शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 6 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 6

[ शिवाजी महाराज और 'गनिमी कावा' ]

मध्ययुगीन भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण युद्ध हुए। कुछ युद्धों ने तो इतिहास ही बदल डाला कुछ महत्वपूर्ण युद्ध इस प्रकार है—
1. तराइन का युद्ध।
2. पानीपत का युद्ध।
3. खंडवा खानवा का युद्ध।
4. गोग्रा का संग्राम।
5. चौसा की लड़ाई।
6. बिलग्राम का युद्ध।
7. पानीपत का दूसरा युद्ध।
8. हल्दी घाटी का युद्ध।
9. पानीपत का तीसरा युद्ध।
शिवाजी महाराज किसी भी बड़े युद्ध में शामिल नहीं हुए। उन्होंने किसी बड़े संग्राम का भी सहारा नहीं लिया। वे 'गनिमी कावा' (छापामार युद्ध) में अपनी कुशलता दिखाते रहे।

ईसा पूर्व 500 के आसपास युद्ध में पराक्रम करने वाले रोमन योद्धाओं को सेंचुरियन कहा जाता था। ईसवी सन् के सातवें शतक में 'टेंप्लर नाइट्स' को युद्ध-कला का पूर्वज माना जाता था। रोमन कैथलिक चर्च से जुड़े होने के कारण उन्हें 'टेंप्लर नाइट्स' के नाम से जाना जाता था।
ईसाइयों की जन्मभूमि यरुशलम की मुक्ति के लिए लड़े गए युद्ध में 'टेंप्लर नाइट्स' ने क्रूसेड में हशाशिन से लड़ाई की। इस समय यरुशलम पर सलादीन का शासन था। इस युद्ध में कुछ खास हासिल नहीं हुआ, किंतु हशाशिन ने 'टेंप्लर नाइट्स' से उनकी युद्ध-नीतियाँ सीखीं। समय बीतने के साथ यही युद्ध कला चंगेज खान और तैमूर ने भी सीखीं। ये दोनों मंगोलवंशी थे।
ये ही मंगोलवंशी उन मुगलों के पूर्वज थे, जिन्होंने सन् 13-14 के शतक में भारत पर आक्रमण किए थे।

17वें शतक में मुगल एवं राजपूत शिवाजी महाराज के विरुद्ध लड़े। शिवाजी महाराज के सैनिक (मावले) युद्ध कला में निष्णात नहीं थे। उनके पास युद्ध के लिए जरूरी साजोसामान की भी कमी थी। उन्हें विविध प्रकार के युद्धों का अनुभव भी नहीं था। फिर भी उन्होंने मुगलों एवं राजपूतों के साथ वीरता-पूर्वक युद्ध किए।
सन् 2011 में 'हिस्ट्री चैनल' पर प्रस्तुत एक कार्यक्रम में निष्कर्ष निकाला गया था कि सेंचुरियन योद्धाओं की तुलना में राजपूत योद्धा युद्ध कला में अधिक निपुण थे। ऐसे निपुण राजपूत योद्धाओं एवं निडर-निष्ठुर मुगल योद्धाओं को मराठों ने धूल चटाई, जो अत्यंत आश्चर्यजनक है।
इन बातों से जो सिद्ध होता है, वह यही है कि योद्धाओं के लिए विजय प्राप्त करना ही अंतिम ध्येय होना चाहिए। यदि ध्येय ही विजय प्राप्त करना है, तो विजय प्राप्त होती ही है।

