शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 15 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 15

[ शिवाजी महाराज और डिप्लोमेसी ]

अनेक दिल दहला देने वाले रहस्य शिवाजी महाराज के जीवन में शामिल हैं। उन्होंने ‍शक्ति के अपेक्षा युक्ति को अधिक महत्व दिया और यही है उनकी सफलता का राज। आश्चर्य की बात यह थी कि तोरणा का किला वह पहला किला था, जो उन्होंने हासिल किया। इसके लिए उन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने तोरणा के किलेदार को केवल एक धन राशि दी और किला उनके ताबे में आ गया ! सचमुच यह आश्चर्य की बात थी।
पुरंदर के किले को भी हासिल करने के लिए उन्होंने केवल शत्रु पक्ष की आपसी फूट का लाभ उठाया। उस समय वे मात्र सोलह साल के थे।
अफजल खान से युद्ध निश्चित हो जाने के बाद भी शिवाजी ने उसकी झूठी प्रशंसा कर एक लुभावना पत्र उसे लिखा। उसमें उन्होंने अफजल खान की तेजस्विता की तुलना जगमगाते सूरज से की। अफजल खान उनकी बातों में आ गया और ऐसा फँसा कि जान ही गँवा बैठा !
सन् 1665 में मिर्जा राजा जयसिंह से मुलाकात के समय जो समझौता हुआ, उसमें सूरत की लूट का कहीं उल्लेख ही नहीं है! प्रत्यक्ष में शिवाजी ने जयसिंह को केवल 20 किले दिए, किंतु कागजात में लिखवा लिया 23 किले! यहाँ यह याद रखना होगा कि जयसिंह मुगल सल्तनत का खेला-खाया 55 साल का राजनीतिज्ञ था, जबकि शिवाजी थे। मात्र 35 साल के नवोदिता !
आगरा में आने पर औरंगजेब ने शिवाजी को मनसब एवं सिरोपाव (सम्मान) देने की पेशकश की, लेकिन शिवाजी ने अस्वीकार कर दिया। बादशाह की ऐसी तौहीन मुगल सल्तनत के 200 सालों में पहले कभी नहीं देखी गई थी। इससे नाराज मुगल दरबार ने बादशाह से माँग की कि शिवाजी को दंडित किया जाए। ऐसी माँग करने वालों में औरंगजेब की बहन जहाँआरा भी शामिल थी, क्योंकि सूरत की लूट से जहाँआरा का
अपना खुद का भारी नुकसान हुआ था। दरअसल, सूरत से जो कर आता था, उसी में से जहाँआरा को ‘पान-सुपारी का खर्च्’ मिलता था।
शिवाजी ने नम्र, मीठी भाषा एवं युक्ति लगाकर काम निकलवा लेने की महारत से वहाँ के सरदार जफर खान, मुहम्मद, अमीन। यहाँ तक कि खुद जहाँआरा बेगम से बैर छुड़वाकर सबको दोस्ती के धागों से बाँध लिया! इसका एक अपवाद था और वे थे
जसवंतसिंह।
शिवाजी ने सबको यकीन दिलाया कि उनका कोई कसूर है ही नहीं। उन्हें अभयदान भी मिला हुआ है। वे आगरा यूँ ही नहीं चले आए हैं, बल्कि खुद बादशाह का बुलावा मिलने पर आए हैं। इस नाते वे बादशाह के मेहमान हैं। इसके बावजूद बादशाह अपने अभयदान के वचन को तोड़कर उन्हें जान से मार डालना चाहते हैं। भला यह कहाँ का इनसाफ है। बार-बार ऐसा कहकर शिवाजी ने मुगल दरबार की सहानुभूति जीत ली। बेशक इसमें उन बेशकीमती भेंट वस्तुओं को शामिल रखना होगा, जो शिवाजी ने सबको किसी-न-किसी बहाने समर्पित की थीं !

