी उसने नष्ट करवा दिया।
‘औरंगजेब से पहले के मुगल शासक अपने दरबार में होली-दीवाली जैसे हिंदू त्योहार बड़े प्रेम से मनाया करते थे। औरंगजेब ने यह प्रथा भी बंद करवा दी। उसने हिंदू ज्योतिषियों को दरबार से निकाल दिया, किंतु मुसलिम ज्योतिषियों को आश्रय व आधार दिया। ‘झरोखा दर्शन’ को हिंदुओं की प्रथा मानकर उसने उसे मुगल सम्राटों के लिए प्रतिबंधित कर दिया।
‘हमने देखा कि अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म शुरू किया। इस धर्म के अनुयायी हर सुबह झरोखे में खड़े अकबर का चेहरा देखने के बाद ही अपने दैनिक कार्य शुरू करते थे। इन्हें ‘दर्शनिया’ कहते थे। यह प्रथा अकबर के बाद जहाँगीर और शाहजहाँ ने जारी रखी। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता से एक बात अच्छी हुई। चापलूसी जैसी यह प्रथा बंद हो गई।
‘मानव शरीर के अवयव टूटने पर उस वेदना को कम करने के लिए मद्य एवं भाँग का सेवन करवाया जाता था। औरंगजेब ने इसे भी प्रतिबंधित करवा दिया।’
भारत में मुगल सत्ता के इतिहास में 2 अप्रैल, 1679 का दिन कभी नहीं भुलाया जाएगा। इस दिन औरंगजेब ने भारत के हिंदुओं के खिलाफ जिहाद का सरेआम ऐलान किया था। जिहाद का स्पष्ट अर्थ है ‘धर्मयुद्ध’। उस जिहाद का मकसद था; काफिरों के प्रदेश को ‘दार-उल-इसलाम’ में तब्दील करना। इसकी शुरुआत की गई, हिंदुओं पर जजिया कर लगाकर यह कर अकबर ने 1564 में समाप्त कर दिया था।
2 अप्रैल, 1679 के दिन भारत को इसलामिक राज्य बना देने के बाद औरंगजेब उसके प्रमुख के तौर पर आगे आया। भारत नामक ‘इसलामिक राज्य’ की धार्मिक जिम्मेदारियाँ औरंगजेब ने अपने कंधों पर ले लीं। उसने तय किया कि हिंदुओं को सताने का कोई मौका वह नहीं चूकेगा। इसके लिए उसने मुगल साम्राज्य के संपूर्ण धन, साधन, प्रशासन एवं सेना का भरपूर उपयोग किया। औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम 28 वर्ष मुगल इतिहास का अंधकारमय प्रकरण है। इस काल खंड में हिंदुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए गए।
औरंगजेब ने मूर्तियों को नष्ट करने का सिलसिला खुलकर चलाया। महमूद गजनी संसार भर में कुख्यात मूर्ति तोड़क था। उसी से प्रेरणा लेकर औरंगजेब ने गुजरात के चिंतामणि मंदिर के परिसर में गाय काटकर उसे अपवित्र किया और उसे तोड़कर, उसकी जगह एक मसजिद खड़ी करके उसका नाम ‘कुवत-उल इसलाम’ मसजिद कर दिया। इस घृणास्पद कृत्य के लिए गुजरात के हिंदुओं ने अपना कठोरतम विरोध व्यक्त किया। महमूद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को बेशक बार-बार लूटा और नष्ट किया था, लेकिन औरंगजेब ने तो एक कदम आगे जाकर तोड़े गए मंदिर को मसजिद में बदल दिया।
