[पृष्ठभूमि]
प्राचीनकाल से हिंदुओं की पुरानी युद्ध-प्रणाली प्रचलित थी, जिसमें दोनों पक्षों के बीच में खंबे के रूप में एक चिन्ह रखा जाता था शंख, भेरी, आदि बजाकर युद्ध प्रारंभ किया जाता था। शत्रु को बिना इशारा दिए युद्ध प्रारंभ करना निंदनीय माना जाता था। शत्रु को सावधान करना अनिवार्य था। यह प्रथा पुर्तगीजों के आगमन तक जारी थी। दक्षिण में मुसलमानों के आक्रमण कभी-कभार ही हुए।
पुर्तगीज एवं केरल के नायर लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा बहुत थी। नायरों ने कभी रात्रि में युद्ध नहीं किया। छिपकर भी आक्रमण नहीं किए। युद्ध सुबह होने के बाद ही प्रारंभ किया जाता था। रात्रि में दोनों पक्षों के सैनिक निर्भयता से संचार करते थे। सुबह
के स्नानादि कार्य से निपटने के बाद, भोजन करके एक-दूसरे के साथ बातचीत भी करते थे। रणभेरी बजने के बाद दोनों पक्षों के सैनिक रणखंभे को बीच में रखकर आमने-सामने खड़े हो जाते थे। रणभेरी बजने के उपरांत दूसरे पक्ष से प्रत्युत्तर मिलने के बाद ही युद्ध शुरू होता था। सैनिक समूहों में इकट्ठे होते थे। प्रथम पंक्ति में तलवार एवं ढाल लेकर सैनिक धीरे-धीरे सरकते थे। उनके पीछे धनुष-बाण धारण किए हुए सैनिक शत्रु के पैर जख्मी करने की कोशिश करते थे। उनके पीछे नुकीले शस्त्र एवं लौह-चक्र तथा लकड़ी के मोटे टुकड़े फेंकनेवाले सैनिक रहते थे।
तीव्र गति से फेंके जानेवाले इन शस्त्रों से शत्रु की हड्डियाँ ही टूट जाती थीं। सबसे पीछे भाले और जाँबिया लेकर सैनिक तैयार रहते थे।
युद्ध खुले मैदान में हुआ करते। सभी लड़नेवाले झुककर धीरे-धीरे चलते। दोनों पक्ष शाम को रणभेरी की आवाज के साथ युद्ध रोक देते। दोनों पक्ष स्थिर खड़े हो जाते। फिर वाद्य बजाए जाने के बाद युद्ध पूर्णतः रुक जाता युद्ध का अर्थ इतना ही था कि स्वयं के शिविरों की रक्षा करो और शत्रु के शिविरों को अपने अधिकार में लेते जाओ। युद्ध के क्रिया-कलापों को लिखनेवाले लेखक भी साथ में होते। जब भी सैनिकों की पंक्तियाँ तितर-बितर होतीं, भारी संख्या में सैनिक मारे जाते। शाम को सभी शत्रु-भाव को भूल जाते। युद्ध में कौन मारा गया, कौन बच गया, इसकी चिंता कोई न करता।
यदि युद्ध किसी कारण से रोकना हो, तो उस पक्ष का सेनापति सबके सामने आकर अपना खंजर जमीन में गाड़ देता और उसके साथ ढाल व तलवार भी रख देता। यह देखकर दूसरे पक्ष का सेनापति भी यही करता और युद्ध रुक जाता युद्ध करने का यह तरीका ‘धर्म-युद्ध' था। काश्तायेंद नामक पुर्तगीज इतिहासकार ने सन् 1528 से 1538 तक, यानी दस वर्ष भारत में रहकर, अनुभव लेकर, उपरोक्त विवरण लिखा है।
[इसलाम]
सन् 630 में अरब में इसलामी सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ। इन इसलामी सैनिकों ने यूरोप की ओर नजर उठाई और स्पेन तक के देश तबाह कर डाले। इसलामी सैनिक सिर्फ एक मकसद से लड़ते थे कि जो भी इसलाम का अनुयायी न हो, उसे जिंदा मत छोड़ो।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार गिब्बन ने रोमन साम्राज्य का इतिहास जिस विश्वविख्यात ग्रंथ में लिखा है, वह विचार करने योग्य है। उमर खलीफा के समय में उसके एक सरदार अमरू ने एलेक्जांड्रिया से युद्ध करके उसे हरा दिया। एलेक्जांड्रिया के विशाल ग्रंथालय को लेकर जब पूछताछ की गई, तो अरबी वंश के उमर खलीफा ने जो उत्तर दिया, वह सरासर धार्मिक उन्माद से भरा हुआ था।