शाहजहाँ की बीवी मुमताजमहल शाइस्ता खान की सगी बहन थी। इस नाते शाइस्ता खान औरंगजेब का मामा था।
शाइस्ता खान का उपाधियों सहित पूरा नाम था अमीर-उल-उमराव-नवाब बहादुर-मिर्जा अबूतालिब उर्फ शाइस्ता खान। शाइस्ता खान शिवाजी महाराज से तीस वर्ष बड़ा था।
शाइस्ता खान हू-ब-हू बादशाह शाहजहाँ जैसा ही था। उसे दक्षिण के इलाकों के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी। उसके सामने शिवाजी महाराज की ताकत बहुत ही कम थी। शाइस्ता खान के साथ 77 हजार घुड़सवारों की सेना चला करती। उसका तोपखाना हाथी, घोड़ों और ऊँटों पर लदा रहता। पैदल सैनिकों और बरछी-भालों की तो जैसे गिनती ही नहीं थी। तेजी से खेमे लगाने और फर्श बिछाने की कला में पारंगत फर्राशखाने में 100 हाथी थे। लड़ाके हाथी 400 थे। बारूद और सामान खींचने के लिए अगणित बैलगाड़ियाँ थीं। उन्हें खच्चर खींचा करते। खान के साथ बत्तीस कोटि का खजाना था। शाइस्ता खान जहाँ भी रुकता, वह जगह दो गाँवों की लंबाई और एक गाँव की चौड़ाई के जितनी विस्तृत हुआ करती।
स्वयं शाइस्ता खान का वैभव भी अपरिमित था। विख्यात विश्व यात्री वास्को-द-गामा ने शाइस्ता खान की छावनी का वर्णन करते हुए लिखा है, “शाइस्ता खान अभिमानी था। इस उमराव के पास दो जबरदस्त सैनिक-तंबू थे। हर तंबू को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए 300 हाथियों की जरूरत पड़ती थी। आगे के पड़ाव पर तंबू पहले से तैयार रखे जाते थे। जिस तंबू में शाइस्ता के रहने के लिए कमरों की व्यवस्था थी, उसकी लंबाई 60 फीट और चौड़ाई 30 फीट होती थी। तंबू को 15 फीट ऊँचे कपड़े से ढक दिया जाता। इस कपड़े में लोहे के मजबूत तार बुने हुए होते। सोने का कमरा और खास कमरा तंबू के पिछवाड़े में होता। लाखों फूलों की कुंडियों को वहाँ इस प्रकार लगाया जाता कि शानदार, सुगंधित बगीचा तैयार हो जाता।
“इसलाम धर्म के मुताबिक रमजान के महीने में रोजे रखे जाते हैं। सूरज निकलने से सूरज डूबने तक शाइस्ता खान की सेना कुछ खाती-पीती नहीं और स्त्रियों की संगत नहीं करती। दिन भर उपवास करके, रात में पेट भर खाना खाकर शाइस्ता खान की सेना छावनी में गहरी नींद सो जाती थी।..”