औरंगजेब के कार्यकाल में हिंदू व्यापारियों एवं उद्योगपतियों से चुंगी व अन्य कर कठोरता से वसूल किए जाते थे। मुसलमानों को कर में छूट मिलती थी या अत्यंत अल्प मात्रा में कर लिये जाते थे। हिंदुओं से 5 प्रतिशत एवं मुसलिम व्यापारियों से 2.5 प्रतिशत कर लिया जाता था। हिंदू व्यापारियों को हर कदम पर तंग किया जाता था। आगामी 2 वर्षों में मुसलिम व्यापारियों का जकात कर पूरी तरह माफ कर दिया गया, जबकि हिंदुओं के जकात का प्रतिशत ज्यों-का-त्यों बना रहा।
हिंदुओं पर आर्थिक भार व दबाव बढ़ाने के लिए औरंगजेब ने धर्मांतरण का मार्ग अपनाया। धर्मांतरण करनेवालों को पुरस्कृत किया जाता था। शासन की सेवा में स्थान भी दिया जाता था। येन-केन-प्रकारेण हिंदू अपना हिंदुत्व छोड़कर इसलाम को अपना लें। यही एक मकसद होता था, इन गतिविधियों का धर्मांतरण को शासन की ओर से
पूर्ण सहयोग मिलता था।
औरंगजेब ने धीरे-धीरे हिंदू पदाधिकारियों को अपने पदों से हटा दिया।
प्रांतों के सूबेदारों और तालुकेदारों को स्पष्ट आदेश दिया गया कि लिपिक, पेशकार, लेखपाल व दीवान के पदों पर जो भी हिंदू काम कर रहे हों, उन्हें हटाकर मुसलिमों की नियुक्ति की जाए। इस आदेश के कारण चारों ओर खलबली मच गई। मुसलिमों के बीच योग्य व अनुभवी कर्मचारी न मिल पाने के कारण आखिर तय किया गया कि हिंदुओं और मुसलिमों की तादाद आधी-आधी रखी जाए। यह आदेश महसूल विभाग एवं वेतन वितरण विभाग के लिए संशोधित रूप में दिया गया।
इतिहासकार एडॉल्फ वेली के शब्दों में, “औरंगजेब के पास अकबर जैसी प्रतिभा एवं बुद्धि नहीं थी। न ही वह शाहजहाँ या जहाँगीर जैसा होशियार व ज्ञानी था, जिन्होंने अपने विवेक व दूरदर्शिता से राजकाज चलाकर तैमूर घराने को सच्चे अर्थ में भारतीय घराना बनाया था। शाहजहाँ और जहाँगीर गर्व महसूस करते थे कि वे एक भारतीय राज-घराने के हिस्से हैं।
“काफिरों (हिंदुओं) की शक्ति व सामर्थ्य कम करने की दृष्टि से औरंगजेब ने जजिया कर लागू किया था। जजिया के हथियार से वह अपनी प्रजा के भूखंड ही अलग-अलग कर देना चाहता था। मुसलिम अपने प्रदेशों में रहें और हिंदू अपने अलग प्रदेशों में रहें। औरंगजेब के कई शुभचिंतकों ने उसे नेक सलाह दी कि जजिया कर को लेकर उसे दुबारा विचार करना चाहिए, लेकिन उसने एक न सुनी। हिंदू समाज पहले से ही पक्षपात सहन कर रहा था। इसमें मंदिरों का विध्वंस, धार्मिक असहिष्णुता, शासकीय सेवा से हिंदुओं को खारिज करना। यह सब शामिल था। ऐसी स्थिति में हिंदुओं पर जजिया कर का अतिरिक्त बोझ लादना उनका सर्वनाश करना ही था।”
हिंदुओं ने बार-बार सम्राट् से याचना की कि जजिया कर समाप्त कर दिया जाए, किंतु व्यर्थ।
औरंगजेब जैसे तानाशाह की सख्तियों से बचने के दो ही रास्ते थे। एक तो यही कि इसलाम कबूल कर लिया जाए और दूसरा यह कि हथियार उठाकर संघर्ष किया जाए। देश के विभिन्न भागों में लोगों ने मुगल सत्ता के विरोध में सशस्त्र संघर्ष करके स्वतंत्रता पाने का प्रयास किया।

शिवाजी बनाम औरंगजेब