उमर खलीफा ने कहा कि अगर ग्रीक धर्म ग्रंथों में भी वही ज्ञान है, जो कुरान में है, तो एक ही ज्ञान की अनेक पुस्तकें क्यों रखी जाएँ। क्यों न ऐसी पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाए, अगर यहाँ ऐसे ग्रंथ हैं, जो कुरान के विरोध में हैं, तो उन्हें भी नष्ट कर दिया जाए, क्योंकि खुदा यही चाहता है।
सरदार ने इस आज्ञा का पालन कर उन तमाम ग्रंथों का उपयोग एलेक्जांड्रिया शहर के चार हजार स्नानगृहों में जलाऊ वस्तु के रूप में किया। आधे वर्ष तक वे ग्रंथ जलाने के लिए उपयोग में लाए गए इतना बड़ा वह ग्रंथालय था।
सर मूर के लिखे हुए मोहम्मद पैगंबर के चरित्र एवं पामर के किए हुए कुरान के अनुवाद को देखने के बाद इसी विध्वंसकारी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। इसलाम को न माननेवाला 'काफिर' है, जो इज्जत के लायक नहीं है। उसके अधिकार का क्षेत्र अपवित्र
है। ऐसे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लेना हमारा कर्तव्य है। काफिर की औरतों, बच्चों, धन-संपत्ति आदि हर चीज पर हमारा कब्जा होना चाहिए। संपूर्ण संसार को इसलाममय कर देना हमारा कर्तव्य है।
प्रारंभ में इसलाम ने शांति का मार्ग अपनाया, किंतु बुरे अनुभवों के कारण उसने तलवार के बल पर स्वयं को फैलाना शुरू कर दिया। निस्संदेह ऐसी नीति की अपनी मर्यादाएँ थीं, किंतु इसलाम के अनुयायियों ने कुरान के धार्मिक आदेशों को खुदा के हुक्म की तरह मानकर विध्वंसक वृत्ति को अपना लिया।
(( किसी भी धर्मग्रंथ का कुछ भाग कालसापेक्ष और कुछ भाग कालनिरपेक्ष अथवा शाश्वत स्वरूप का होता है। कालसापेक्ष भाग कालांतर में स्वाभाविक रूप से कालबाह्य हो जाता है। इसी कारण समय बदलने के साथ-साथ उसे त्याज्य समझना आवश्यक हो जाता है। कुरान की ओर भी इसी दृष्टि से देखना होगा।
हजरत मुहम्मद के आरंभ के उपदेश सच्चे अर्थ में एक पैगंबर के उपदेश थे इसलिए उनको शाश्वत मानने में कोई आपत्ति नहीं है। परंतु आगे चलकर तत्कालीन परिस्थिति में आत्मसंरक्षणार्थ और उसके भी आगे के काल में धर्मप्रचारार्थ हजरत मुहम्मद को तलवार उठानी पड़ी। उस काल में उन्होंने अपने अनुयायियों को जो आदेश दिये वे पैगंबर के रूप में नहीं थे, अपितु उनके विजयेच्छु नेता के रूप में थे। वे आदेश कालसापेक्ष और उस काल की विशेष परिस्थिति में आचरणीय रहे होंगे। परिस्थिति बदल जाने के साथ वे आदेश त्याज्य माने जाने चाहिए थे। परंतु वैसा हुआ नहीं। अपनी आसुरी महत्वाकांक्षा और जुल्मी क्रूरता को ढंकने के लिए आगे के काल में इस्लाम के अनुयायियों ने कुरान के आदेशों का अपनी सुविधानुसार अर्थ निकाला, ऐसा प्रतीत होता है।
इस्लाम का स्वरूप अब आक्रामक, विध्वंसक और सर्वभक्षक हो गया। हजरत मुहम्मद के उपदेशों का उदात्तिकरण के स्थान पर विकृतिकरण होने लगा। इसी कारण आज इस्लाम और हजरत मुहम्मद अभ्यासकों के लिए आलोचना के विषय बन गये। सन वुईल्यम मूर का The sword of Mahomad and Koran are the most stubborn enemies of the civilization. यह निष्कर्ष अथवा स्टॉबर्ट के Whatever may be the political conjunctions put forward as necessary to justify a crescentade or holy war for the faith, it cannot be denied that the normal condition of Islam is one of the missionary aggression by the sword. ये उद्गार इस्लाम को कालांतर में प्राप्त हुए स्वरूप के आधार पर ही निकाले गये हैं। ))