चैत्र सुदि अष्टमी के दिन का एक और दृष्टि से महत्त्व था। इस दिन बादशाह औरंगजेब के राज्याभिषेक की वर्ष-गाँठ मनाई जाती थी। इस दिन हर प्रहर में प्रहरी द्वारा जोर-जोर से नगाड़े बजाए जाते। यह मुगलों की प्रथा थी। ऐसे नगाड़े सुबह 6 बजे, 9 बजे, दोपहर 12 बजे, 3 बजे, शाम 6 बजे, रात्रि 9 बजे, 12 बजे एवं रात्रि 3 बजे बजाए जाते थे।
शिवाजी महाराज इस नियम का अपनी कल्पना शक्ति से लाभ उठाने वाले थे!
चैत्र सुदि अष्टमी का दिन आया। महाराज की संपूर्ण योजना तैयार थी। उन्होंने एक हजार चुनिंदा सशस्त्र सैनिक और दो हजार चुनिंदा सेवक अपने साथ लिये। पूना के नजदीक से गुजरते हुए महाराज ने 400 सेवक ओर अपने साथ ले लिये। इनमें चिमणाजी व बाबाजी बंधु, कोयाजी बाँदलचंदजी जेधे आदि व्यक्ति थे। बची हुई सेना को दो भागों में विभाजित किया गया। एक टुकड़ी मोरोपंत पेशवा एवं दूसरी टुकड़ी नेताजी को सौंपी गई। कुछ सैनिक कात्रज घाट में और कुछ कर्यात मावल में फैलाकर रखे गए। बाजी सर्जेराव जेधे नदी के उस पार के सवारों में थे। महाराज का घोड़ा तैयार करने की जिम्मेदारी जेधे को सौंपी गई थी।
महाराज जब लाल महल के पास पहुँचे, तब रात्रि के 3 बजे थे। शाइस्ता खान के डेरे में घुसने की योजना पहले से तैयार थी। उसी के मुताबिक महाराज की सेना की एक टुकड़ी ने रसोई घर में प्रवेश किया। रसोई के पास ही जनानखाना था। रसोई और जनानखाने के बीच की खाली जगह को मिट्टी और ईंटों से बंद कर दिया गया था।
सबसे पहले महाराज ने सभी रसोइयों को मार डाला। मावलों ने जनानखाने और घर के बीच के रास्ते पर काबू किया। मराठा सैनिक जनानखाने में घुसने लगे। जनानखाने की औरतें मर्दों को भीतर आते देख घबराकर चिल्लाने लगीं।
शिवाजी महाराज के सभी सैनिक अंदर आ चुके थे। उन्होंने मार-काट शुरू की। शाइस्ता खान नींद से जागा। वह भाला और धनुष-बाण लेकर मराठों के सामने आया। दो मराठे पानी के हौज के पीछे छिपते हुए शाइस्ता खान की ओर बढ़ रहे थे। हौज शाइस्ता के सामने ही था। उसने एक मराठे को कसकर बाण मारा। वह गिर पड़ा। तब तक दूसरे मराठे ने शाइस्ता खान पर अपनी तलवार से वार कर दिया। इससे शाइस्ता का अँगूठा कट गया। दो मराठे पानी के हौज में गिर चुके थे। तीसरे को शाइस्ता खान ने बरछी मारकर नीचे गिराया।
इतने में शाइस्ता का बेटा अबुल फतहखान अपने पिता की मदद करने दौड़ा। शिवाजी महाराज के सैनिक मार-काट कर रहे थे। फतहखान मार-काट का शिकार हो गया। मराठे शाइस्ता खान को जान से मार डालना चाहते थे। खान की औरतों ने इस बात
को भाँप लिया था। उन्होंने सभी दीयों को बुझा दिया। अचानक अँधेरा छा गया। उसमें औरतें शाइस्ता खान को निकाल ले गईं।
मराठों ने भीषण मार-काट मचाई। कुछ पहरेदार जाग रहे थे। कुछ सो रहे थे। मराठों ने उन्हें मार डाला। कुछ मराठे नक्कारखाने में घुस गए और नक्कारचियों से बोले कि सभी नगाड़े जोर-जोर से बजाए जाएँ, ऐसा खान का हुक्म है। नक्कारची जोर-जोर से नगाड़े बजाने लगे। जबरदस्त आवाज होने लगी। कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
सभी ओर अँधेरा फैल गया। मराठे तलवारों से वार पर वार किए जा रहे थे। दो औरतें इसकी शिकार हो गईं। एक औरत के इतने टुकड़े हो गए कि दफन करने के लिए उसे टोकरी में भरकर ले जाना पड़ा। एक और औरत 30-40 घाव होने के बाद भी बच गई।
शिवाजी महाराज शाइस्ता खान को खोज रहे थे। महाराज एक डेरे में घुसे। शाइस्ता अपनी औरतों के साथ यहीं छिपा बैठा था। महाराज को आते देखकर वह तलवार उठाने लगा। इससे महाराज का ध्यान उसकी ओर गया। महाराज ने अँधेरे में ही वार किया। शाइस्ता खान की तीन उँगलियाँ कट गई। शाइस्ता खान मर गया, ऐसा समझकर औरतें रोने लगीं। महाराज को भी ऐसा ही लगा। उन्होंने मराठों को रोक दिया। शोर बहुत बढ़ चुका था। खान की सेना दुश्मन आया समझकर तैयार हो रही थी। दरवाजे के पास लोग जमा हो रहे थे।
दरवाजे अंदर से बंद थे। मराठों ने एक दरवाजा खोला तो लोग अंदर आते हुए पूछने लगे, “दुश्मन कहाँ है, दुश्मन कहाँ है?" मराठे भी उन्हीं में मिलकर पूछने लगे “गनीम कहाँ है, गनीम कहाँ है ?" कहते हुए बाहर निकल गए।
रात्रि की इस लड़ाई में शाइस्ता खान का एक बेटा, एक जामाता, बारह बीवियाँ, चालीस बड़े सरदार, एक सेनापति मिलाकर 55 लोग जान से मारे गए। खुद शाइस्ता खान, उसके दो बेटे और आठ बीवियाँ घायल हुईं।
शिवाजी महाराज के 40 सैनिक घायल और 6 शहीद हुए। घायलों में कोयाजी बाँदल थे। उन्हें सीने पर चार वार लगे थे। महाराज ने उन्हें हिरडस-मावल के आलन्डे गाँव में जमीन देकर पुरस्कृत किया।
लाल महल में विचित्र भयपूर्ण वातावरण था। शाइस्ता खान के खेमे में चारों तरफ शोक, उद्वेग व घबराहट फैल चुकी थी। ऐसी घटना की कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। शिवाजी महाराज को सब शैतान का ही दर्जा दे रहे थे, क्योंकि उन्होंने साबित कर दिया था कि वे कभी भी, कहीं भी प्रवेश कर सकते हैं! सारा देश चकित व भयभीत था। बादशाह औरंगजेब के दरबार व परिवार में दुःख के साथ अपमान का भी माहौल छाया हुआ था।
शाइस्ता खान की चिंता का ओर-छोर नहीं था। वह दुःख, हैरत और अपमान के भँवर में डूब गया था। उसका मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया था। महाराजा जसवंतसिंह सुबह उससे मिलने आए, तो उसने उपेक्षा के साथ उनसे कहा “मुझे तो लग रहा था। तुम भी दुश्मन से लड़ते-लड़ते मारे गए !”
इस घटना के बाद बादशाह औरंगजेब ने शाइस्ता खान की बदली बंगाल के सूबे में कर दी। शाइस्ता खान के लिए यह घाव पर नमक छिड़कने जैसा ही था। उसने बादशाह से गुजारिश की, “मुझे दक्षिण में ही रहने दिया जाए। शिवाजी ने धोखे से हमला किया, मेरी उँगलियाँ काटीं, मेरे बेटे को मार डाला, मेरी बीवियों को मार डाला। शिवाजी को खत्म करने का हक मेरा है। मैं या तो उसे खत्म करूँगा या खुद खत्म हो जाऊँगा।”
किंतु औरंगजेब टस से मस न हुआ। उसे शाइस्ता खान पर अब यकीन ही नहीं रहा था। उसने उसे फौरन बंगाल चले जाने का हुक्म दिया। शाइस्ता खान ने बादशाह से बहुत गुजारिश की कि उसे दक्षिण में रहने दिया जाए, यहाँ तक कहा कि शिवाजी के नष्ट होने तक का सारा खर्च मैं उठाऊँगा। शाइस्ता खान ने दरबार में अपने दोस्तों से कहकर भी औरंगजेब पर दबाव डलवाया, लेकिन बादशाह ने उनकी एक न सुनी।
बादशाह औरंगजेब ने कहा कि शाइस्ता खान अपना विवेक खो चुका है। शिवाजी के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए अगर वह दक्षिण में रहा, तो हमारी सेना तहस-नहस हो जाएगी।