जीनतुन्नीसा
जीनतुन्नीसा औरंगजेब की दूसरी बेटी थी। वह शिवाजी के साहसपूर्ण कार्यों से अवश्य प्रभावित हुई होगी। अफजल खान जैसे अनुभवी, साहसी व पराक्रमी अदिलशाही सेनापति की शिवाजी ने किस प्रकार फजीहत की, इत्यादि घटनाओं की चर्चा उसने जरूर सुनी होगी। इतना ही नहीं, महिलाओं की कितनी इज्जत शिवाजी करते हैं, इससे भी वह प्रभावित हुई होगी। कल्याण के सूबेदार की बहू की तुलना शिवाजी ने किस प्रकार अपनी माता से की और उंबरखिंडी की रायबागान नामक वीरांगना को किस प्रकार सम्मानित किया। यह सब जीनतुन्नीसा के कानों तक तो आया ही होगा।
शिवाजी जब आगरा में धोखा देकर कैद किए गए, तब वे 36 वर्ष के थे। जीनत थी 23 वर्ष कीी। उसका जन्म सन् 1643 का था। दोनों युवा थे। दोनों आमने-सामने कभी नहीं मिले थे। जब भेंट ही नहीं हुई, तो प्रेम भावना मुश्किल थी । प्रेम न सही, किंतु आदर की भावना जीनतुन्नीसा के मन में अवश्य अंकुरित हुई होगी।
दो बातें ऐसी हैं, जो जीनतुन्नीसा के मन में छिपे आदर का स्पष्ट संकेत देती हैं—
1. जीनतुन्नीसा ने कभी शादी नहीं की।
2. जीनतुन्नीसा इतनी गुणवान, सयानी और विवेकशील थी कि स्वयं औरंगजेब अपने राजकाज में उससे मशविरा किया करता था। जीनतुन्नीसा औरंगजेब को बेहद प्रिय थी। उतनी संवेदनशील जीनतुन्नीसा शिवाजी की ओर आदर से झुक सकती थी।

शिवाजी के अवसान के बाद औरंगजेब उनके स्वराज्य में दाखिल हुआ। उसने शिवाजी के बेटे संभाजी की हत्या भीषण क्रूरता से करवाई। फिर उसने रेणु अक्का (संभाजी की बहन), कमलजा (कन्या), येसूबाई (पत्नी), दुर्गाबाई (पत्नी) एवं बाल शाहू (संभाजी का पुत्र), इन सभी को कैद कर लिया। संभाजी के साथ औरंगजेब ने जो भीषण क्रूरता का बरताव किया, वैसी क्रूरता उसने अन्य कैदियों के साथ नहीं बरती। इसकी वजह यही समझ में आती है कि शिवाजी के आगरा में होने के दिनों में जीनतुन्नीसा के मन में उनके प्रति आदर जैसा कुछ तो थाााा । इसी को 'प्लटॉनिक लव' की ज्योति कहा गया है। यथासंभव जीनतुन्नीसा ने ही औरंगजेब को हिंसा का अतिरेक करने से रोका।
शिवाजी महाराज ने हिंदू सरदारों, जागीरदारों आदि से मित्रता करने की हमेशा कोशिश की, किंतु मुगलों के वफादार सेनापतियों दौलतराव मोरे, यशवंतराव मोरे, लखम सावंत, शृंगारपुर के सुर्वे आदि अनेक समकालीन योद्धाओं ने उन्हें साथ नहीं दिया। शिवाजी महाराज एवं बाजीराव को नए योद्धा तैयार करने पड़े। हिंदू सरदार जीवन भर आदिलशाही एवं मुगलों को सहयोग देते रहे। एक स्वतंत्र हिंदू राज्य, एक स्वराज्य की स्थापना उनकी नजरों के सामने हो रही थी, जिसका महत्त्व वे समझ ही न सके, क्योंकि उनकी आँखों के आगे स्वार्थ का परदा पड़ा हुआ था। उन्होंने तो बल्कि ईर्ष्या ही अनुभव की! शिवाजी जिस निष्ठा एवं ध्येय को लेकर चल रहे थे, उसका विशेष प्रभाव समकालीन हिंदू योद्धाओं पर नहीं पड़ सका।
किंतु युवा पीढ़ी ने निस्संदेह शिवाजी का साथ निभाया। स्वराज्य की कल्पना मात्र से मराठा युवा जोश से भर उठते थे। इसीलिए 1657 में अफजल खान को और 1665 में जयसिंह को मराठा युवाओं से कोई सहायता नहीं मिली। नतीजा सबके सामने था। औरंगजेब 3 लाख फौजियों को लेकर महाराष्ट्र में, 27 वर्षों तक लड़ता रहा, किंतु उसे जीत हासिल नहीं हो सकी !