पैगंबर के बाद इसलाम का नेतृत्व खलीफा के पास चला गया। खलीफा सर्वेसर्वा हो गया। उसके अधिकार और कर्तव्य कितने उग्र व एकांगी थे। स्वयं देखें—
★.. कुरान का समर्थन करना और पूरे संसार में इसलाम का परचम लहराना।
★.. कुरान को मानने से इनकार करनेवाले अन्य धर्म के अनुयायियों को नष्ट करना और उनके धार्मिक स्थानों पर कब्जा कर लेना।
★.. सभी इसलामी देशों को सुरक्षित करना। कानून, फौज, खजाना, इनाम-इकराम और सजा के अलावा हर सियासती हक पर काबू कर लेना, ताकि तमाम इसलामी देशों की हुकूमत पर खलीफा ही काबिज हो जाए।
★.. इसलाम के विरोधियों के खिलाफ जिहाद (धर्मयुद्ध) का ऐलान करना, उन पर जजिया कर लगाना, उनकी जमीनों पर कब्जा करना, उन्हें गुलाम बनाना, उन्हें कत्ल करना, उनकी दौलत लूटना इत्यादि।
इन सबको मद्देनजर रखते हुए कोई भी समझ सकता है कि खलीफा के अधिकारों एवं नियंत्रण की व्यापकता क्या थी। मुसलमानों की संपूर्ण नीतिमत्ता ही विध्वंसक थी। शत्रु पर दया दिखाना या उससे नम्रता का व्यवहार करना वे पाप समझते थे। विश्वासघात, क्रूरता, संहार यही थी उनकी नीति । वीरों का वध करना, निरपराधों को गुलाम बनाना, स्त्रियों को भ्रष्ट करना, दूसरों के प्रार्थना स्थलों को ध्वस्त करना, मूर्तियाँ तोड़ना, मंदिरों के पत्थरों को मसजिद की सीढ़ियों में लगाना यह सब उनके लिए खेल के समान था।
ये सारी बातें हिंदुओं ने कभी अनुभव नहीं की थीं। शत्रु की स्त्रियों को हिंदू स्त्रियों जैसा ही सम्मान देना भारत की युद्ध नीति का एक हिस्सा था। भारतीय युद्ध नीति का अपना एक शास्त्र था। अन्य राष्ट्रों में युद्ध छिड़ जाने पर शत्रु की भूमि को तहस-नहस करने का प्रयत्न होता ही है, किंतु मेगस्थनीज ने भारत के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि भारत में ऐसा नहीं होता। शत्रु की भूमि को भी भारतवासी उसी तरह पवित्र समझते हैं, जिस तरह स्वयं अपनी मातृभूमि को।
भारत की प्राचीन युद्ध नीति मानवीय मूल्यों पर आधारित थी। आठवीं शताब्दी में, सन् 711 में हिंदुओं पर जब इसलामी आक्रमण हुआ, तब हिंदुओं के लिए वह संकट ऐसा था, जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इसलाम की रीति-नीति से अपरिचित हिंदुओं को जो सांस्कृतिक एवं सामरिक आघात पहुँचा, वह इतना गहरा था कि जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। उन दिनों वालिद नाम का खलीफा इसलाम पर नियंत्रण कर रहा था। उसके आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के देवल बंदरगाह पर आक्रमण किया। बंदरगाह पर एक बड़ा मंदिर था, जिस पर ऊँचा झंडा लहराता था । हिंदुओं को विश्वास था कि मंदिर की मूर्ति एवं ध्वज की शक्ति से यवन अपने आप पराजित हो जाएँगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ। मुहम्मद बिन कासिम ने मंदिर की मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और सभी हिंदुओं का पुजारियों समेत वध कर दिया। हिंदुओं ने दया की भीख माँगी तो मुहम्मद बिन कासिम ने उत्तर दिया “मुझे सिर्फ कत्ल करने का हुक्म है, न कि किसी को जिंदा रखने का हुक्म!”