गनिमी युद्ध ( युद्ध की गुप्त रणनीति ) :
शिवाजी महाराज की सेना में दिखावा नहीं था। उनके रहने की व्यवस्था नदी-किनारे होती थी। स्त्रियाँ एवं बच्चे आदि साथ नहीं होते थे। सैनिक पेड़ों की छाँव में आश्रय लेते। उनके घोड़े घास खाते हुए पास ही खड़े रहते। हजारों सैनिकों के लिए केवल दो तंबू हुआ करते; एक छोटा, एक बड़ा। छोटा महाराज के लिए और बड़ा अधिकारियों के लिए।
शिवाजी ने अपनी प्रजा में लड़ने और जूझने का विश्वास जगाया। इसी आत्मविश्वास के बल पर शिवाजी की मृत्यु के 27 वर्ष बाद तक उनकी प्रजा औरंगजेब से लड़ती रही। इस लड़ाई में मुगलों के पाँच लाख फौजी और मराठों के दो लाख फौजी
मारे गए। बहादुरी और धैर्य के साथ अपने ही पैरों पर खड़े रहने की वृत्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हुई। इसके लिए लगातार अपने स्थान बदलना, शत्रु को थकाना और छकाना, उस पर अचानक हमला करना आदि पेंच शिवाजी ने अपनाए। धर्म के प्रति निष्ठा को शिवाजी ने कभी कम नहीं आँका।
आचार्य चाणक्य ने कहा है कि किसी ने यदि धोखे की योजना बनाई है, तो उसे भी धोखे से ही खत्म कर देना चाहिए। धोखे की योजना यदि दस व्यक्तियों ने मिलकर बनाई है, तो उन सबको सबके सामने फाँसी दी जानी चाहिए। यदि दस नहीं, सौ व्यक्तियों ने मिलकर धोखे की योजना तैयार की है, तो उन तमाम सौ व्यक्तियों को सरेआम फाँसी दी जानी चाहिए, ताकि भविष्य के संभावित अपराधियों के बीच आतंक फैले। किसी राजा को जब प्रजा पसंद नहीं करती, तब राजा के अपने ही सेनापतियों को उसका वध कर देने का अवसर मिल जाता है। इस कारण सुयोग्य राजा वही है, जो अपनी प्रजा के हृदय में बसता है। प्रजा का सर्वांगीण विकास करना राजा का परम कर्तव्य है। प्रजा के कल्याण के लिए राजा जो भी मार्ग अपनाए, उसका समर्थन करना चाहिए। जैसे—
लड़ना, मरना, पीछे हटना, स्पर्धा करना, भेद करना, धोखा करना, मारना, वचन देकर मुकर जाना आदि सब कर्तव्य निभाने के ही रूप हैं। इस प्रक्रिया में राजा से यदि कोई भूल हो जाए, तो वह प्रजा की दुआ से माफ हो जाती है।”
शिवाजी महाराज ने अपने हर कर्तव्य को इस प्रकार निभाया कि प्रजा की भलाई हो। इसलिए प्रजा ने भी उन्हें भरपूर संरक्षण दिया और उनका कोई भी रहस्य दुश्मन के सामने उद्घाटित नहीं किया।
शिवाजी की सेना में जो लोग घोड़े पर सवार होकर नहीं लड़ सकते थे, वे हाथी पर सवार होकर बाण या बंदूक से लड़ते थे।
शिवाजी महाराज ने हाथी पर सवार होकर कभी लड़ाई नहीं की। वे हमेशा घोड़े पर सवार होकर युद्ध करते एवं विश्रांति के लिए 'मेणा' (परदोंवाली पालकी) का उपयोग करते थे।
मूल रूप से ईरानी शाइस्ता खान, मूल रूप से अफगानिस्तानी दिलेर खान, मूल रूप से उजबेकी करतलब खान, मूल रूप से अरबस्तानी दाऊद खान, मूल रूप से अफ्रीकी हबशी सिद्दी जौहर जैसे अनेक देशों के योद्धाओं को शिवाजी ने अपनी रणनीति से हराया।
इसी प्रकार शिवाजी ने अंग्रेज, डच, फ्रेंच व पुर्तगीज सत्ताओं के साथ सीधी लड़ाई की। शिवाजी महाराज की सैन्य कुशलता एवं युद्ध-नीति कुशलता पर विचार करें, तो उन्हें सच्चे अर्थ में 'अंतरराष्ट्रीय सेनानी' के रूप में देखा जा सकता है। इस कथन में
सचमुच कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

