[ शिवाजी महाराज और जिनेवा सम्मेलन ]
सन 1864 से पहले युद्ध बंदियों के साथ बहुत निर्ममता का सलूक किया जाता था। इस पर नियंत्रण रखने के लिए स्विट्जरलैंड के शहर जिनेवा में संसार के प्रमुख देशों के सम्मेलन होने शुरू हुए, जो सन् 1864 से 1949 तक बार-बार होते रहे। वर्तमान में भी ये सम्मेलन उसी जिनेवा में समय-समय पर होते रहते हैं, जिनमें युद्ध के नियमों पर एवं उन नियमों को तोड़ने वालों पर मशविरा किया जाता है। जिनेवा सम्मेलनों में लिये गए अंतरराष्ट्रीय निर्णयों का कड़ाई से पालन किया और करवाया जाता है, ताकि युद्ध की विभीषिका कम हो। युद्धबंदियों के लिए एवं प्रजाजन के लिए भी।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो अनेक धार्मिक संस्थाओं ने युद्ध के दुष्परिणामों पर नियंत्रण रखने का प्रयास किया है। ‘महाभारत’ के युद्ध में भी पांडव एवं कौरव युद्ध के नियमों का अधिकतम पालन करने का प्रयास करते थे। (भीष्म पर्व- 1/26-34 )
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सैनिकों एवं नागरिकों के साथ जो निर्दयता बरती गई, उसकी वीभत्सता को बयान करने के लिए संसार की किसी भाषा में शब्द नहीं हैं। स्विट्जरलैंड के एक दानवीर व्यक्ति हेनरी ड्यूनैंट ने मानवता की इस कराह को सुना। उसने अपने धन, प्रभाव एवं प्रयासों से सन् 1864 में जिनेवा में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया, जिसमें विश्व के सभी प्रमुख देशों ने भाग लिया। सबकी सहमति से ‘रेड-क्रॉस’ सोसाइटी की रचना की गई, जिसके कर्मचारियों को अभयदान देते हुए यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे घायल सैनिकों एवं नागरिकों का मौके पर ही तत्काल प्राथमिक इलाज करें और फिर उन्हें अपनी एंबुलेंस में रखकर अस्पताल ले जाएँ। गुमशुदा सैनिकों व नागरिकों की खोज व पहचान का जिम्मा भी ‘रेड-क्रॉस’ ने सँभाल लिया।
यू ‘रेड-क्रॉस’ सोसाइटी और जिनेवा सम्मेलन साथ-साथ ही अस्तित्व में आए। सन् 1906-07 में जिनेवा सम्मेलन के नियमों में संशोधन किया गया। ये नियम अब केवल भूमि पर नहीं, बल्कि समुद्र पर भी लागू कर दिए गए।
1949 के चौथे अंतरराष्ट्रीय करार के बाद इन 5 संदर्भों की जिम्मेदारियों एवं सख्तियों को स्थिर कर लिया गया—
1. युद्ध में घायल एवं बीमार सैनिकों की परिस्थितियों में सुधार।
2. समुद्री युद्ध में निराश्रित एवं घायल सैनिकों का बचाव एवं उपचार।
3. युद्ध-बंदियों को उपयुक्त एवं पर्याप्त भोजन मिले। उनसे अत्यधिक मजदूरी न करवाई जाए, न ही अत्यधिक जोखिम के काम उन्हें दिए जाएँ। उन्हें पत्र-व्यवहार की अनुमति हो। उन्हें यातनाएँ न दी जाएँ।
4. सैनिकों के साथ-साथ असैनिकों एवं नागरिकों को भी सुरक्षा दी जाए।
5. शत्रु राष्ट्र के नागरिकों को सीमा पार न करवाना, उन्हें फिरौती के लिए बंदी बना लेना, सेना के लिए मजदूरी करवाना, उनकी संपत्ति को नुकसान पहुँचाना, सामूहिक दंड देना, बदला लेना, वंश, धर्म, लिंग, राष्ट्रीयता एवं राजनैतिक विचारों के आधार पर उनसे समान व्यवहार न करना, उन्हें कत्ल करना, वैद्यकीय प्रयोगों में उनका उपयोग करना आदि पर लगे प्रतिबंध का