सन् 1001 में मुहम्मद गजनी ने भारत पर आक्रमण किया। पहले आक्रमण में ही उसे इतनी संपत्ति मिली कि उसने लालच में आकर बारंबार आक्रमण किए। उन आक्रमणों के दौरान उसने जो निर्दयता और क्रोध दिखाया, उसके बारे में अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ लिखता है कि उसके रक्तपिपासु आक्रमणों का परिपूर्ण वर्णन करना एक कभी खत्म न होने वाला बेकार का कार्य होगा। उसने अनेक मंदिर तोड़-फोड़ डाले। मूर्ति पूजा का पाप धोने से अल्लाह की रहमत होगी, इस खयाल से उसने अनेक मशहूर मंदिरों को नष्ट किया। नगरकोट के मंदिर में उसे अगणित हीरे-माणिक प्राप्त हुए। सोमनाथ का मंदिर बार-बार लूटते वक्त उसने 50 हजार लोगों का कत्ल किया।
आक्रमण के इस राक्षसी स्वरूप से हिंदू सर्वथा अपरिचित थे। इसीलिए उनकी सत्ता नष्ट हुई। वे अपनी सरलता के कारण पराजित हुए। शौर्य में वे किसी से कम नहीं थे, किंतु पशु-वृत्ति के राक्षसी स्वरूप में कम थे। सन् 1193 में मुहम्मद गोरी ने दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान का वध किया, जिससे भारत में मुसलिम सत्ता स्थापित हुई। इसके पहले भी 1191 में मुहम्मद गोरी ने भारत आक्रमण किया था, जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने उसे हरा दिया था। उसने जब माफी माँगी, तब पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया था। मुहम्मद गोरी के मन में छिपी राक्षसी वृत्ति को पृथ्वीराज चौहान पहचान नहीं पाए थे। वास्तव में मुहम्मद बिन कासिम, मुहम्मद गजनी और मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के बाद हिंदू राजाओं को उनकी विध्वंसक और बेरहम मनोवृत्ति को पहचान लेना चाहिए था। न पहचानने की वजह से ही पृथ्वीराज ने गोरी को जीवन दान दिया और उसका नतीजा उनको भुगतना पड़ा। सच तो यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर औरंगजेब तक जिसने भी दिल्ली की गद्दी पर कब्जा किया, उसका इतिहास क्रूरता, संहार एवं विध्वंसक प्रवृत्तियों से भरा हुआ था।
इसलाम के अलावा अन्य सभी संस्कृतियों को नष्ट करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था। सज्जन-से-सज्जन इसलाम के स्वामी भी क्रूरकर्मी ही साबित हुए।
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1290 से 1316 तक के अपने शासन में हिंदुओं के साथ अत्यंत अपमानजनक बरताव किया। एक बार उसने काजी से पूछा कि हिंदुओं के साथ कैसी सख्ती बरतनी चाहिए। मुधीसुद्दीन नामक काजी ने बताया कि कुरान के मुताबिक उन पर जजिया कर लगाना चाहिए और हिंदुओं को भी चाहिए कि वे अत्यंत नम्रता के साथ इस कर को अदा करते रहें। सोना-चाँदी माँगा जाए, तो यह भी दे देना हिंदुओं के लिए बंधनकारी है। इसलाम का हुक्म है कि हिंदुओं पर जजिया कर लगाया जाए और उन्हें मजबूर करना पड़े, तो भी ऐसा करके जजिया वसूल किया जाए। हिंदुओं पर अत्याचार किए जाएँ, उन्हें कत्ल किया जाए और उन्हें इसलाम कबूल कर लेने पर मजबूर किया जाए। हिंदू या तो इसलाम कबूल करें या फिर मौत कबूल करें।
अलाउद्दीन खिलजी के शासन में हिंदुओं पर और भी कई तरह के बंधन लगाए गए थे। घोड़े का उपयोग न करना, शस्त्र का उपयोग न करना, अच्छे वस्त्र न पहनना, जमीन की आधी उपज का धन सरकार को दे देना; यह तो जैसे रोजमर्रा की बात थी। हिंदुओं की गाय-भैंसों पर भी कर वसूला जाता था। हिंदू अमलदारों की पत्नियों के लिए लाजिमी था कि वे मुसलमानों के यहाँ नौकरी करें और उन्हें झुककर सलाम करें इत्यादि ।
रॉबर्ट सिवेल ने अपने ग्रंथ 'अ फॉरगॉटन एंपायर' में उपरोक्त अत्याचारों का वर्णन इसी प्रकार किया है।