शिवाजी ने जजिया कर के बारे में औरंगजेब को जो पत्र लिखा था, वह इस प्रकार हैं—
शक संवत : 1579
ईश्वी सन् : 1657

( पत्र का सारांश )
॥ पत्र प्रारंभ ॥
“...आपसे विदा लिये बगैर हम चले आए हैं। कुछ बातें, जो अनाथ एवं वृद्धों के कल्याण की हैं, यहाँ लिख रहे हैं।
हमारे इधर आने पर पता चला कि बादशाह का खजाना खाली हो गया है। संपूर्ण द्रव्य समाप्त हो गया है। लोग आपके इलाके छोड़कर जा रहे हैं। हिंदुओं से जजिया कर वसूल करके बादशाहत चलाई जा रही है। अकबर बादशाह ने इस देश में 52 साल न्यायपूर्वक राज्य किया है। न्याय की शक्ति से ही इसवी, दाऊदी और महमदी प्रजाओं के साथ ब्राह्मणों, शेवड़े वगैरह हिंदुओं का धर्म सुरक्षित रहा। खुद बादशाह भी धर्म की संस्थापना में मददगार होते थे। तभी तो वे जगद्गुरु के तौर पर मशहूर हुए। ऐसी सदिच्छा के कारण ही उन्हें ऐसा यश प्राप्त हुआ, जिसका ओर छोर नहीं था। नूरुद्दीन जहाँगीर बादशाह ने 22 साल बादशाही की और जन्नत पहुँचे। शाहजहाँ साहेब ने 32 साल बादशाही की। इन्होंने अपनी जिंदगी अच्छे से जी कर मशहूरी हासिल की। इस प्रकार जिंदा रहते हुए अच्छी मशहूरी हासिल करना और बाद में भी उस मशहूरी का अच्छा बने रहना। यह इनसान के लिए बहुत जरूरी है। ऐसे इनसान को उसकी धन-दौलत कभी छोड़कर नहीं जाती।
इन बादशाहों का प्रताप बहुत बड़ा था। हिम्मत भी बहुत बड़ी थी। आप आलमगीर हैं। आपने आलमगीर के तौर पर इन बादशाहों के आदर्शों की रक्षा बखूबी की है। ये बादशाह भी जजियापट्टी ले सकते थे, किंतु नहीं ली। इसलिए नहीं ली कि ये जानते थे कि छोटे-बड़े सभी अपने-अपने धर्म को अच्छे से निभा रहे हैं और सभी ईश्वर के ही लोग हैं। इन बादशाहों ने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किया। आज भी इनके गुणों की तारीफ की जाती है। जैसी नीयत, वैसी बरकत। ये बादशाह लोगों का भला चाहते थे इसलिए लोगों का भला हुआ और खुद इन बादशाहों का भी भला हुआ।
आपके शासनकाल में बहुत से किले आपके हाथ से निकल गए हैं। जो बचे हैं, वे भी निकल जाएँगे। जिस इलाके से आपको एक लाख रुपए का लगान मिलता था, वहाँ आज एक हजार भी नहीं मिलता। जाने कितने बादशाह आए, जो दरिद्र हो गए। जिनके बेटे भी दरिद्र हो गए। इस दरिद्रता से उनकी फौज हैरान रह गई, उनके सौदागर और साहूकार भी हैरान रह गए। उनके उमरावों की हालत खस्ता हो गई। मुसलमान उनकी दरिद्रता पर रोए। हिंदू उनके द्वारा किए गए पक्षपातों पर रोए।
आज आपकी रिआया (प्रजा) की क्या दशा है! कितने ही लोग रात को भूखे सोने पर मजबूर हैं। यह कैसा राज्य है आपका, जहाँ प्रजा की भलाई की कोई फिक्र नहीं की जा रही? इन हालातों में आपका जजिया कर जारी करना! हमें पता चला है कि हिंदुस्तान का बादशाह फकीरों जैसे शेवड़े ब्राह्मणों से भी जजिया कर वसूल कर रहा है। खुद आप सोचें; क्या ऐसा करने से तैमूर बादशाह की शान में खता नहीं होती ?
