शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 16 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 16

[ शिवाजी महाराज और संकटकालीन परिस्थितियाँ ]

बड़े-से-बड़े तनाव में भी जीवन-मृत्यु का युद्ध पूरी क्षमता के साथ लड़ सकने वाला यह वास्तविक योद्धा कहलाता है। शिवाजी हर अर्थ में वास्तविक योद्धा थे। अवसान के बाद भी वे मराठों को वास्तविक योद्धा बनने के लिए प्रेरित करते रहे।
शिवाजी का देह-विलय हुआ था 4 अप्रैल 1680 के दिन। उनके न रहने के बाद उन्होंने जिस मराठा साम्राज्य का निर्माण 30 वर्षों में किया था, उसी मराठा साम्राज्य ने स्वयं का अस्तित्व 30 वर्षों तक बनाए रखा एवं अपनी जिजीविषा की रक्षा की।
मुगलों और मराठों को यदि डारविन के विश्व विख्यात सिद्धांत ‘केवल सर्वश्रेष्ठ को ही जीने का अधिकार’ की कसौटी पर कसा जाए, तो निस्संदेह ये मराठे ही थे, जो बेहतर साबित हुए। उन्होंने ‘जियो और जीने दो’ के तत्त्व पर जीत हासिल की, ताकि शत्रु का नाश करने की क्षत्रियोचित क्षमता का अधिक से अधिक परिचय दे सकें। वैभव-संपन्न मुगल सत्ता की विशाल व्यवस्था जब समाप्त हो रही थी, तब मराठा सत्ता सफलता के ऊँचे शिखर की ओर बढ़ रही थी।
यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिवाजी इतने बलशाली नहीं थे कि शत्रु को खुले मैदान में खत्म कर सकें, सन् 1665 में पुरंदर के तह में शिवाजी ने बीस वर्ष में हासिल किए हुए 35 किलों में से 23 किले औरंगजेब को दिए और सिर्फ 12 किले अपने कब्जे में रखे, लेकिन 1666 में आगरा से लौटकर उन्होंने अगले 15 सालों में गँवाए हुए 35 किले वापस लिये। 1680 में जब उनकी मौत हुई, तब 350 किले उनके पास थे, उस अप्रतिम योद्धा शिवाजी की प्रशंसा किन शब्दों में की जाए।
अगर शब्द ही खोजने हैं, तो हमें इतिहासकार एम्वेन ऑरमे की शरण में जाना होगा, जिन्होंने शिवाजी की वंदना करते हुए कहा है—
“धैर्य न खोना, संकट पर फौरन काबू कर लेना और अपने हर कार्य को शीघ्रता से संपन्न करना। इन तीन गुणों में शिवाजी की बराबरी पर आ सकने वाले व्यक्ति बहुत कम थे। अपनी सेना के प्रमुख के रूप में इतने अधिक प्रयत्न किसी भी सेनापति ने कहीं नहीं किए होंगे। शिवाजी को बुरे से बुरे धोखे का मुकाबला करने के लिए उन्हें हर पल तैयार रहना पड़ता था। अकसर यह धोखा एकदम अचानक प्रकट होता, जो हालात को ऐसे उलट-पुलट देता कि बड़े से बड़ा शूरवीर भी विचलित हो जाए, किंतु शिवाजी कभी विचलित नहीं हुए, कभी क्षुब्ध या स्तब्ध नहीं हुए। उन्होंने धैर्य कभी नहीं खोया और हर संकट का पक्का हल निकाला।”
शिवाजी के कर्तव्य-परायण अधिकारियों ने उनकी अधीनता को खुशी से स्वीकारा। हाथ में ली हुई तेजस्वी तलवार उठाकर शिवाजी महाराज के सैनिकों ने उन्हें अपना प्रेरणा स्रोत बना लिया।
स्वयं शिवाजी महाराज ने अपने छोटे से जीवन काल में अनेक संकटों का सामना किया। इनमें प्रमुख हैं— अफजल खान के विरुद्ध संघर्ष, पन्हाला के किले का हाथ से निकल जाना, शाइस्ताखान पर आक्रमण एवं सबसे महत्त्वपूर्ण संकट आगरा में औरंगजेब द्वारा धोखे से कैद कर लिया जाना, जहाँ से शिवाजी ने अपने दल-बल समेत चमत्कार की तरह पलायन किया था।
सन् 1680 में अंग्रेजों ने लिखा है, ‘शिवाजी सीम्ड टू लीड अ चार्ल्ड लाइफ!’
मृत्यु से आमना-सामना शिवाजी ने अनेक बार किया। उनकी मौत हो जाने के समाचार जाने कितनी बार उड़े, किंतु हर बार वे सही-सलामत सामने आ खड़े हुए। मृत्यु के समाचार बार-बार उड़ने से ही शायद उनकी मृत्यु हमेशा टलती रही!
इतिहासकार ना. रानाडे लिखते हैं—
‘अपने चौंतीस वर्ष के कार्यकाल में शिवाजी ने जब भी किसी लड़ाई का नेतृत्व स्वयं किया, वे कभी नहीं हारे । तीव्र संकट में भी उन्होंने अपने धैर्य व साहस को बनाए रखा।’ नासिक के उत्तर में स्थित रामसेज को जब औरंगजेब ने घेरा, तब मराठों ने एक अनोखी युक्ति का सफल प्रयोग किया। सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं—
‘इस आक्रमण में भाग लेने वाले काफीखान ने जो कहा है, यदि वह सच माना जाए, तो किले में एक भी तोप नहीं थी। किलेदारों ने वृक्ष के तनों को भीतर से पोला करके उसमें से चमड़े के जलते हुए गोले फेंके और उन गोलों से दस सैनिक टुकड़ियों का काम तमाम किया! मराठों ने उस संकट में धैर्य नहीं छोड़ा, क्योंकि वे स्वतंत्रता के लिए एवं स्वराज्य प्राप्ति के ऊँचे उद्देश्य के लिए लड़ रहे थे।’