पूरी तरह पालन किया और करवाया जाए।
इस करार में छापामार युद्ध के बंदियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार को भी निश्चित किया गया। छापामार सैनिक ने अपनी कारवाई अगर युद्ध के नियमों का पालन करते हुए की है, तभी उपरोक्त सुरक्षात्मक नियमों का लाभ उसे दिया जाए। छापामार युद्ध पारंपरिक युद्ध से बहुत भिन्न होने के कारण जिनेवा सम्मेलन में पारित नियमों को छापामारों पर लागू कैसे किया जाए; इसका उत्तर सहसा नहीं दिया जा सकता।
शिवाजी महाराज ने जिनेवा सम्मेलन की ही शैली में अनेक युद्ध संबंधी नियम बनाए थे, जिनका सिंहावलोकन हम आगे करेंगे—
सन् 1657 में कल्याण की मुहिम के कारण वहाँ के मुल्ला से महाराज की दुश्मनी हो गई। महाराज के सरदार आबाजी सोनदेव ने कल्याण पर एकाएक छापा मारा और जीत हासिल करके मुल्ला हयाती को बंदी बना लिया। मुल्ला के सभी किलों पर आबाजी ने अपना अधिकार कर लिया। इस विजय का समाचार सुनकर शिवाजी महाराज को अत्यंत प्रसन्नता हुई। वे स्वयं कल्याण गए। उन्होंने बंदी मुल्ला को कैद से छुड़ाकर उसे गौरवान्वित किया एवं उसे आदर के साथ बीजापुर रवाना किया।
आबाजी पंत ने इस लड़ाई में मुल्ला की बहू को कैद कर लिया था। शिवाजी महाराज के कल्याण आने पर आबाजी ने उन्हें बताया कि इस लड़ाई में एक अत्यंत सुंदर तरुणी मिली है, जिसे महाराज की सेवा के लिए आरक्षित रखा गया है।
शिवाजी ने आदेश दिया— “उसे सभा में लेकर आओ।”
तरुणी को सजा-धजाकर सभा में लाया गया।
शिवाजी उसे देखकर हँस पड़े और बोले— “अगर इसके जितना ही सौंदर्य हमारी माता में होता, तो हम भी ऐसे ही सुंदर होते!”
यह सुनकर सभा में उपस्थित हर व्यक्ति चकित रह गया। शिवाजी की ऐसी वृत्ति पर उन्हें आश्चर्य हो रहा था।
शिवाजी ने आबाजी सोनदेव से कहा— “जो यश प्राप्ति की आशा करता है, उसे परस्त्री की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए। राजा को भी परस्त्री को कभी नहीं अपनाना चाहिए। रावण जैसे बलशाली व्यक्ति का इसी वृत्ति के कारण सर्वनाश हुआ था। फिर हमारे जैसे व्यक्तियों की बात ही क्या है? प्रजा तो पुत्र के समान होती है।”
क्षण मात्र में सभी की समझ में आ गया कि महाराज हर स्त्री में माँ का ही स्वरूप देखते हैं। महाराज के इस कथन का सबके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। सबने अनुभव किया कि महाराज तो महापुरुष हैं। उनके हाथ से अनाचार कभी नहीं होगा। वे न स्वयं अनाचार करेंगे, न किसी को करने देंगे।
महाराज ने उस स्त्री को वस्त्र एवं अलंकार देकर सम्मान किया, फिर उसे बीजापुर भेज दिया, जहाँ उसके ससुर मुल्ला गए थे।