जैसा कि उल्लेख मिलता है; सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार अपने रिश्तेदारों और उनकी बेगमों के सामने एक कैदी को बुलाया। पहले तो कैदी को भद्दी गालियाँ दी गईं, फिर उस पर थूका गया। कैदी के जिस्म से उसकी त्वचा जीते जी
छीलकर उतारी गई। उस त्वचा को चावल के साथ पकाकर कैदी की पत्नी और उसके बच्चे के सामने परोसा गया। बाकी बचा हुआ पका चावल हाथी को खिलाया गया। हाथी ने वह नहीं खाया। त्वचा में भूसा भरकर शहर में घुमाया जाए, ऐसा हुक्म दिया गया।
मुसलिम शासन काल में विद्या संपन्न ब्राह्मण भी कितने विवश होकर जीते थे, इसका विवरण इस प्रकार है—
परब्रह्म से सगुण अवतार तक सभी का उपनिषद् साहित्य उपलब्ध है, किंतु अल्लाह, जो कि विजेताओं का देव है, उसका उपनिषद् साहित्य क्यों उपलब्ध नहीं है? यह सवाल उठा, तो निर्णय लिया गया कि श्रेष्ठ भारतीय पंडित मिलकर अल्लोपनिषद् की रचना करें। राज्याश्रय के बिना संस्कृत भाषा का सौंदर्य नहीं खिलेगा, इस भावना से सुलतान की प्रसन्नता के लिए, उर्दू क्रियापदों की रचना की जाने लगी : त्वत्कीर्तिर्वरयरसीदजलधिम्"
अपने हिंदू राजा का आश्रय छोड़कर देववाणी संस्कृत के पंडित यवन बादशाह के आश्रय में गौरव एवं धन्यता प्राप्त करने लगे। 'रसगंगाधर' जैसे गहन ग्रंथ एवं 'गंगालहरी', 'लक्ष्मीलहरी' जैसे मधुर एवं प्रसन्नतादायक काव्यों के सर्जक पंडित जगन्नाथ कभी बादशाह शाहजहाँ के शासन काल में (सन् 1628 से 1658) उसके दरबार में रह चुके थे। जयपुर के महाराजा ने पंडित जगन्नाथ को अपनी राजसभा का भूषण बनने के लिए आमंत्रित किया, तो उन्होंने उत्तर दिया–
दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा मनोरथा न् पुरयितुं समर्थः।
अन्यैः नृपालैः परिदीयमान शाकाय वा स्याल्लवणाय वास्यात॥
अर्थात— मेरा मनोरथ पूर्ण करने का सामर्थ्य केवल दिल्लीश्वर अथवा जगदीश्वर में है। शेष सब तो मात्र मेरी आजीविका ही चला सकते हैं।
यवनों (मुसलिमों) के आक्रमण सफल क्यों होते रहे, इसके तीन कारण हैं—
1. हिंदुओं को अपने मुसलिम दुश्मनों की फितरत का सही अंदाजा न लग पाना। 'हम भी क्या मुसलिमों जैसे बर्बर हो जाएँ? फिर उनमें और हम में फर्क क्या रहेगा?' ऐसी प्रवृत्ति से न छूट पाना।
2. भारत के हर प्रदेश में मुसलिमों ने हिंदुओं का सामूहिक धर्मांतरण करवाया और हिंदुओं की यह कमजोरी रही है कि बलपूर्वक दूसरे धर्म में ले जाए गए अपने बांधवों को वापस हिंदू धर्म में ले आने की कोई कोशिश वे नहीं करते। जिन्हें बलपूर्वक मुसलिम बना लिया गया, वे सदा के लिए हिंदू समाज से बहिष्कृत हो गए।
3. हिंदू माँओं, बेटियों, बहनों और बहुओं को जब बलपूर्वक मुसलिम जनानखानों में ले जाकर भ्रष्ट किया गया, तब उन्हें वापस हिंदू धर्म में लाने और आश्रय देने की बजाय उन्हीं अत्याचारों को दैनंदिन सहने के लिए वहीं पड़े रहने देने की भूल हिंदुओं ने की।
इसलामी आक्रमणकारियों की सत्ता मजबूत होती गई, इसके बुनियादी कारण यही थे। हिंदू शूरता में किसी से कम नहीं थे, परंतु अपनी इसी वृत्ति के कारण वे अलौकिक साहस का परिचय नहीं दे सके।
इसलामी आक्रमणों का अहम मकसद समूची दुनिया को इसलाममय कर देना ही था। बेहद बेरहमी के साथ काफिरों के सिर पर तलवार रखकर इसलाम कबूल करवाया जाता था। अगर किसी ने इनकार किया, तो उसके मुँह में जबरदस्ती गोमांस डालना, सुन्नत करना व अन्य अत्याचार करके हिंदुओं को मुसलिम बनाया गया। हिंदू धर्म में वापस आने के इच्छुक लोगों को हिंदू मठाधीशों ने कभी प्रोत्साहित नहीं किया; बल्कि उनकी वापसी का रास्ता ही बंद कर दिया। वे कभी हिंदू धर्म में वापस नहीं आ सकते, यह सोचकर उन्होंने भी इसलाम में ही बने रहने का फैसला कर लिया। इससे भी आगे उन्होंने जिस क्रूरता के साथ हिंदुओं से बदले लिये, उसकी भयंकरता तो स्वयं मुसलिमों से भी बढ़-चढ़कर थी। यह देखकर