शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 5 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 5

[ शिवाजी महाराज और थर्मोपीली.. ]

थर्मोपीली की लड़ाई ग्रीस इतिहास की अत्यंत महत्त्वपूर्ण लड़ाई थी। लिओनी डास के असीम त्याग के फलस्वरूप ग्रीस की स्वतंत्रता, ग्रीक संस्कृति व यूरोपियन संस्कृति ‍का मूल स्वरूप सुरक्षित रहा। थर्मोपीली के सँकरे रास्ते से स्पार्टा की ओर जाते समय बीच राह एक शिला-स्तंभ आता है, जिस पर लिखा यह वाक्य यात्रियों को आज भी यह सूचना देता है कि हे यात्री! तुम जब स्पार्टा पहुँचो, तब वहाँ के बाशिंदों से जरूर ऐसा कहो कि आप सबकी आज्ञा सिर-माथे पर लेकर हम इस भूमि पर न्योछावर हुए हैं और यहाँ आज भी उपस्थित हैं।

इस स्वतंत्रता युद्ध ने मानव जीवन के कुछ बुनियादी मूल्य निर्धारित किए थे। उन्हीं कसौटियों पर हॉलैंड का स्पेन के साथ युद्ध, अमेरिकन और अंग्रेजों का युद्ध, मराठों का औरंगजेब से व भारतीयों का ब्रिटिशरों से युद्ध, इन सभी युद्धों में जीवनमूल्यों का परीक्षण हुआ एवं इतिहास ने अपना निर्णय सुनाया। थर्मोपीली का युद्ध यह सिद्ध करता है कि देशभक्ति सर्वश्रेष्ठ है। देशभक्ति में डूबी हुई छोटी सेना भी बलवान शत्रु को हरा सकती है। इस प्रकार के युद्धों में भूमि अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है।

अफजल खान की मौत की खबर बीजापुर पहुँचते ही चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। रोना-बिलखना शुरू हो गया। इसके तीन दिन बाद ही बीजापुर में दूसरी खबर पहुँची कि शिवाजी अपनी फौज लेकर कोल्हापुर की ओर कूच कर रहे हैं। अफजल खान के वध के सिर्फ 13 दिन बाद ही शिवाजी ने ऊँची उड़ान भरी और 25 नवंबर 1659 के दिन कोल्हापुर पर विजय प्राप्त की। उसके बाद वे पन्हालगढ़ की ओर बढ़ चले।
पन्हालगढ़ पर विजय प्राप्त हुई, तब रात के 9 बजे थे। महाराज को गढ़ देखने की इतनी उत्सुकता थी कि उन्होंने रात्रि में ही मशाल की रोशनी में गढ़ का निरीक्षण किया। महाराज की यह उपलब्धि सचमुच एक ऊँची उपलब्धि थी। खान का वध होने के अठारह दिनों में ही वाई से पन्हालगढ़ तक का विशाल क्षेत्र जीतकर शिवाजी महाराज ने स्वराज्य का ध्वज लहरा दिया।
शिवाजी राजे को पन्हालगढ़ से हटाने और उन्हें दंडित करने के लिए कौन व्यक्ति उपयुक्त होगा, यह चिंता आदिलशाह को सता रही थी। उसे सिद्दी जौहर की याद आई, जो तेलंगाना के कर्नूल प्रांत का कार्य सँभाल रहा था। सिद्दी जौहर दरअसल मलिक रहमान का नौकर था, जो अपने स्वामी के मरने पर उसके बेटे को हटाकर स्वयं ही सरदार बन बैठा था। आदिलशाह को वह पसंद नहीं था, फिर भी उसने उसे बुलावा भेजा और कहा कि यदि वह शिवाजी के साथ युद्ध कर उसे बाहर निकाल दे, तो हम खुश हो जाएँगे और उसे निहाल कर देंगे। सिद्दी जौहर ने शिवाजी को पराजित करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। उसने आदिलशाह को लिखित अर्जी देकर कहा कि शिवाजी को हराने का जिम्मा आप मुझे सौंप दें। मैं उसे नष्ट कर दूँगा।