अनेक राजा सैनिकों को वेतन न देकर लूट में हिस्सा दिया करते थे। इस लालच में सैनिक अधिक-से-अधिक लूट मचाया करते। शिवाजी महाराज ने इस परंपरा को बंद करवाया। लूट का माल सैनिक हमेशा खजाने में जमा करवाते और उनका सुनिश्चित वेतन उन्हें समय पर दिया जाता। व्यर्थ की लूटपाट की प्रवृत्ति ही समाप्त हो गई। ऐशोआराम के लिए लूट करने की आदत सैनिकों में न रही।
महाराज अपनी सेना से अत्यंत प्रेम करते थे, किंतु उनका अनुशासन भी उतना ही कठोर था। आक्रमण करने निकले सैनिकों के प्रथम पड़ाव पर पहुँचते ही अधिकारी द्वारा सभी सैनिकों की कसकर जाँच की जाती। सैनिकों के पास की चीजों की सूची बनाई जाती। सेना के वापस आने पर फिर से सरहद पर हर सैनिक की जाँच होती। किसी ने चोरी से लूट का माल रखा होता, तो उसे कठोर दंड दिया जाता।
दूसरों के प्रदेश पर आक्रमण करते समय सैनिकों को कड़क सूचनाएँ दी जाती थीं। सेना में स्त्रियों, दासियों, नर्तकियों को साथ रखने की सख्त मनाही थी । यदि किसी ने गफलत में आकर कोई स्त्री साथ रख ली होती, तो उस सैनिक या कर्मचारी को वहीं-का-वहीं मार डाला जाता था।
कठोर आदेश था कि परप्रांत/ शत्रु के प्रांत से स्त्री, गाय या ब्राह्मण को कैद करके न लाया जाए। अकारण किसी को तकलीफ न दी जाए। आम जनता, गरीब, किसान, बच्चे, छोटे दुकानदार आदि को किसी भी तरह न सताया जाए। लूट का माल तुरंत सरकारी खजाने में जमा करवाया गया है या नहीं, इस पर अधिकारी स्वयं नजर रखते थे। शत्रु प्रदेश के धार्मिक स्थलों को क्षति न पहुँचे, इस पर भी उनका पूरा ध्यान रहता था।
शिवाजी की मुगलों से लड़ाई जारी थी। मुगलों से अपनी जनता की रक्षा वे कितनी सावधानी से करते थे, यह बात 23 अक्तूबर, 1662 के इस पत्र से उजागर होती है—
मराठी पत्र:
‘रा. सिवाजी राजे–सर्दाराउ जेथे देशमुखचा राहिरखोर तपियाम धावणीस, येताती म्हणौन जासूदानी समाचार आणिला आहे तरी तुम्हास धोखा अहडताच तुम्ही तमाम आपले तपियात बावचा गाव सारिदी करून माणसे लेकरेबाले समत (समे) तमाम रेयती लोकांस घाटारवाले बांक जागा असेल तेथे पाठवणे। ये कामास है गे न करणे रोखा अहडताचे सदरहू लिहिले प्रमाणे अमले करणे- ऐसियासी तुम्हा पासून अंतर पडलियावरी मोगल जे बांद धरून नेतील त्याचे पाप तुमचे माथा बैसेल । ऐसे समजोन गाव चा गाव हिंडोनु रातीचा दिवस करून लोकांची माणसे घाटा खाले जागा असेल तिथे पाठविणे, या
कामास एक घडीचा दिरंग न करणे तुम्ही आपले जागा हुशार असणे।’
सारांश यह है कि शत्रु के आने की खबर लगते ही शिवाजी महाराज सूचना देते हैं कि तमाम प्रजा को सुरक्षित जगहों पर पहुँचाया जाए। प्रजा की सुरक्षा की संपूर्ण व्यवस्था की जाए। यदि मुगलों ने किसी को बंदी बना लिया, तो तुम उस पाप के भागीदार होगे। समूचे गाँव को ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र में सुरक्षित पहुँचाया जाए। शत्रु दिखाई देने पर उसकी नजर बचाकर ये लोग वहाँ से भाग जाएँ। तुम अपनी जगह पर सावधान रहना। इस काम में किसी प्रकार की लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