मुसलमानों ने धर्म प्रचार के साथ-साथ अपने राज्य को भी बड़ी तीव्रता से बढ़ाना शुरू कर दिया। इसी कारण हिंदू तलवार पराक्रमी होते हुए भी पराजित हुई। मुहम्मद बिन कासिम ने इसलाम धर्म स्वीकार कर चुके हिंदुओं की सहायता से सिंध प्रदेश पर आक्रमण किया। मुहम्मद गजनी ने पंजाब में बलपूर्वक धर्मांतर करवाया, जिसका लाभ उसे हर आक्रमण के दौरान हुआ। इसलाम धर्म में सम्मान मिलने के कारण धर्मांतरित हिंदुओं ने स्वधर्म में जाने की इच्छा ही त्याग दी और स्वयं हिंदुओं के विध्वंस का कार्य अत्यंत उत्साह से शुरू कर दिया।
उड़ीसा के एक ब्राह्मण को जबरन इसलाम में लाया गया था। यह ब्राह्मण 'काला पहाड़' के नाम से मशहूर था। उसने वापस हिंदू धर्म में जाने के अनेक प्रयत्न किए, किंतु सफल न हो सका। चिढ़कर उसने हिंदुओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उसने मंदिरों और मनुष्यों का इतना विध्वंस किया कि 'काला पहाड़' एक डरावना शब्द बन गया।
अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर दरअसल एक हिंदू था, जो क्रमश: अलाउद्दीन का दाहिना हाथ बन गया। दक्षिण में वह हिंदुओं के लिए साक्षात् काल सिद्ध हुआ। यवनों ने जब देवगिरि पर आक्रमण किए, तब दूसरे आक्रमण का नेतृत्व स्वयं अलाउद्दीन की आज्ञा से मलिक काफूर ने सँभाला। रामदेवराव यादव को उसी ने बंदी बनाकर दिल्ली भेजा था।
मूल रूप से हिंदू होने के बावजूद मुजफ्फर शाह ने अहमदाबाद में इसलामी सत्ता की नींव डाली। सोमनाथ का विध्वंस भी उसी ने किया। ऐसे तो अनेक हिंदू थे, जिन्हें जबरन मुसलिम धर्म में लाया गया, जिन्होंने मुसलिमों को सत्ता स्थापित करने में सहायता की। जैसे निजामशाही का संस्थापक तिमाप्पा बहिरद वास्तव में ब्राह्मण ही था। बंगाल के जितमल्ला ने तो स्वेच्छा से हिंदुत्व छोड़कर इसलाम कबूल किया था। इन हिंदुओं ने स्वधर्म में वापसी के द्वार बंद देखकर और इसलाम में सम्मान के साथ धन की भी प्राप्ति होने के कारण इसलाम में ही बने रहना उचित समझा।
स्त्रियों के संबंध में मुसलिमों की धारणाएँ अत्यंत घृणास्पद थीं। उन धारणाओं के पीछे कामुकता की भावना तो थी ही, स्त्रियों को आबादी बढ़ाने के साधन के रूप में देखना और उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझना, यह सब भी था। चार बीवियाँ रखने
की इजाजत तो उन्हें उन्हीं के धर्म ने दे रखी थी, ऊपर से वे काफिर स्त्रियों को भी रखैलें बनाकर रख लिया करते। स्त्री की सहमति के बिना उसका उपभोग करने की इजाजत इसलाम में नहीं दी गई है, किंतु फिर भी दयालु अल्लाह उन्हें माफ कर देगा, ऐसा आश्वासन उन्हें उनके मार्गदर्शकों ने दे रखा था।
मुसलिम सत्ताधीशों ने अत्यंत तेजस्वी, विदुषी, प्रभावशाली हिंदू स्त्रियों को भी केवल भोग-विलास की दासी बनाकर रखा। ये वे स्त्रियाँ थीं, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया था, किंतु फिर भी वे नरक जैसी यातना भोगने के लिए मजबूर थीं। उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया था। हिंदुओं ने उन निरपराध माताओं, बहनों, बहू-बेटियों को छुड़ाने का कोई प्रयत्न ही नहीं किया।
सर जदुनाथ सरकार ने औरंगजेब पर लिखे अपने मशहूर ग्रंथ में इस प्रकार उल्लेख किया है— “जो लड़ाई में मारा गया, वह भाग्यवान था। जो स्त्रियाँ जीवित रहीं, वे दुर्भाग्यशाली थीं। वे सामान्य स्त्रियाँ न होकर राजघरानों की स्त्रियाँ थीं। वे माँएँ थीं, बहनें थीं, बेटियाँ थीं। उन्हें जनानखाने में कैद रखकर उनके साथ वासना तृप्ति की जाती थी। गृहिणी होने का गौरव, माँ होने का आनंद उनके भाग्य में नहीं था।”
रायबहादुर गो. स. सरदेसाई ने संक्षेप में हिंदुओं की दुरवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है—
“उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी। जो धैर्यवान व पराक्रमी थे, वे युद्ध करके मृत्यु का आलिंगन कर लेते थे। स्त्रियाँ भी मृत्यु का वरण करने के लिए समूह बनाकर अग्नि-स्नान करती थीं। विशाल चिता की धधकती लपटों में महल की ऊँचाइयों से कूद-कूदकर राजघरानों की स्त्रियों के समूह जिंदा जल जाते। बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा दिया जाता। सोना-चाँदी आदि जो भी संपत्ति होती, उसे छिपा दिया जाता। दैनिक उपयोग की सामग्री, बरतन आदि कुओं में डाल दिए जाते । स्वयं को असहाय दिखाना हिंदुओं की मजबूरी थी। विलास, आनंद या आराम की वस्तुओं का उपभोग वे नहीं कर सकते थे, ताकि यवनों की नजर न पड़े। ऐसी दुश्चिंता में डूबे वे लोग हमेशा बीमार, कमजोर, अस्थिर ही दिखाई देते। खेत में अच्छी फसल हुई हो, तो उसे भी छिपाना पड़ता। आने-जाने के रास्ते उनके लिए बंद हुआ करते। कहीं-कहीं जहाँ सुरक्षा नजर आती, वहाँ भी व्यापारियों को अनाप-शनाप कर और जकात आदि अदा करने पड़ते। उनकी जिंदगी, उनकी इज्जत हर पल दाँव पर लगी होती । स्त्रियाँ और बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं हमेशा इसी की चिंता उन्हें लगी रहती। हिंदुओं की हालत बद से बदतर होती जा रही थी —('मराठा रियासत' : भाग 1/पृष्ठ 369 )
भारत के मध्य युग में हिंदुओं में एकता की कमी थी । व्यक्तिवाद व फूट की भावना चारों ओर व्याप्त थी। छोटी-छोटी बातों को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का साधन बना दिया जाता। मानसिंह को क्रोध इसलिए आया कि महाराणा प्रताप सिंह ने उनके साथ भोजन नहीं किया। अपने शत्रुओं को हिंदू राजा कभी नहीं पहचान पाए। राजा जयचंद ने राजसूय यज्ञ में पृथ्वीराज चौहान के न आने के कारण उनका मानभंग करने के लिए शहाबुद्दीन गोरी (घोरी) को निमंत्रण दिया। सन् 1310 में दक्षिण के पांडेय प्रदेश के राजा मारवर्मन कुलशेखर की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों में संघर्ष शुरू हुआ। मारवर्मन के दोनों पुत्रों को एकता के महत्त्व की समझ नहीं थी। अपने ही भाई को हराने के लिए जटावर्मन सुंदर ने शत्रु अलाउद्दीन खिलजी की सहायता माँगी। भाई वीरवर्मन सुंदर को यदि कुछ अधिक मिल गया, तो क्या हुआ। है तो परिवार का परिवार में ही; ऐसी उदारता के साथ उसने विचार नहीं किया। विख्यात इतिहासकार स्व. दत्तोपंत आप्टे ने राजपूतों के अपयश की जो मीमांसा की है, वह अत्यंत उद्वेगजनक है।
स्व. आप्टे के शब्दों में “राजपूत योद्धा शौर्य व शुद्ध नीति को महत्त्व देते थे, किंतु मुसलिम क्रूरता का प्रतिकार कैसे करें, यह बात उनकी समझ में कभी नहीं आई। आपस की लड़ाई में
अपनों के विरुद्ध दूसरों से सहायता लेना कितना संकट में डालने वाला है, यह राजपूत कभी समझ ही नहीं पाए। इसके दुष्परिणाम उन्हें भुगतने पड़े। इसके विपरीत मुसलिम दीन-दुनिया की जानकारियाँ रखने वाले, अपने स्वार्थ को महत्त्व देनेवाले, बिरादरी की एकता को हर सूरत में बरकरार रखने वाले, साहसी और लोभी थे। वे धर्मांध थे और न्याय-अन्याय की परवाह नहीं करते थे। उन्होंने हिंदू राजाओं का पराभव कर अपनी सत्ता स्थापित कर दी। हिंदुओं के राज्य-पर-राज्य उन्होंने छीन लिये। हिंदुओं का औसत समाज राजनीति में दिलचस्पी नहीं लेता था। व्यापक दुरवस्था का परिणाम यह हुआ कि हिंदू भाग्यवादी बन गए।
आपसी द्वेष और फूट हिंदुओं के विध्वंस का मूल कारण साबित हुए। हिंदुओं में सद्गुण भरपूर थे, किंतु उपरोक्त एक कारण से सभी सद्गुण व्यर्थ हो गए। भारतीय राजा छोटी-छोटी बातों को तूल देकर अपने साथी राजाओं के पतन का कारण बनते रहे और स्वयं भी उन साथी राजाओं में मौजूद इसी अभिशाप के मारे पतन के गर्त में गिरते रहे।