थर्मोपीली का युद्ध स्पार्टा के राजा लिओनिडास और पर्शिया के राजा जर्कसीस के बीच हुआ था। यह युद्ध तीन दिनों तक चला था। थर्मोपीली दरअसल एक सँकरे रास्ते का नाम था। लिओनिडास (स्पार्टा) के पास थे, केवल सात हजार सैनिक, जबकि जर्कसीस (पर्शिया) के पास थे एक लाख सैनिक; किंतु ये एक लाख सैनिक एक साथ लड़ नहीं सकते थे।
युद्ध के दूसरे दिन अफीअलटेस नामक एक स्थानीय लंगड़े ग्रीक व्यक्ति ने धोखा किया। उसने पर्शिया के सैनिकों को एक खुफिया रास्ता दिखाया, जहाँ से होकर पर्शिया की सेना स्पार्टा की सेना पर बाजू से हमला कर सकती थी।
लिओनिडास को जब इसका पता चला तो उसने 300 सैनिकों को छोड़कर बाकी सेना को छुट्टी पर भेज दिया। ये 300 सैनिक लिओनिडास के साथ, युद्ध के तीसरे दिन शहीद हुए, किंतु उन्होंने जर्कसीस के 20,000 सैनिकों को मौत के घाट उतारा।

सिद्दी जौहर आदिलशाह से रू-ब-रू मिलने के लिए बीजापुर पहुँचा। आदिलशाह ने उसे ' सैलाबतखान' की उपाधि देकर सम्मानित किया एवं शिवाजी का पराभव करने के लिए रवाना कर दिया।
आदिलशाह ने अफजल खान के बेटे फाजल खान को हुक्म दिया कि वह जौहर की फौज में शामिल हो जाए।
शिवाजी महाराज को जब पता चला कि सिद्दी जौहर बहुत बड़ी फौज लेकर हमला करने आ रहा है, तब वे मीरज में थे। महाराज तुरंत मीरज छोड़कर पन्हालगढ़ वापस आ गए। उन्होंने सिद्दी जौहर का सामना पन्हालगढ़ से ही करने का निर्णय ले लिया था। पन्हाला किला बिल्कुल राज्य की सीमा पर ही सीना तान कर खड़ा था। शत्रु सीमा में दाखिल हो, उससे पहले ही उसे ऐन सीमा पर ही ललकारना ठीक होगा। ऐसा करने से शत्रु सेना को लूटपाट करने का मौका नहीं मिलेगा। अफजल खान ने भी सीमा पार करके ही लूटपाट की थी। वैसी लूटपाट को शत्रु अब दोहरा नहीं सकेगा। लूटपाट टालने के ही लिए शिवाजी मीरज छोड़कर पन्हालगढ़ के किले में आ गए थे।
उसी समय आदिलशाह अपने सभी बड़े जमींदारों को धमकियाँ दे रहा था। 5 जनवरी 1660 के दिन जमींदार विठोजी हैबतराव शिलमकर को यह फरमान भेजा गया था—
सय्यद अब्दुल्ला बिन सय्यद मुहम्मद देसाई, रोहिड़ा के किलेदार से अर्ज करते है कि शिवाजी ने निजामशाही एवं अन्य इलाकों को जबरदस्ती अपने कब्जे में कर रखा है। आप पुराने मिरासदार हैं, इसलिए विठोजी के पुराने इनाम व अन्य मदद जारी रखें। इससे वे बादशाह के प्रति अपनी निष्ठा दिखाएँगे। इसलिए उन्हें दिए गए गाँव तांभारे, जांभली, हातवे और मोहरी उन्हीं के पास रहें। ये इनाम उनके वंशजों के नाम जारी रहेंगे। विठोजी पर सभी प्रकार से विश्वास रखकर शिवाजी ने यह प्रदेश अपने कब्जे में ले लिया था। अब इसे वापस बादशाह के कब्जे में लाया जाए। इससे बादशाह के प्रति निष्ठा प्रकट होगी। निष्ठा प्रकट करने के अन्य सभी प्रयत्न किए जाएँ। ऐसा करने से उन पर बादशाह की कृपा होगी; ऐसा विश्वास रखें।
