शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 8 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 8

[ शिवाजी महाराज और ट्रॉय ]

ग्रीस और ट्रॉय के बीच ईसा पूर्व सन् 1193 से 1184 के बीच लगातार 9 वर्ष तक युद्ध हुआ था। इस युद्ध ने दोनों देशों की संस्कृति, संस्कार और साहित्य के अलावा विभिन्न कलाओं को भी अत्यंत गहराई से प्रभावित किया। यह प्रभाव आज तक चला आ रहा है। इस युद्ध को 'ट्रोजन वार' के नाम से जाना जाता है। अमर कवि होमर ने जो अप्रतिम महाकाव्य 'इलियाड' लिखा है, वह इसी संघर्ष को बयान करता है। भारत में 'महाभारत' की जो स्थिति है, वही स्थिति ग्रीस और ट्रॉय में 'इलियाड' की है। ये दोनों देश दक्षिण-पूर्व यूरोप में हैं।
ट्रॉय एक सुविकसित शहर था। उसके अवशेष आज भी विश्व धरोहर के रूप में सँजोकर रखे गए हैं। ट्रॉय शहर को लोगों ने कई नाम दे रखे थे। उनमें से एक नाम था ट्रोजा। ट्रोजा से बना ट्रोजन और ट्रोजन से बना ट्रोजन-वार। वह घमासान युद्ध 9 वर्ष तक इसी ट्रॉय शहर में लड़ा गया।

इस युद्ध के पीछे, हेलेन नामक एक रानी थी, हेलेन की शादी हुई थी मेनेलॉस के साथ। मेनेलॉस था ग्रीस का राजा, यानी हेलेन ग्रीस की रानी थी। दुनिया की सबसे सुंदर युवती उसी को माना जाता था।
पौराणिक कथा के अनुसार हेलेन को पैरिस नामक एक नौजवान से प्यार हो गया। हेलेन और पैरिस राजमहल से निकलकर भाग गए। पैरिस स्वयं भी एक राजघराने से
था। वह ट्रॉय के राजा प्रायम का बेटा था। पैरिस हेलेन को साथ लिये ट्रॉय आ पहुँचा।
ग्रीस के राजा मेनेलॉस ने ट्रॉय के राजा प्रायम से बार-बार आग्रह किया कि वह उसकी रानी हेलेन को वापस भेज दे, लेकिन प्रायम का बेटा पैरिस इसके लिए तैयार नहीं था। तब मेनेलॉस ने तय किया कि वह प्रायम पर चढ़ाई करेगा और हेलेन को छुड़ाकर ले आएगा।
ग्रीस के 1000 युद्ध-पोतों का बेड़ा इहायइहू समुद्र को पार करता हुआ ट्रॉय आ पहुँचा। ऑलिस बंदरगाह में ग्रीस की जबरदस्त सेना उतर पड़ी और राजधानी ट्रॉय की ओर झपटने लगी। वह राजा प्रायम के किले तक आ पहुँची। किले को चारों तरफ से घेर लिया गया।
प्रायम के सैनिक किले के भीतर से और ऊँची दीवारों पर से वार करते। मेनेलॉस की सेना बढ़-बढ़कर जवाब देती। जल्द ही दिखाई पड़ गया कि किला बेहद मजबूत है। उसका कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है कि जिसे तोपें चलाकर गिराया जा सके। तब राजा मेनेलॉस ने किले के घेरे को और भी मजबूती से कस दिया।
ट्रॉय का किला 9 वर्षों तक तोप के गोलों की मार सहता रहा, मगर उसका कुछ न बिगड़ा। दोनों ही पक्ष सोच में पड़ गए कि यह युद्ध आखिर कब तक चलता रहेगा ? आखिर ग्रीक सेनापति ने संदेश भेजा कि हम युद्ध जारी नहीं रखेंगे। हमने अपनी हार कबूल कर ली है। अब हम आपके दोस्त हैं।