( जासूसों के काम )
आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जासूस राज्य के लिए आँखों का काम करते हैं। शिवाजी महाराज भी अपने जासूसों को राज्य की आँखों की तरह प्रयुक्त करते थे। उन्होंने अपने जासूस दिल्ली से लेकर तंजावर तक अनेक राजधानी-शहरों में नियुक्त कर रखे थे। इस संदर्भ में वास्को-डि-गामा का कथन हम बाद में देखेंगे। शिवाजी महाराज के सक्षम जासूस उन्हें एक-एक घंटे में गुप्त सूचनाएँ प्रेषित करते थे। महाराज ने अपने गुप्तचरों को हमेशा उच्चतम महत्त्व एवं सुंदरतम पारिश्रमिक दिया। यह बात स्वयं महाराज ने लिखित में स्वीकार की है।
शिवाजी महाराज ने किस प्रकार अफजल खान का वध किया, करतलब खान को झाँसा दिया, शाइस्ता खान पर छापा मारा, सूरत पर हमला कर उसे लूट लिया, पन्हालगढ़ से चुपके से पलायन किया। इन सबमें जो बेमिसाल सफलता महाराज को मिली, इसके पीछे उनके जासूसों की कारगुजारी ही तो है! जासूसों द्वारा गुप्त जानकारियों तक पहुँच जाना और फिर उन जानकारियों को समय रहते शिवाजी महाराज तक पहुँचा भी देना, यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। गुप्तचरों की असाधारण सफलताओं के कारण महाराज को असाधारण यश मिला।
शिवाजी महाराज को अपने मार्ग में आने वाले वृक्षों तक की जानकारी हुआ करती थी! शत्रु ने अपने नदी-नालों पर कहाँ, कैसे बाँध आदि बना रखे हैं और उनमें कहाँ, कैसी कमी है; सब महाराज को मालूम रहता था! सूरत के व्यापारियों के बारे में उन्होंने सूक्ष्मतम जानकारियाँ संकलित की थीं। किसके पास कितना धन है, उसे कहाँ संगृहीत किया गया है, रक्षा की क्या व्यवस्था है, वहाँ कितनी फौज तैनात की गई है, इत्यादि हर जानकारी उन्हें पहले से मिल चुकी थी।
उनकी कुशलता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि दिल्ली के सम्राट् का आदेश अधिकारी तक पहुँचता, उससे पहले शिवाजी को ज्ञात हो जाता था!
महाराज के गुप्तचर तो गुप्त समाचारों तक पहुँचते ही थे, स्वयं गुप्तचरों के बारे में जानकारियाँ भी बड़ी शिद्दत से छिपाकर रखी जाती थीं। महाराज के गुप्तचर के रूप में इतिहास में केवल एक नाम दर्ज है ‘बहिर्जी नाईक’ ग्रंथों में इतना ही उल्लेख मिलता है। कि ये गुप्तचर महाराष्ट्र के रामोशी, धनगर, भील, लमाण (आदिवासी समाज), बंजारा, पारधी, महादेव-कोली एवं मसान जोगी आदि भटकी जमात के लोग हुआ करते थे।

