शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 12 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 12

[ शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक एवं मैग्नाकार्टा ]


शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। मुगल सत्ता के दौरान ‘हिंदुस्तान का मुगल साम्राज्य’ यानी ‘हिंदुस्तान की सरकार’ ऐसा समीकरण मुगल तो करते ही थे, स्वयं भारतवासी भी करते थे।

जब भी कोई अंतरराष्ट्रीय करार मुगलों से होता, यही समझा जाता कि करार हिंदुस्तान के साथ हुआ है। 'महान् मुगल' (द ग्रेट मुगल), 'मुगल सम्राट्' (द एंपरर ऑफ इंडिया) अथवा 'हिंदुस्तान का सम्राट्' (द इंडियन एंपरर) जैसे शब्द अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों में खुलकर प्रयोग में लाए जाते थे।
बीजापुर और गोलकुंडा दो स्वतंत्र राज्य थे। राजपूत राज्यों की स्थिति ऐसी निम्नतर हो चुकी थी कि केवल जागीरदारी या जमींदारी के स्वरूप में रह गई थी। ‘हम लोग पैतृक परंपरा से रह रहे हैं’ ऐसा कहकर कोई राजा गद्दी प्राप्त नहीं कर सकता था। किसी राजा की मृत्यु होने पर उसके उत्तराधिकारी को मुगल सम्राट् से नियमानुसार स्वीकृति लेनी पड़ती थी। राजा की मृत्यु होते ही अपने आप उसका राज्य मुगल सम्राट् के राज्य में मिल जाता था। वही राज्य जब उत्तराधिकारी को दिया जाता, तब वह वंश परंपरा से दिया हुआ नहीं, बल्कि नए सिरे से दिया हुआ होता था। इस प्रकार राज्य पर किसी का पैतृक अधिकार नहीं होता था। राज्य मुगलों की मेहरबानी का फल है, यह जानकारी हर राजा को हुआ करती।
उत्तराधिकारी को गद्दी मिलने पर राजा की नियुक्ति किसी मनसब पर की जाती थी। मनसब यानी मुगलों की नौकरी । राजा को जरूरत पड़ने पर राज्य से बाहर, साम्राज्य में कहीं भी नौकरी करनी पड़ सकती थी। उनकी बदली भी की जाती थी।
राजपूत राजा की बदली कभी किसी किलेदार, कभी थानेदार, कभी सेनापति के रूप में की जाती थी। यह केवल अपवाद ही था कि मानसिंह ने उड़ीसा को जीता और बंगाल को अधिकार में ले लिया। जयसिंह ने शिवाजी और बीजापुर के विरुद्ध मुहिम का नेतृत्व किया। जयवंत सिंह गुजरात का सूबेदार हुआ। इन गिने-चुने व्यक्तियों को बेशक महत्त्वपूर्ण पद मिले, किंतु औसत दृश्य तो यही था कि राजपूत राजाओं को साधारण नौकरियाँ ही मिला करती थीं।
राजा तो मुसलमान ही होता है। उस समय ऐसा समझा जाता था। दिल्ली पति को भारत का स्वयंभू सम्राट् माना जाता था। इसलिए बहमनी घराना वैभवशाली होते हुए भी जनता एवं स्वयं बहमनी वजीरों को लगता था कि उनका सम्राट् तो दिल्ली पति ही है और दिल्ली पति का भी अधिपति है ईरान का खलीफा। भारत का स्वामित्व मिलने पर भी इस स्वामित्व को ईरान से मान्य करवाना अलाउद्दीन को ठीक लगा। औरंगजेब के समय खलीफा तुर्की था। उसकी मान्यता प्राप्त करने की कोशिश आलमगीर ने की, जो सफल रही। आलमगीर के स्वामित्व को मान्यता मिलने पर उसने आनंदोत्सव मनाया। कुतुबशाही राजा व सरदारों को भी अपनी बादशाही का सम्राट् दिल्ली पति है, ऐसा लगता था। शिवाजी के समय में अनेक राजपूत राजा हुए। दिल्ली पति की ओर से उन्हें तख्तनशीनी बख्शी जाती थी। मंच का आरोहण होता था। राज्याभिषेक नहीं होता था। विजयनगर का साम्राज्य स्थापित हुआ। वैभव की कमी नहीं थी, किंतु वैदिक विधिपूर्वक राज्याभिषेक नहीं हुआ। सन् 1000 के बाद तो वैदिक विधि ही समाप्त हो गई।