पवित्र कुरान शरीफ में खुदा की वाणी है। इस खुदा की वाणी में कहा गया है कि खुदा मुसलमानों का है और दुनिया के दूसरे लोगों का भी है। अच्छा और बुरा दोनों खुदा के बनाए हुए हैं। दुनिया में अगर मसजिद हैं, तो मंदिर भी हैं। मसजिद में बाँग दी जाती है, तो मंदिर में घंटा बजाया जाता है। किसी के धर्म का विरोध करना यह स्वयं अपने धर्म से अलग होना ही है। ईश्वर ने जो लिखा है, उसे रद्द करना स्वयं ईश्वर को दोष देना है।
ईश्वर का लिखा हुआ अच्छा लगे या न लगे, उसे रद्द नहीं करना चाहिए। किसी चीज की निंदा करना स्वयं उस चीज को बनाने वाले की निंदा करने जैसा ही है।
न्याय नहीं चाहता कि आप हिंदुओं पर जजिया कर लगाएँ। अब तक जिसने भी जजिया लगाया है, गैर-वाजिब लगाया है। सुलतान अहमद को भी इसका नतीजा बुढ़ापे में भुगतना पड़ा था। जिस पर भी अत्याचार होता है, वह दुःख से हाय-हाय करता है। उसकी बददुआ तो आग से भी ज्यादा तेजी से झपटकर अत्याचारी का नाश करती है। यदि हिंदुओं से जजिया वसूल करके उन्हें तंग ही करना है, तो सबसे पहले राजसिंह से जजिया लिया जाए; फिर दूसरे हिंदुओं से वसूल किया जाए। अनाथ, गरीब लोग तो कीड़े-मकोड़ों की तरह निर्बल होते हैं। उनको तकलीफ देने में कोई बड़प्पन नहीं है।
आपके खुद के सलाहकार यह सब देखते और समझते हैं, फिर भी अग्नि को घास के तिनके डालकर छिपाने की कोशिश करते हैं। यह बात भी कम हैरत की नहीं है। आपके दरबार में पाँच हजार मनसबदार हैं। उनसे मशविरा करते हुए आप राज्य चलाते हैं। आपके इस विशाल राज्य का सूर्य सूर्योदय होते ही तेजस्विता प्राप्त करे। यही कामना करता हूँ।”

इस पत्र से पता चलता है कि शिवाजी केवल प्रांतीय स्तर के प्रशासक नहीं बल्कि राष्ट्रीय के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर के तत्त्वज्ञानी एवं राजनयिक थे।
सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत का पालन केवल राजनीति के लिए आवश्यक नहीं है। यह सिद्धांत तो समग्र मानवता के साथ सीधा जुड़ा हुआ है।
किसी भी धर्म से द्वेष नहीं रखना चाहिए, क्योंकि धर्म-द्वेष से देवत्व का अपमान होता है।
मशहूर इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने सन् 1928 में लिखे अपने ग्रंथ ‘औरंगजेब चरित्र' में कहा है कि औरंगजेब संपूर्ण भारत में इसलामी राज्य स्थापित करना चाहता था। सभी प्रजा जन को मुसलमान बना लेने के लिए जो रामबाण उपाय उसे सूझ पाया, वह यही था कि हिंदुओं पर जजिया कर लगा दिया जाए।
‘अगर तुम दुश्मन को हरा नहीं सकते, तो जाकर उसके साथ मिल जाओ।’ इस नीति को अपनाने के लिए औरंगजेब ने अपनी प्रजा को विवश कर दिया। ‘गाजर चाहिए या लाठी?’ इसका जवाब यदि 'गाजर' है, तो इसलाम को कबूल कर लेना ही उचित है। इसलाम को कबूल करना और गाजर हासिल करना, ये दोनों एक समान हैं। जिन्होंने भी इसलाम को कबूल किया, उन राजपूतों और क्षत्रियों को ऊँचे ओहदे मिले, ब्राह्मणों को ऊँची नौकरियाँ मिलीं, साहूकारों-बनियों को शानदार सहूलियतें मिलीं। शूद्रों को भी बराबरी और इज्जत मिली। समाज के सभी वर्गों के लोग इसलाम में आ रहे हैं। तुम भी आ जाओ, वरना…
इसके अलावा औरंगजेब ने फरमान निकाला कि हर हिंदू पुरुष को चार मुद्राएँ और स्त्री को दो मुद्राएँ देकर मुसलमान बनाया जाए।
औरंगजेब की इस नीति ने भय का निर्माण किया और फिर सुविधाओं की बरसात भी की। औरंगजेब जब तक आगरा में रहा, लगभग 20 प्रतिशत हिंदुओं ने इसलाम कबूल कर लिया।
किंतु औरंगजेब 27 वर्ष तक महाराष्ट्र में भटकता रहा, जहाँ शिवाजी के मावलों (मराठा सैनिकों) ने साहस के साथ उससे टक्कर ली। इस दौर में औरंगजेब को राजपूतों के सहयोग की जरूरत थी, इस कारण धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया को उसे शिथिल करना पड़ गया।
धर्म परिवर्तन को शिवाजी ने जिस प्रकार रोका, उसकी प्रशंसा में कवि भूषण ने लिखा है “न होता शिवा, तो हो जाती सबकी सुन्नत”



संदर्भ—
1. शिवचरित्रा पासून आम्ही काय शिकावे ? / डॉ. जयसिंह पवार
2. मध्ययुगीन भारत का वृहत् इतिहास / जे. एल. मेहता
3. भाषांतर/ डॉ. वसंतराव देशपाण्डे
4. शिवाजी कोण होता? / गोविंद पानसरे
5. Shivaji: The Great Maratha / H.S. Sardesai