सिद्दी जौहर शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ। उसी समय आदिलशाह ने मावल के सभी देशमुखों एवं अन्य जमींदारों के नाम यह फरमान भिजवाया—

फरमान (मराठी में):
“दरी वरून सैद अब्दुल्ला मालूम करिता तुमचे हलालखोरी रोशन जाहले। गनिमाचे निसबतीचे लोक विलायती मध्ये जागा जागा असती। त्यासी अवघे दस्त करून हुजुर पाठविणे। त्याचे जिणजित रूब तुम्हासी जे सापडेल ते तुम्हासी माफ उसे तुम्हासी हे कामावरून बहुत सरफराजी होईल।”

केदारजी खोपड़े ने दरबार से विनती की:
“मौजे नेर व पलसोसी, ही गावे भागवडी येथील कूंकू मियाच्या बाबतीतील पांच बीघे व चार बीघे पासोडी आणि पालियान मौजेतील पाच बीघे कामत व किले मजकुराच्या बोगारी चा राबता येवढयाची मजवर कृपा करावी म्हणजे सलाबत खाना बरोबर पातशाही मसलत करीन।”
सारांश यह है कि अगर उपर्युक्त गाँवों की मालिकी उन्हें दे दी जाए, तो वे बादशाह की मदद करेंगे। केदारजी खोपड़े के साथ-साथ मुसेखोरे के गोंदाजी पासलकर ने भी बादशाह की चाकरी स्वीकार कर ली।
सिद्दी जौहर को जब पता चला कि शिवाजी पन्हालगढ़ चले गए हैं, तो उसने अपनी फौज को पन्हालगढ़ पर घेरा डालने का हुक्म दिया। सिद्दी जौहर ने प्रतिज्ञा की कि जब तक शिवाजी राजा शरण में नहीं आ जाते, तब तक घेरा जारी रहेगा और युद्ध होता रहेगा। पन्हालगढ़ की तलहटी में जौहर ने चारों ओर तंबू खड़े कर फौजी छावनी जैसा पक्का बंदोबस्त कर लिया। कुछ ही दिनों में गढ़ को हर तरफ से घेर लेने की काररवाई पूरी हो गई। सरदार फाजल खान, बड़े खान, रुस्तमेजमान और खुद जौहर ने पूर्व की ओर का मोरचा सँभाला। सरदार सादतखान सिद्दीमसूद, बाजी घोरपड़े और भाई खान ने पश्चिम की ओर मोर्चाबंदी की। उत्तर और दक्षिण की तरफ से जौहर ने पूरी तरह से घेरा डाल रखा था।
शिवाजी राजे सन् 1660 में मार्च से जुलाई तक चार महीने पन्हालगढ़ में ही रहे। तलहटी से तोप और बंदूकें दागी जा रही थीं। मराठे भी मुँहतोड़ जवाब दे रहे थे। दोनों तरफ से घमासान जारी था। शिवाजी के पास सैनिक कम थे। इसीलिए वे किले से निकलकर सिद्दी जौहर से आमने-सामने नहीं लड़ सकते थे।
सिद्दी जौहर ने एक-डेढ़ महीने में अपना घेरा और भी मजबूत कर लिया, जिससे शिवाजी के सभी रास्ते बंद हो गए। जौहर ने अस्थायी निवास बनाकर गढ़ को घेरने का काम चालू रखा। जौहर की तोपें गढ़ तक मार नहीं कर सकती थीं। इसलिए उसने अंग्रेजों के तोपखाने से दूर तक मार करने वाली तोपों एवं बारूद की माँग की। जौहर का बल बढ़ता ही जा रहा था। श्रृंगारगारपुरकर, सूर्यराव सुर्वे, पालवणीकर तथा जसवंतराव दलवी अपनी सेनाएँ लेकर आ धमके और सिद्दी जौहर से मिल गए।