हम अपने देश ग्रीस वापस जा रहे हैं। जाते-जाते आपको हम एक जबरदस्त तोहफा देना चाहते हैं। यह तोहफा आपके साथ हमारी दोस्ती का प्रतीक है। कृपया इसे कबूल कर लें। तोहफा हम किले के सामने ही छोड़कर चले जाएँगे। आप जब चाहें, उसे खींचकर अपने किले में ले जाएँ।
सचमुच ग्रीक सेना ने यही किया। कई मंजिल ऊँचा एक काठ का घोड़ा उन्होंने किले के सामने छोड़ दिया। दूर-दूर तक एक भी ग्रीक सैनिक दिखाई न दिया। वाकई सब चले गए थे। ट्रॉय के राजा प्रायम ने खुश होकर उस तोहफे को कबूल कर लिया ।
काठ के उस जबरदस्त घोड़े को खींचकर किले के अंदर ले जाया गया। फिर सब अपनी जीत का जश्न मनाने में मगन हो गए।
किसी को कल्पना भी नहीं थी कि उस घोड़े के विशाल पेट में ग्रीस के जाँबाज लड़ाकों की एक बेहद मजबूत टोली छिपी हुई थी। आधी रात के बाद, जब राजा प्रायम के सैनिक 9 वर्ष पुराना घेरा उठ जाने की तसल्ली का आनंद लेते मीठी नींद में धुत पड़े हुए थे, तब घोड़े के पेट में बनी एक खिड़की बड़ी खामोशी के साथ खुली। उसमें से एक-एक कर अनेक ग्रीक सैनिक नीचे उतर पड़े।
ये सैनिक सीधे गए किले के दरवाजे की ओर, जो भीतर से बंद था। उन्होंने रखवालों को मार डाला और दरवाजा भीतर से खोल दिया। ग्रीस की सेना, जो लड़ाई के मैदान से हट तो गई थी, लेकिन आस-पास ही छिपी हुई थी, धड़धड़ाकर लौट आई
और किले में दाखिल हो गई। ट्रॉय की सेना नींद से कब उठती और कब सँभलती! वह खिलौनों की तरह कट गई।
यू ट्रोजन की लड़ाई का अंत हुआ। जिस हेलेन के कारण यह लड़ाई हुई थी, उसका क्या हश्र हुआ, इस पर मतभेद है। एक मत के अनुसार ग्रीस का राजा मेनेलॉस अपनी रानी हेलेन को छुड़ाकर वापस ले गया। हेलेन ने अपनी शेष जिंदगी शांति से ससुराल में ही गुजारी।

शिवाजी महाराज ने भी एक लड़ाई ऐसी लड़ी थी, जो ट्रोजन की लड़ाई की याद दिलाती है। महाराज के सैनिकों ने जिस बहादुरी और सूझबूझ का परिचय दिया और कठिनतम परिस्थितियों में भी जीतकर दिखा दिया, इसकी कथा 'ट्रोजन वार' जैसी ही
रोमांचक व प्रेरणादायक है।
मुगलों से किया गया समझौता टूटने के बाद शिवाजी महाराज ने अपना उग्र रूप दिखाया। निकटवर्ती प्रदेशों में उन्होंने मुगलों को तंग करना शुरू किया। वीरता दिखाने का कोई अवसर वे नहीं चूके। सिंहगढ़ एवं पुरंदर के किले शत्रु के अधिकार में थे। महाराज ने पहला निर्णय यही लिया कि इन्हें वापस हासिल कर लिया जाए। ये किले शत्रु के हाथ में होने से महाराज पूना, चाकण आदि स्थानों में बेखटके नहीं जा सकते थे। इन किलों की रक्षा राजपूत करते थे, जिन्हें राजा जयसिंह द्वारा नियुक्त किया गया था। ये राजपूत अत्यंत वीर एवं युद्ध-कला में सिद्धहस्त थे।
महाराज ने सोचा कि पहले सिंहगढ़ पर कब्जा किया जाए। सिंहगढ़ का सरदार उदयभानु बहुत ही शूरवीर एवं बलशाली था। वह मुगलों के प्रति निष्ठावान था, इस कारण उसे सरलता से अपनी ओर मिलाया नहीं जा सकता था। उसके अधीन जो सैनिक थे, वे भी बहुत चुनिंदा राजपूत थे उतनी मजबूती से सुरक्षित गढ़ को हासिल कैसे किया जाए, इस सोच-विचार में शिवाजी महाराज डूब गए।