शिवाजी के सामने भारत पर इसलामी आक्रमण का रक्तरंजित इतिहास था। हिंदुओं की हत्याओं और मंदिरों के विध्वंस से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। शिवाजी उसे एक पल के लिए भी नहीं भूलते थे। इसीलिए उन्होंने हिंदुत्व का विध्वंस करने वालों का विध्वंस करने के लिए फौज का निर्माण किया, लड़ाइयाँ लड़ीं और दुश्मन को हराकर स्वराज्य, यानी अपने लोगों का राज्य स्थापित किया।
किंतु स्वराज्य की स्थापना करते समय शिवाजी ने शत्रु की धार्मिक भावनाओं को कभी ठेस नहीं पहुँचाई, न ही उन्होंने शत्रु की हत्याएँ कीं अथवा उनके प्रार्थना स्थलों को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाई। यदि उन्होंने ऐसा किया होता, तो यह भूतकाल के बर्बर इतिहास का पुनरावर्तन ही होता।
शिवाजी तो इतिहास बदलने वाले राजा थे। इतिहास के प्रवाह में न बहकर उन्होंने अपने धर्म के साथ-साथ दूसरों के भी धर्म की रक्षा की। इस अच्छी परंपरा का निर्माण करके उन्होंने सिद्ध कर दिया कि धार्मिक उन्माद से कभी कोई राष्ट्र बड़ा नहीं होता। भविष्य की अनेक पीढ़ियों को उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण संदेश दिया। शिवाजी महाराज के इस अलौकिक कार्य को न केवल अपनों ने, बल्कि परायों ने, यानी शत्रुओं ने भी सराहा। औरंगजेब का चरित्र लिखने वाला खाफीखान महाराज का कट्टर शत्रु था, किंतु उसने भी अपने ग्रंथ में लिखा है—
“शिवाजी ने कठोर नियम बनाया था कि आक्रमण के समय सैनिक मसजिद या कुरान (पवित्र ग्रंथ) का सम्मान रखें, इन्हें किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचाएँ । यदि किसी को कुरान की प्रति हाथ लगे, तो उसे वह सम्मान के साथ किसी मुसलमान को सौंप दे।”
यदि किसी हिंदू इतिहासकार ने इस प्रकार शिवाजी का गुणगान किया होता, तो बात कुछ और होती, लेकिन यहाँ तो महाराज के कट्टर शत्रु ने माना है कि उनके विचार कितने ऊँचे थे। यह बात सचमुच एक अपवाद ही कही जाएगी।
युद्ध के दौरान मराठा अधिकारियों एवं सैनिकों का व्यवहार कैसा होना चाहिए, इसे लेकर शिवाजी महाराज ने उन्हें समय-समय पर जो पत्र लिखे थे, उन्हें ‘शिवकालीन जिनेवा सम्मेलन’ के समकक्ष निश्चित रूप से रखा जा सकता है।
मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ मंदिर का जो विध्वंस किया।औरंगजेब ने मथुरा के केशवराय मंदिर का जो विध्वंस किया अथवा मुसलिम आक्रमणकारियों ने हिंदुओं पर जो अत्याचार किए, शिवाजी इन सबसे परिचित थे। मुसलिम शासकों का बरताव हमेशा भड़काने वाला ही रहा, किंतु शिवाजी ने कभी अपना संतुलन नहीं खोया। इतना ही नहीं। अफजल खान जैसे शत्रु का वध करने के बाद उन्होंने उसे पूरा सम्मान देते हुए दफन करवाया।
सूरत प्रकरण में शिवाजी पर प्राणघातक हमला होने पर भी उन्होंने उच्च कोटि का संयम बनाए रखा, किंतु नादिरशाह पर ऐसा ही प्रसंग आने पर उसने जिस क्रूरता का प्रदर्शन किया, यह हम जान चुके हैं।
शिवाजी महाराज ने चिपलून के जमींदार, हवलदार एवं कारकूनों के नाम जो पत्र लिखा था, क्या वह उस समय का जिनेवा सम्मेलन द्वारा पारित प्रस्ताव ही नहीं था ?