अंग्रेजों के राजापुर तोपखाने का मुखिया हेनरी रिव्हींग्टन था। उसने जौहर की माँग को मंजूर कर लिया। अंग्रेज गोलंदाजों की एक टुकड़ी के साथ दूर तक मार करने वाली बड़ी तोप और बारूद की पेटियाँ लेकर स्वयं हेनरी 2 अप्रैल, 1660 के दिन राजापुर से रवाना हुआ। वह पन्हालगढ़ की तलहटी में 10 अप्रैल, 1660 को पहुँच गया। अंग्रेजों ने अपनी जबरदस्त तोप से गढ़ पर गोलाबारी की, लेकिन गढ़ का कुछ भी न बिगड़ा।
लेकिन जौहर ने गढ़ पर से अपना घेरा उठाया ही नहीं, साथ में खारेपाटण और संगमेश्वर जैसे शिवाजी के महत्त्वपूर्ण प्रदेशों पर भी आक्रमण कर दिया। शिवाजी महाराज ने परिस्थिति भाँपकर जौहर से समझौते की पेशकश की, लेकिन जौहर ने गौर नहीं किया। जौहर ने पन्हालगढ़ के वायव्य में स्थित खेलणा उर्फ विशालगढ़ के किले की भी घेराबंदी करने की योजना बनाई और इसका जिम्मा सूर्यरावराजे सुर्वे तथा पालवणीकर जसवंतराव जैसे दो सरदारों को सौंपा।
जौहर से समझौता वार्ता असफल हो गई, तो शिवाजी राजे ने आदिलशाह से क्षमा याचना करनी चाही, मगर हाथ आए दुश्मन को भला कौन छोड़ने वाला था? साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग करके भी शिवाजी महाराज को बाहर निकलने का मार्ग नहीं
सूझ रहा था। सिद्दी जौहर, फाजल खान व उसकी 35 हजार सैनिकों की सेना को अब बस इतना ही इंतजार था कि शिवाजी कब शरणागति कबूल करते हैं। आषाढ़ के महीने में गढ़ पर मूसलाधार बारिश हो रही थी। गढ़ में 6 हजार मराठा सैनिक थे। इनमें केवल शिवाजी में ही निष्ठा रखते शूरवीर एवं धैर्यशाली सरदार बाजीप्रभु के देश-कुलकर्णी सैनिक भी शामिल थे, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी देशभक्ति का परिचय देते आ रहे थे।
आषाढ़ का महीना आधा बीत चुका था। शिवाजी राजा ने अपने सभी श्रेष्ठ सभासदों को सलाह-मशविरा के लिए दरबार में बुलाया। उन्हीं दिनों मुगल सरदार शाइस्ता खान ने पुणे पर आक्रमण कर एक बड़ा इलाका अपने कब्जे में ले लिया था। उसकी इस हरकत से पन्हालगढ़ में लड़ते बैठे रहने की बजाय वहाँ से बाहर कैसे निकला जाए, इस पर शिवाजी राजे विचार करने लगे। मराठे पन्हालगढ़ में काफी समय से अटके हुए थे। अब उनका धैर्य समाप्त हो रहा था। जीजाबाई भी चिंता करने लगीं। हालात का ठीक से जायजा लेने के बाद जून, 1660 में शिवाजी महाराज ने एक बार फिर सिद्दी जौहर से समझौते की बातचीत करना प्रारंभ किया। अपने इस प्रयास में शिवाजी काफी नरमी से पेश आए।
सच तो यह है कि इसमें भी उनकी रणनीति व कूटनीति दोनों छिपी हुई थीं।
गंगाधर पंत नामक एक वकील के जरिए शिवाजी महाराज ने सिद्दी जौहर को सूचित किया कि हमारे लिए आदिलशाह से बातचीत की जाए। “हम अपनी संपूर्ण संपत्ति व राज्य आदिलशाह को भेंट करना चाहते हैं।” ऐसा पत्र जब सिद्दी जौहर को दिया गया, तो पढ़कर वह आश्चर्यचकित रह गया। शिवाजी राजा की चाल वह समझ ही न सका। उसे लगा, अब तो शिवाजी शरण में आने की तैयारी कर रहे हैं। इसके बाद लड़ाई खत्म हो जाएगी। ऐसा सोचकर सिद्दी असावधान रहने लगा। शिवाजी महाराज यही चाहते थे।