महाराज के विश्वस्त तानाजी मालुसरे ने सामने आकर कहा, "मैं सिंहगढ़ को जीत सकता हूँ, किंतु मुझे अपना छोटा भाई सूर्याजी साथ में चाहिए। मैं 1000 मावले सैनिक लेकर जाऊँगा और इनका भी चयन मैं ही करूँगा।"
महाराज ने तानाजी की यह बात स्वीकार कर ली।
सिंहगढ़ किला सह्याद्रि पर्वत के पूर्व में स्थित है। पुरंदर किले का विस्तार सिंहगढ़ के नजदीक तक है। दोनों के बीच आने-जाने के लिए एक ऊँचा, सँकरा रास्ता है। टेकरी जैसा यह रास्ता पूर्व-पश्चिम दिशा में है। उत्तर से दक्षिण की ओर देखने पर सिंहगढ़ का किला पत्थरों से निर्मित किसी विशाल पर्वत जैसा लगता है। इसकी चढ़ाई आधा मील है। कई जगह यह ऊँची नुकीली सलाख के समान है। इतना ऊँचा चढ़ने पर एक पथरीली, नुकीली चोटी आती है, जो चालीस फीट ऊँची है। इस भव्य चोटी पर जो दीवार चुनी गई है, उस पर बड़े-बड़े बुर्ज बने हुए हैं। किले का आकार त्रिकोण है। अंदर का घेरा करीब दो मील का है। खूबी यह है कि किले में दरवाजे के अलावा कहीं से भी प्रवेश नहीं किया जा सकता। बाहर से देखने पर ऐसा ही लगता है। किले की ऊँचाइयों से नजर डालें, तो नीरा नदी की शांत जलधारा दिखाई देती है। पहाड़ों के बीच से गुजरती होने के बावजूद नीरा नदी, जो ज्यादा चौड़ी नहीं है, सुंदर-समतल भूमि पर से बहती नजर आती है। उत्तर में दूर-दिगंत तक फैला मैदान एवं पूना शहर दिखाई देता है। दक्षिण एवं पश्चिम में पर्वत की ऊँची-ऊँची शृंखलाएँ हैं। दूर से देखने पर वे आकाश को छूती महसूस होती हैं। इसी दिशा में है रायगढ़ का किला।
तानाजी मालुसरे ने सिंहगढ़ का किला जीतने की प्रतिज्ञा करके, 1000 मावले सैनिक साथ लेकर, कूच कर दिया। सभी सैनिक एक ही रास्ते से न जाकर अलग-अलग रास्तों से, अँधियारी रात को चीरते हुए आगे बढ़े और एक पूर्व-निश्चित ठिये पर इकट्ठे
हो गए। माघ महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात थी। तानाजी ने आधे सैनिकों को कुछ फासला रखकर चलने के लिए कहा, जिन्हें इशारा मिलते ही आगे आ जाना था। बाकी सैनिक किले के तट पर चुपचाप खड़े रहे।
अब एक सैनिक ने अपनी गोह को किले के कगार की तरफ जोर से फेंका। गोह एक ऐसा प्राणी है, जो जहाँ गिरता है, वहीं चिपक जाता है। उसकी दुम के साथ बँधी रस्सी नीचे तक लटका दी जाती है। सैनिक इस रस्सी का सहारा लेता हुआ बाकायदा ऊपर तक चढ़ सकता है।
गोह किले के कगार से टकराकर सही-सलामत वहीं चिपक गई। उसकी दुम से बँधी रस्सी नीचे तक लटकने लगी। रस्सी के सहारे पहले तो सिर्फ एक सैनिक किले के कगार पर चढ़ा। वह अपने साथ मजबूत रस्से की बनी एक सीढ़ी लेकर गया था। सीढ़ी का ऊपरी छोर उसने कगार से अटका दिया और दूसरा छोर किले से बाहर की तरफ नीचे फेंका। वहाँ अँधेरे में तानाजी अपनी टुकड़ी के साथ मौजूद थे।