मराठी पत्र का सारांश
शिवाजी ने अपने मातहतों, हवालदारों और कारकूनों को सावधानी बरतने की सलाह दी है। यह सलाह दरशाती है कि राज्य के कल्याण की दृष्टि से उनकी निरीक्षण शक्ति कितनी सूक्ष्म है। जैसा कि उन्होंने आगाह किया है, ‘बरसात के दौरान उपयोग के लिए जो सामग्री है (खानपान की वस्तुएँ एवं घोड़ों के लिए अन्न के दाने), उसे सँभालकर रखा जाए। कहीं ये चीजें समाप्त न हो जाएँ। ऐसा हुआ तो संकट उपस्थित हो जाएगा। इसीलिए जब तक अन्न व दूसरी वस्तुएँ उपलब्ध हैं, उनके अनावश्यक उपयोग से बचें। बरसात में अन्न कम पड़ गया, तो घोड़े भूखे मर सकते हैं। तब इसका जिम्मेदार तुम्हीं को माना जाएगा।
‘लोग कुनबियों को तंग करने लगेंगे, ताकि उनसे अन्न, रोटी, घास, सब्जी-भाजी आदि जबरदस्ती सस्ते में खरीद सकें; ये चीजें लोग उनसे छीन ही लेंगे। इससे डरकर कुनबी बाजार में आएँगे ही नहीं। लोग भूखों मरने लगेंगे और तुम्हें मुगलों से भी ज्यादा जुल्मी समझेंगे। ऐसी बदनामी कदापि नहीं होनी चाहिए। तुम राज्य के सिपाही हो, चाहे कोई अधिकारी हो। तुम्हें देखना होगा कि प्रजा को कोई तकलीफ न हो। बाजार जाकर सरकारी खजाने से जो सामान, अनाज के दाने, घास, घर-गृहस्थी का सामान इत्यादि जो खरीदना हो, खरीदें। जो सब्जी-भाजी बेचते हैं, उनसे सब्जी-भाजी खरीदें। धन-धान्य जहाँ बिक रहा हो, वहाँ से वाजिब दाम देकर खरीदें। सस्ते में दे देने या मुफ्त में दे देने के लिए किसी पर जबरदस्ती न करें। बरसात में धन-धान्य की सुरक्षा को लेकर विशेष सावधान रहें, ताकि घोड़ों को बिना किसी परेशानी के पाला जा सके।
‘कारकून जो दें, उसे स्वीकार करें। किसी प्रकार की छीना-झपटी न हो। टीका-टिप्पणी नहीं। लूटपाट नहीं। घोड़ों के तबेले सुरक्षित रखे जाएँ । गलत जगह पर भोजन न पकाएँ। घर में कोई दीया अथवा चूल्हा जलता हुआ छोड़कर इधर-उधर न चले जाएँ, क्योंकि इससे आग लग जाने का खतरा रहता है। बरसात में बरसात से बचें। गरमी में गरमी से बचें। न केवल अपनी, बल्कि सभी की सुरक्षा का ध्यान रखें। खास-खास हवालदारों, कारकूनों को यह सब ध्यान में रखना है। रोज की खबर रोज एकत्र करें।
बदनामी किसी प्रकार न हो। मराठों की प्रतिष्ठा की रक्षा हो । धन-धान्य सुरक्षित होगा, तभी रोजगार मिलेगा। इन सब बातों को ध्यान में रखकर सुरक्षित व्यवहार करें।
संदर्भ—
1. शिवाजी कोण होता? / गोविंद पानसरे
2. शककर्ते शिवराय / वियजराव देशमुख
3. शिवकाल / डॉ. विगो. खोबरेकर
4. छत्रपति शिवाजी महाराज / कृ.अ. केलूसकर
5. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधवराव पगड़ी
6. शिव चरित्रापासून आम्ही काय शिकावे ? / डॉ. जयसिंहराव पवार
7. Shivaji: His Life and Times/Gajanan Bhaskar Mehendale