राष्ट्रीय अस्मिता की परिकल्पना जब विकसित ही नहीं हुई थी, तब भारत एवं भारतीयों का वही हश्र हुआ, जो कि हो सकता था।
अंतत: जब राष्ट्रीय अस्मिता की भावना जन-साधारण में प्रस्फुटित हुई, तब हिंदुत्व का एवं हिंदू राष्ट्रीयता का उत्थान तो हुआ, किंतु फिर भी मुसलिम आक्रमणों के दौरान समूह-भावना, राष्ट्र-भावना, समाज-भावना आदि उदात्त भावनाएँ दब जाती। इसके विपरीत मुसलिम आक्रमणकर्ताओं में अनेक दुर्गुण होने के बावजूद उनकी तेज-तर्रार समूह-भावना ने उन दुर्गुणों को ढँक दिया। मुसलिम शासक, यहाँ तक कि अपने सगे भाइयों के साथ भी दुर्व्यवहार करने से बाज नहीं आते थे। अपने ही पिता को कैद में डालना, भाइयों की आँखें निकलवा लेना, रिश्तेदारों को फँसाकर कैद कर लेना, कत्ल करवा देना आदि अनेक अत्याचार वे किया करते। इसके बावजूद दूसरों से लड़ते समय वे हमेशा एक हो जाया करते। कोई मुसलिम सरदार हिंदुओं की तरफ से लड़ाई में शामिल हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता।
बहमनी राज्य समाप्त होने के बाद उसके स्थान पर जिन पाँच शाहियों का जन्म हुआ, वे इस प्रकार हैं—
1. विदर्भ की इमादशाही (1484-1574 )।
संस्थापक : फतेउल्ला इमादशा। यह मूल रूप से ब्राह्मण था।
2. बीजापुर की आदिलशाही (1489-1686 )।
संस्थापक : यूसुफ आदिलशा। यह मूल रूप से जॉर्जियन गुलाम था।
3. गोलकुंडा की कुतुबशाही (1512-1687 )।
संस्थापक : कुली कुतुबशा। यह मूल रूप से ईरानी था।
4. बीदर की बरीदशाही (1527-1619 )।
संस्थापक : अमीर अली बरीद। यह मूल रूप से जॉर्जियन था।
5. अहमदनगर की निजामशाही (1490-1636 )।
संस्थापक : मलिक अहमद। यह मूल रूप से हिंदू था।
बाबाजी भोसले ने निजामशाही में नौकरी की थी। उनके दो पुत्र थे। मालोजी एवं विठोजी। मालोजी के पुत्र शहाजी एवं शहाजी के पुत्र शिवा यानी शिवाजी महाराज, जिनका जीवन यहाँ हम संसार की दूरबीन से देखेंगे।
तत्कालीन मराठों की मानसिकता 'खंडागले हाथी प्रकरण' से समझ में आती है, जो एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसमें साफ झलकता है कि मराठा सरदार किस प्रकार छोटी-छोटी बातों में एक-दूसरे से लड़ने पर उतारू हो जाते थे । वह घटना इस प्रकार है—
मालोजी की मृत्यु के बाद सारी जागीर एवं सेना का स्वामित्व शहाजी राजा की तरफ आया। खंडागले हाथी प्रकरण के कारण लखुजी जाधवराव एवं भोसले घराने में अनबन हो गई। निजामशाही का दरबार लगा हुआ था । जाधव दरबार में एकत्रित थे। उनके साथ खंडागले नाम का सरदार भी था। दरबार समाप्त करके सभी सभासद अपने-अपने घर जाने के लिए निकल रहे थे। इतने में खबर फैली कि खंडागले का हाथी बेकाबू हो गया है एवं उसने जाधवों के कुछ लोगों को घायल किया है। इतना सुनकर लखुजी का लड़का दत्ताजी उस हाथी के स्वामी खंडागले को सजा देने के लिए जाने लगा। दत्ताजी के आने की खबर सुनकर शहाजी व उनके चचेरे भाई खेलोजी, संभाजी इत्यादि खंडागले की सहायता करने दौड़ पड़े। दोनों तरफ से लड़ाई शुरू हो गई। उसमें दत्ताजी की मृत्यु संभाजी के हाथों हुई। यह बात जब लखुजी जाधव को पता चली तो उसने संभाजी भोसले को मार डाला। पुत्र की मृत्यु से व्याकुल होकर उसने अपने जामाता की भुजा पर वार किया। वह बेहोश हो गया। निजामशाह को यह खबर मिलते ही उसने बीच-बचाव
किया और लड़ाई समाप्त करवाई।
मराठा सरदार आपसी दुश्मनी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलाने में स्वयं को धन्य समझते थे। क्षुद्र घटनाओं को भी वे आपसी मनमुटाव का सबब बना लेते थे।
संदर्भ–
1. पुण्यश्लोक छत्रपति शिवाजी / बालशास्त्री हरदास
2. शककर्ते शिवराय/ विजयराव देशमुख
3. Shivaji the great Maratha/H.S. Sardesai
4. Shivaji: His Life and Times/G.B. Mehendale