( 'गनिमी कावा' : छापामार युद्ध का आधुनिक तंत्र )
'गनिमी कावा' (मराठी) का अर्थ इस प्रकार समझें— 'गनिमी' यानी छिपकर और 'कावा' यानी आक्रमण। 'गनिमी कावा' यानी छापामार युद्ध।
'गनिमी कावा' ग्रंथ में शिवाजी महाराज ने विस्तार से मीमांसा की है कि छापामार युद्ध कब, कैसे और कहाँ लड़ा जाना चाहिए। छापामार लड़ाई की इतनी बारीक समझ इस ग्रंथ में दी गई है कि महाराज की बुद्धिमानी और सूझबूझ पर आश्चर्य ही किया जा सकता है।
'गनिमी कावा' को 'शिव-सूत्र' के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह शिवाजी महाराज ही थे, जिन्होंने छापामार युद्ध को न केवल ईजाद किया, बल्कि इतना विकसित भी किया, जितना विश्व में आज तक कोई नहीं कर सका। आधुनिक विश्व के जितने भी नेताओं या सेनापतियों आदि ने छापामार युद्ध के पैंतरों को अपनाकर जीत हासिल की है, उन सभी ने एक मत से स्वीकार किया है कि उन्होंने 'गनिमी कावा' के ही अध्ययन से छापामारी सीखी और अपने मुट्ठी भर सैनिकों को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि दुश्मन की महाशक्तिशाली फौज के भी छक्के छूट गए।
द्वितीय विश्व युद्ध (बीसवीं सदी) के बाद 'गनिमी कावा' का महत्त्व बहुत बढ़ा चीन में माओत्से तुंग और वियतनाम में जनरल ज्याप ने गनिमी के सूत्रों को अपनाकर असीमित यश प्राप्त किया।