जो योद्धा शिवाजी का साथ निभा रहे थे, वे उनके प्रति निष्ठावान तो थे, किंतु सभी को राज्य संचालन की बारीकियों का ज्ञान नहीं था। शिवाजी के मंत्री मंडल के लोग भी राजनीति में पूर्ण कुशल नहीं थे। अण्णाजी दत्तो ने शिवाजी को यह बात स्वीकार करने के लिए बाध्य किया कि राज्य का विस्तार करने के लिए शौर्य से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, व्यवस्थाएँ। इसलिए व्यवस्था का काम देखने वालों को सैनिकों से अधिक वेतन, सुविधाएँ तथा मान-सम्मान दिए जाएँ। व्यवस्था का काम देखने वालों को एक हिस्सा मिलता था और लड़ने वालों को तीन हिस्से।
सन् 1660 के बाद शिवाजी ने समय को पहचानकर पुर्तगीजों के साथ किया समझौता तोड़ा, मुगलों के साथ किए समझौते भी तोड़े, किंतु आदिलशाही एवं कुतुबशाही से स्वयं समझौते नहीं तोड़े। इसकी वजह यह थी कि शिवाजी मुगलों के विरुद्ध संगठन करना चाहते थे। इसी में शिवाजी की सुरक्षा थी, किंतु पुर्तगीजों एवं सिद्दी को समाप्त करने की उनकी जो योजना थी, डच एवं अंग्रेजों को सुरक्षा देने की उनकी जो योजना थी, आदिलशाही और कुतुबशाही की रक्षा की जो योजना उन्होंने प्रस्तावित की थी, उसे आदिलशाही ने रद्द कर दिया; भले ही इसके फलस्वरूप आदिलशाही स्वयं नष्ट हो गई !
कुतुबशाही ने शिवाजी महाराज से लड़ाई तो नहीं की, लेकिन इन सबकी सामूहिक रक्षा की जो योजना महाराज ने बनाई थी, उसे तहेदिल से तो कभी स्वीकार नहीं किया। औरंगजेब से समझौता करके आदिलशाही को परास्त करने एवं जीत का बँटवारा करने के लिए भी शिवाजी तैयार थे, मगर बात नहीं बनी। मुगल सुन्नी थे और आदिलशाह शिया थे, लिहाजा दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए थे।
शिवाजी के साथ समझौता करके ही इस देश से मुगल सत्ता को समाप्त किया जा सकता था, किंतु हिंदू सरदारों को यह सीधी-सरल बात भी समझ में नहीं आई। दूसरी ओर मुगल सत्ता को अच्छी तरह समझ में आ चुका था कि अगर शिवाजी की शक्ति समझौतों के कारण बढ़ती चली, तो मुगल सत्ता के नेस्तनाबूद होने की भी नौबत आ सकती थी। इसीलिए मुगल हर प्रकार की जोड़-तोड़ करते रहते थे, जिसका एक ही उद्देश्य होता थाा; शिवाजी का समझौता किसी के भी साथ न हो सके।


संदर्भ—
1. शिवराय / प्रा. नामदेवराव जाधव
2. श्रीमान योगी (प्रस्तावना) / नरहरि कुरुन्दकर
3. Shivaji and His Times / Jadunath Sarkar
4. A New History of India / Stanley Wolpert