पन्हालगढ़ के किले से निकल जाने की युक्ति महाराज ने निश्चित की। एक रात वे सिद्दी की नजर बचाकर चुपके से किले से बाहर निकले। बारिश हो रही थी। रात के पहले प्रहर का अँधियारा छाया हुआ था। महाराज दो पालकियाँ, कुछ खजाना, 600 पैदल सैनिक और संकट-काल में पलायन के लिए 15 चुनिंदा घोड़े साथ लिये हुए थे। किस रास्ते से कैसे आगे बढ़ना है, यह उनके गुप्तचरों ने पहले से निश्चित कर रखा था। वे विशालगढ़ की दिशा में निकल पड़े।
खतरनाक ढलानों और चढ़ाइयों से आच्छादित वह पहाड़ी रास्ता सचमुच दुर्गम था। पलायन के लिए उतने कठिन रास्ते का चुनाव महाराज करेंगे, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था। इसीलिए तो खास उसी रास्ते को चुना गया था। चिकने पत्थरों और कीचड़ से भरे उस रास्ते में अनेक छोटे-छोटे नदी-नाले पड़ते थे, जिन्हें पारकर महाराज को पहुँचना था विशालगढ़ के किले में, जो था 40 मील के फासले पर।
शिवाजी पन्हालगढ़ से निकलकर पहाड़ी रास्ते से सरक गए हैं, यह खबर थोड़ी ही देर तक छिपी रह पाई। जल्द ही यह खबर सिद्दी जौहर के कानों तक पहुँच गई। सिद्दी सन्नाटे में आ गया। उसने ताबड़तोड़ अपने जामाता सिद्दी मसूद और फाजल खान को शिवाजी का पीछा करने के लिए रवाना किया।
काफी समय बाद एक पालकी व कुछ लोग शत्रु के हाथ लगे। शत्रु ने समझा, उन्होंने शिवाजी को पकड़ लिया, लेकिन पता चला कि पालकी में तो नकली शिवाजी विराजमान हैं! शत्रु की सारी खुशी काफूर हो गई। असली शिवाजी के घोड़े तो विशालगढ़ की ओर दौड़े जा रहे थे! शत्रु ने तिलमिलाकर शिवाजी का दुबारा पीछा शुरू किया।
13 जुलाई, 1660 की सुबह दूर विशालगढ़ का किला नजर आने लगा। ज्यों-ज्यों सुबह की किरणें फूटती गईं, किला स्पष्ट होता गया। केवल 6 मील के अंतर पर शिवाजी आ पहुँचे थे। उन्हें पता चल चुका था कि शत्रु पूरी ताकत के साथ पीछे लगा हुआ है। मंजिल के इतने नजदीक आकर भी अगर शिवाजी पकड़े जाते हैं, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा। बहुत जरूरी था कि विशालगढ़ पहुँचने के लिए उन्हें कुछ समय मिले। यह सोचकर बाजीप्रभु ने महाराज से विनती की कि आप 300 सैनिक लेकर विशालगढ़ पहुँचिए। शेष 300 सैनिक लेकर मैं यहाँ अड़ा रहूँगा। शत्रु पहले मुझसे भिड़ेगा, फिर आगे बढ़ेगा। तब तक आप विशालगढ़ में प्रवेश कर जाएँ।
शिवाजी को यह प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा।
विशालगढ़ को भी शत्रु ने घेर रखा था। उस घेरे को तोड़ने में महाराज को दो प्रहर का समय लगा, किंतु अंततः वे किले में प्रवेश कर गए।