सन् 1958 के अंतिम दिनों में क्यूबा में जो क्रांति हुई, उसकी सफलता का श्रेय 'गनिमी कावा' के ही कुशल संचालन को दिया जाता है। क्यूबा के तानाशाह बतिस्ता के खिलाफ क्रांतिकारियों ने जो विद्रोह किया, वह बरसों-बरसों तक चला। क्रांतिकारियों ने बहुत त्याग किया, बहुत बलिदान दिया। क्रांतिकारियों का नेतृत्व था फिडेल कास्त्रो, चे ग्यूवेरा और साथियों के हाथ में तानाशाह बतिस्ता को महाशक्ति अमरिका का भरपूर फौजी सपोर्ट खुलेआम मिल रहा था, लेकिन फिडेल कास्त्रो और चे ग्यूवेरा के छापामारों ने उस महाशक्ति को ऐसा परेशान किया कि आखिर उसे अपनी नाक कटाकर पीछे हटना पड़ा। इन छापामारों ने ‘शिव-सूत्र' उर्फ 'गनिमी कावा' में दी गई पद्धतियों का अक्षरश: पालन किया था। क्रांति के सूत्रधारों ने यह बात स्वयं स्वीकार की है।

वियतनाम में भी अमेरिका की खूब किरकिरी हुई। वियतनामी जनरल ज्याप ने घोर जंगलों में अमेरिकी फौजियों के साथ खूँखार छापामार युद्ध लड़कर उन्हें हक्का-बक्का कर दिया। जनरल ज्याप ने भी 'शिव-सूत्र' में दी गई सलाहों के मुताबिक अपने मोरचे तैयार किए और ऐसी जीत हासिल की, जिसने जनरल ज्याप को विश्व विख्यात कर दिया। स्वयं जनरल ज्याप ने 'शिव-सूत्र' को अपना प्रेरणा स्रोत बताया है।
गौर करना होगा कि क्यूबा और वियतनाम इन दोनों देशों में अमेरिका पर जो जीत हासिल की गई, उसमें शिवाजी महाराज की बुद्धि संपदा ने अपना जादू दिखाया। प्रकारांतर से स्वयं शिवाजी महाराज ने ही अमरिका को हराया। ऐसी उपलब्धियों के कारण ही इतिहास में शिवाजी का नाम एक अंतरराष्ट्रीय योद्धा के तौर पर दर्ज है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद महाराज के 'गनिमी कावा' की चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने लगी थी।

प्राचीन चीनी युद्ध कला विशेषज्ञ ‘सून त्सू’ ने अपनी पुस्तक 'बुक ऑफ द वार' में 'गनिमी कावा' में दिए गए छापामारी के पैंतरों की चर्चा की है। बिल्कुल अचानक जबरदस्त तेजी से आक्रमण कैसे करें, शत्रु को अचानक हक्का-बक्का कर देने के तरीके क्या हैं, शत्रु को धोखे में कैसे रखा जाए, इत्यादि अनेक पैंतरों का जिक्र करते हुए सून त्सू ने 'गनिमी कावा' की प्रशंसा की है।
सून त्सू को माओत्से तुंग का प्रेरणा स्रोत माना जाता है। सून त्सू के मौलिक विचारों का अधिक विकास एवं विस्तार माओ ने किया।

संसार-प्रसिद्ध युद्ध कला विशेषज्ञ क्लॉजविट्ज ने भी अपने ग्रंथ ‘ऑन वॉर’ के चौथे खंड में 'गनिमी कावा' में आलेखित छापामार युद्ध पद्धति की चर्चा की है। उसने इस युद्ध को 'जनता का युद्ध' कहा है। ऐसा युद्ध जनता के आक्रोश एवं प्रतिकार की भावना से प्रेरित होता है। जनता जब पूर्ण निष्ठा से प्रेरित होती है, तब ऐसा युद्ध होने लगता है।
आधुनिक युग की पृष्ठभूमि में देखें, तो मनुष्य का युद्ध-अनुभव बहुत समृद्ध हो चुका है। 'गनिमी कावा' का इस समृद्धि में अहम योगदान है। 'गनिमी कावा' की परिपूर्ण चर्चा पढ़ने को मिलती है इन तीन हस्तियों की लिखी पुस्तकों में, माओत्से तुंग, जनरल
ज्याप और चे ग्यूवेरा। वैसे तो इन तीनों ने एक जैसी ही चर्चा की है, किंतु भाषा की कसौटी पर तीनों स्वतंत्र प्रतीत होती हैं।
माओत्से तुंग, जनरल ज्याप और चे ग्यूवेरा, ये तीनों मूल रूप से क्रांतिकारी थे, अतः 'गनिमी कावा' को भी उन्होंने क्रांति के ही साधन की दृष्टि से देखा। इन तीनों का उद्देश्य एक जैसा था। ये सिर्फ उस राजनयिक सत्ता को समाप्त करना नहीं चाहते थे,
जिसने उनके प्रदेशों पर कब्जा कर रखा था बल्कि इन्हें तो एक व्यापक क्रांति करनी थी। ऐसी क्रांति, जो जितनी राजनयिक थी, उतनी ही सामाजिक भी थी। ऐसी व्यापक क्रांति के शत्रु बहुत शक्तिशाली थे। आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित उनकी सेना अत्यंत संगठित थी। उन्हें केवल 'गनिमी कावा' में वर्णित पद्धति से हराया जा सकता था। उपरोक्त तीनों हस्तियों का एक ही उद्देश्य था— समाज एवं शासन को एड़ी से चोटी तक बदल देने वाली व्यापक क्रांति! इससे कम कुछ नहीं। इसीलिए इन तीनों ने 'गनिमी कावा' के सिद्धांतों व पद्धतियों को एक जैसी हार्दिकता के साथ अपनाया।