एक के पीछे एक 300 मावले सैनिक तानाजी के पीछे-पीछे किले पर चढ़ गए। शेष सैनिकों के लिए रस्से की सीढ़ी लटकती छोड़ दी गई। ऊपर पहुँच चुके सैनिक फुरती से इधर-उधर छिप गए। तभी किले के कुछ रखवालों को शक हुआ। वे दौड़कर
आए। उनमें से एक बाहर की तरफ झुककर देखने लगा कि क्या हो रहा है। उसे तानाजी के एक सैनिक ने बाण चलाकर मार डाला। रखवालों के बीच अफरा-तफरी मच गई। वे अपने शस्त्र लेने दौड़े।
दौड़ने-भागने की आवाजें जिधर से आ रही थीं, उधर तानाजी के सैनिकों ने अँधेरे में बाण चलाने शुरू किए। ज्यादातर बाण किसी-न-किसी को लगे और वे चिल्लाकर गिरे। तब तक रखवालों ने मशालें जला ली थीं, जिनकी रोशनी में उन्होंने पहचान लिया कि हमला किसने किया है। मराठे सैनिक रखवालों पर पूरी ताकत से टूट पड़े। दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हो गया। तब तक किले के राजपूत सैनिक भी रखवालों के साथ आ मिले और युद्ध करने लगे। तानाजी के केवल 300 सैनिकों की तुलना में राजपूतों की तादाद काफी बड़ी थी, मगर राजपूत हड़बड़ा गए थे, जबकि मराठे घात लगा-लगाकर वार कर रहे थे।
मराठों ने शत्रु को धकेलते हुए आगे बढ़ना शुरू किया। ऐसा लगा कि किले के सैनिक बस हारने ही वाले हैं, लेकिन उसी समय किले का राजपूत सरदार उदयभानु आ पहुँचा। तानाजी और उदयभानु की नजर मिली और अगले ही पल दोनों में भीषण युद्ध छिड़ गया। दोनों एक से बढ़कर एक शूरवीर, शक्तिशाली और अनुभवी योद्धा थे। उनका युद्ध काफी देर तक चलता रहा। दोनों जख्मी हुए। दोनों युद्धभूमि पर एक साथ गिरे और एक ही साथ वीरगति को प्राप्त हुए।
मराठा सैनिकों ने देखा कि उनका मुखिया अब नहीं रहा और शत्रु की तादाद भी काफी बड़ी है। मराठों ने महसूस किया कि हम नहीं लड़ सकेंगे। उन्होंने पीछे हटने का फैसला किया। वे जहाँ से चढ़कर आए थे, उधर भागने लगे। इतने में तानाजी का भाई सूर्याजी नीचे रुके सैनिकों को लेकर ऊपर आ गया। उसने देखा कि भाई तानाजी रणभूमि में निर्जीव पड़ा है और मावले मराठे सैनिक भाग रहे हैं। सूर्याजी ने आगे बढ़कर उन्हें रोका और कहा, “तुम्हारे आदरणीय पिताओं के शव कहार उठाएँ, यह तुम्हें अच्छा लगेगा? अब तुम लोग नीचे उतरकर भी नहीं जा सकते। मैंने रस्सी काट दी है। तुम लोग शिवाजी महाराज के शूरवीर सैनिक हो। तुम्हें शत्रु को पीठ दिखाकर रणभूमि से भागना शोभा नहीं देता। चलो, शत्रु का सामना करो और वीरता दिखाओ।"
सूर्याजी की ऐसी ओजस्वी वाणी सुनकर भागते मराठा सैनिक रुक गए। साथी सैनिक ऊपर आ पहुँचे हैं और उनके साथ सूर्याजी जैसा मुखिया भी आ पहुँचा है, यह देखकर सबके चेहरे चमक उठे। शत्रु के दाँत खट्टे कर देने का उनका उत्साह लौट आया।