उधर बाजीप्रभु ने पूरी संजीदगी और बहादुरी के साथ एक खंदक के सँकरे मुहाने पर रुककर मोरचाबंदी कर ली। विशालगढ़ की ओर आगे बढ़ने का एक ही रास्ता था और वह रास्ता उसी खंदक से गुजरता था। शत्रु ने ज्यों ही सँकरे मुहाने में दाखिल होने की कोशिश की, वीर मराठे उन पर टूट पड़े। शत्रु ने भी उन्हें बराबर की टक्कर दी। शत्रु के पास हजारों सैनिक थे, जबकि मराठों के पास वही 300! मराठों के 50 चुनिंदा वीरों ने मुहाने पर डटे रहकर शत्रु का जिस तरह मुकाबला किया, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। छिपकर वार करने की मराठों की कला इतनी मजबूत थी कि केवल 50 वीरों ने शत्रु को आगे बढ़ने से पूरी तरह रोक दिया।
बाजीप्रभु ने दो प्रहर तक शत्रु को खंदक के मुहाने पर ही अटकाकर रखा। शत्रु को तो यही समझ में नहीं आता था कि मराठा सैनिकों की तादाद कुल कितनी है। छापामार युद्ध में पारंगत मराठे कभी भी, कहीं से भी प्रकट हो जाते और दुश्मन पर वारकर अचानक गायब भी हो जाते। खंदक की घनी हरियाली उन्हें झट से छिपा लेती।
अपनी कोशिश को इस तरह नाकामयाब होते देख फाजल खान बुरी तरह बौखलाकर लड़ने लगा। तभी उसकी कर्नाटक से बुलाई हुई पैदल सेना आ पहुँची, जिसके पास शक्तिशाली तोपें थीं। फाजल खान ने मराठों पर तोपों से मार की। करीब-करीब आधे मराठे सैनिक इस हमले में वीर गति को प्राप्त हुए। शत्रु के तो 5000 सैनिक मौत के घाट उतर गए।
बाजीप्रभु हार मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मुसलिमों का तीसरा हमला रोकने का प्रयत्न किया। तभी तोप की मार से वे घायल हो गए। गिरते-गिरते भी उन्होंने विशालगढ़ की दिशा से आ रही पाँच तोपों की गर्जना सुनी। यह संकेत था कि शिवाजी महाराज विशालगढ़ में सुरक्षित दाखिल हो गए हैं। होंठों पर मुसकान के साथ बाजीप्रभु ने प्राण त्यागे। तन अवश्य छिन्न-विच्छिन्न हुआ था, किंतु मन में परम शांति व संतुष्टि थी।
यह समाचार शिवाजी तक पहुँचा। बाजीप्रभु की चिरविदाई से उन्हें अत्यंत दुःख हुआ। उन्होंने एक निर्णय लिया। अफजल खान के वध के समय सर्वश्रेष्ठ कार्य करने के लिए जेधे देशमुख को भरे दरबार में तलवार का पहला सम्मान दिया गया था। अब वही सम्मान बाजीप्रभु देशमुख के लिए उनके परिवार को दिया जाएगा। इसके लिए महाराज ने जेधे देशमुख की सहमति ले ली। स्वराज्य प्राप्ति के लिए बाजीप्रभु ने अपने बलिदान से वह सम्मान प्राप्त किया, जो प्रथम श्रेणी का था।
सिद्दी जौहर मराठों के विरुद्ध अपना कोई जौहर नहीं दिखा पाया था। विशालगढ़ के रास्ते में हुए संघर्ष में मुट्ठी भर मराठों ने उसकी हजारों की फौज आधी से ज्यादा काटकर गिरा दी थी। इससे सिद्दी जौहर इतना डर गया कि आदिलशाह से मिलने तक नहीं गया। सीधे वह अपनी जागीर करनूल चला गया। “न जाने कैसा दंड दिया जाएगा मुझे!” सोचकर वह मन-ही-मन थरथराता रहता।
आखिर दो महीने बाद उसने जहर पीकर आत्महत्या कर ली।


संदर्भ—
1. शिवराय की युद्ध-नीति / डॉ. सच्चिदानंद शेवड़े-दुर्गेश परुलकर
2. शिवकाल (1630 से 1707) / डॉ. विगो. खोबरेकर
3. छत्रपति शिवाजी महाराज / कृ.अ. केलूसकर
4. Shivaji, The Great Maratha / G.S. Sardesai