माओत्से तुंग के अनुसार चीनी क्रांति बुनियादी तौर पर किसानों की क्रांति थी। किसान ही माओ के 'गनिमी कावा' के सैनिक थे। माओ ने किसान और सैनिक में कभी अंतर नहीं किया।

जनरल ज्याप के अनुसार वियतनाम जैसे पिछड़े देश में केवल वही युद्ध 'लोक-युद्ध' के रूप में उभर सकता था, जो मजदूरों के नेतृत्व में लड़े गए किसानों के युद्ध जैसा होता। वियतनाम के 'गनिमी सैनिकों' में 90 प्रतिशत से अधिक किसान ही थे।

चे ग्यूवेरा के अनुसार 'गनिमी युद्ध' जनता का मुक्ति-संग्राम है। 'गनिमी सैनिक' समाज-सुधारक भी होता है। नए समाज की रचना के लिए ही वह शस्त्र धारण करता है। 'गनिमी सैनिक' यदि समाज सुधारक है, तो 'गनिमी किसान' क्रांतिकारी है।
उपरोक्त क्रांतिकारियों ने 'गनिमी युद्ध' की प्रेरणा का अधिकतम श्रेय शिवाजी महाराज को दिया है। अनेक जगहों पर इन क्रांतिकारियों ने लिखा है कि छापामार युद्ध की प्रेरणा उन्हें शिवाजी महाराज से मिली। हम उनके ऋणी हैं।
शिवाजी महाराज की युद्ध कला आधुनिक युग में भी अनुकरणीय है। जैसा कि श्री मोहन धारिया ने 1 मई, 1978 के दिन वक्तव्य दिया था, “वियतनाम के राष्ट्रपति ‘हो ची मिन्ह’ जब भारत पधारे थे, तब उनसे चर्चा करते हुए मैंने कहा था कि वियतनाम की जनता ने अपनी लड़ाई जिस तरह लड़ी, उसे देखकर मुझे शिवाजी महाराज के 'गनिमी कावा' की याद आती रही, इस पर हो ची मिन्ह ने कबूल किया था कि जी हाँ! आपका मानना सही है। हमने अमेरिकी सरकार से लड़ते समय जिस तरह मोरचेबंदी की थी और जो युद्ध-नीति अपनाई थी, उसके लिए हमने शिवाजी राजे के युद्ध-तंत्र का अध्ययन किया था।”
—(महाराष्ट्र टाइम्स, 10 मई 1978 )


निस्संदेह भारतवर्ष के इतिहास को शिवाजी महाराज ने एक नई दिशा दी। उनका युद्ध-तंत्र केवल तत्कालीन न होकर सर्वकालीन एवं अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का है। उपरोक्त साक्ष्य के आधार पर शिवाजी के युद्ध-तंत्र का महत्त्व सिद्ध हो जाता है।


संदर्भ—
1. शककर्ते शिवराया / विजयराव देशमुख
2. शिवरायाची युद्ध-नीति / डॉ. सच्चिदानंद शेवड़े-दुर्गेश परुलकर
3. Shivaji : His Life and Times / G.B. Mehendale