अपने अत्यंत शूरवीर साथी तानाजी के बलिदान का बदला लेने के लिए मराठा सैनिक शत्रु पर टूट पड़े। अत्यंत वीरता से लड़ रहे उन मावले सैनिकों को स्वयं तानाजी ने चुना था। उन्होंने 'हर हर महादेव!' का सिंहनाद करते हुए शत्रु पर आक्रमण कर दिया
और देखते-देखते किले पर कब्जा कर लिया। इस भयंकर संग्राम में 300 मावले मराठे एवं 500 राजपूत रणभूमि में सदा के लिए सो गए। कुछ राजपूत सैनिक, जो छिपे हुए थे, शरण में आ गए। कुछ ने किले से तलहटी में कूदकर प्राण दे दिए।
'हमारी जीत हुई है। गढ़ पर हमारा कब्जा हो चुका है।' यह शुभ सूचना शिवाजी महाराज को देने के लिए, पूर्व निश्चित संकेत के अनुसार, किले के एक कमरे में सूर्याजी ने आग लगाई।
महाराज को अत्यंत उत्सुकता थी कि इस लड़ाई का परिणाम क्या रहा। सिंहगढ़ के किले पर जलती आग को देखकर वे गद्गद हो गए। इस जोखिम भरी कारवाई में उनके ईमानदार व प्रिय मित्र तानाजी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी, यह जानकर शिवाजी महाराज तीव्र ग्लानि से भर उठे। उनके मुख से अनायास एक ऐसा उद्गार निकला, जो इतिहास में अमर हो गया। उन्होंने असहनीय पीड़ा से कहा, “गड़ आला, पण सिंह गेला!” अर्थात गढ़ आया, पर सिंह चला गया!
विशेष बहादुरी दिखाने वाले मराठा मावले सैनिकों को महाराज ने सोने के कड़े भेंट किए। इन सैनिकों को जिन अधिकारियों ने संचालित किया था, उन्हें योग्यता के अनुसार इनाम दिए गए। सूर्याजी ने इस लड़ाई में अत्यधिक पराक्रम कर, हारी हुई बाजी को जीत में बदल दिया था। महाराज ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसे सिंहगढ़ किले का मुख्य अधिकारी बना दिया।

9 वर्ष तक चली ट्रॉय की लड़ाई, जिसके लिए एक लाख ग्रीक सैनिक 1000 युद्ध-पोतों में सवार होकर ट्रॉय पहुँचे थे, उसकी तुलना तानाजी मालुसरे के मात्र 300 मावले मराठा सैनिकों से करना सर्वथा तर्कसंगत एवं प्रेरणास्पद है। ट्रॉय में अभेद्य किला
जीतने की चुनौती थी और सिंहगढ़ में भी अभेद्य किला सर करने की चुनौती थी । तानाजी के रणभूमि में दिवंगत हो जाने के बाद भी मराठों ने हिम्मत न हारी और सिंहगढ़ पर कब्जा कर ही लिया, वह भी केवल एक रात में।
तानाजी ने जीत हासिल करने के लिए किसी पाशवी शक्ति का उपयोग नहीं किया। उन्होने उपयोग किया, तो केवल गोह नामक एक जीते-जागते प्राणी का। यह भी सिंहगढ़ विजय की विशेषता थी।

गोह को मराठी में घोरपड़ कहते हैं। यह प्राणी बड़े आकार की छिपकली जैसा होता है। एक विशिष्ट घराने के मराठा सैनिकों ने युद्धों में घोरपड़ का उपयोग अनेक बार किया। इससे उस घराने का उपनाम ही घोरपड़े हो गया और प्रचलन में भी आ गया।


संदर्भ—
1. छत्रपति शिवाजी महाराज / कृ.अ. केलुसकर
2. श्री छत्रपति शिवाजी महाराज याँचे विचिकित्सक चरित्र / वा. सी. बेंद्र
3. Shivaji, The Great Maratha / H.S. Sardesai