महाराष्ट्र के क्षत्रिय ‘मराठा’ कहलाते थे। उनके 96 घराने थे। इन घरानों के लोगों को ‘96 कुलीन मराठा’ कहते थे। ये ‘96 कुलीन मराठा’ शिवाजी के साथ कैसा बरताव करते थे, इसकी एक कहानी है। 1656 में जावली के मोरे बीजापुरशाही के एक सरदार थे। उन्हें राजा कहा जाता था। उन्हें चंद्रराव की पदवी दी गई थी। जावली के मोरे को अपने स्वराज्य संग्राम में शामिल करने के लिए शिवाजी ने अनेक प्रयत्न किए। पत्र भेजे। दूत भेजे। पत्र के माध्यम से स्पष्ट संकेत करते हुए कहा कि अगर तुम नहीं सुनोगे, तो जावली पर कब्जा कर तुम्हें कैद कर लेंगे।

इस पत्र में शिवाजी ने स्वयं को राजा कहा था। जावली के चंद्रराव मोरे ने पत्र का उत्तर देते हुए अत्यंत उद्दंडता दिखाई। अपने उत्तर में मोरे ने कहा, “तुम राजा कैसे, तुम तो स्वयं ही स्वयं को राजा कहते हो! अरे, तुम कैसे राजा, तुम भोजन तो करते ही होगे, हाथ धोने के लिए जावली क्यों नहीं आते? हो जाने दो युद्ध हमारे बीच!”
शिवाजी ने चंद्रराव मोरे की इच्छा पूर्ण की। युद्ध किया और जावली पर जीत भी हासिल की। जावली के राजा स्वयं को राजा कहते थे, किंतु शिवाजी को राजा मानने को तैयार नहीं थे। यह महत्त्वपूर्ण बात है।
जो विचार चंद्रराव मोरे के थे, वही राँझे के पाटील के थे। सन् 1645 मे एक सामान्य कुणबी (खेत मजदूर) परिवार की पुत्री से पाटील ने दुर्व्यवहार किया। पाटील को बाँधकर शिवाजी के सामने लाया गया। शिवाजी ने उसे दंडित किया। इस पर पाटील ने भरी सभा में कहा, “मेरा न्याय पंत गोतमुख करें।” मराठी में “पंत (ब्राह्मण), गोतमुखाने न्याय व्हावा।” यानी “मैंने गलत किया है या नहीं, इसका निर्णय तो उचित पद पर आसीन कोई ब्राह्मण ही कर सकता है। कोई ऐरा-गैरा नहीं!”
पाटील का आशय स्पष्ट ही था कि न्याय करने का अधिकार केवल राजा, उच्च वर्ण के लोग, ब्राह्मण या जात पंचायत का है। पाटील की मान्यता थी कि शिवाजी राजा नहीं, उच्च वर्ण के भी नहीं उन्हें किसी को दंडित करने का अधिकार ही नहीं है! पाटील की यह बात धर्म-शास्त्र के अनुसार पूर्णतया सही थी।
एक बार शिवाजी के यहाँ एक आयोजन किया गया, जिसमें सभी महत्त्वपूर्ण लोग एवं सरदार आमंत्रित थे। सबके लिए भोजन समारंभ की व्यवस्था थी। व्यवस्थापक ने शिवाजी के लिए बीच में चौरंग रखा और गद्दी डाली। चौरंग यानी ऊँचा आसन। उसके दोनों तरफ मोहिते, महाडिक, शिरके, निंबालकर, घाडगे, जाधव इत्यादि सरदार बैठे हुए थे। शिवाजी का ऊँचा आसन देखकर वे कहने लगे, “शिवाजी को यह विशेष दरजा कहाँ से मिला, वे हम से बड़े कैसे हो सकते हैं? हम तो यवन बादशाह के पुराने नौकर हैं। चार-पाँच सौ वर्ष पहले के सरदार हैं। शिवाजी की ऐसी प्रतिष्ठा हम नहीं सहेंगे। आप स्वयं विचार करें। हमारे कथन में अयोग्य जैसा कुछ हो, तो बताएँ ।”
इससे शिवाजी के सामने स्पष्ट हो गया कि उनके अपने सरदार भी उन्हें मान्यता नहीं दे रहे, क्योंकि उनका राज्याभिषेक नहीं हुआ है। वे सत्ताधीश तो हैं, किंतु अभिषिक्त नहीं हैं।

रायगढ़ में राज्याभिषेक:
राज्याभिषेक हर किसी का नहीं हो सकता। इसकी एक शास्त्रीय पद्धति होती है। उसके पूर्ण अनुसरण के साथ अभिषेक किया जाए, तभी वह मान्य होता है। शास्त्रसम्मत पद्धति पर विशिष्ट लोगों से मंतव्य पूछे गए। मूलभूत शर्त यह सामने आई कि जिसका जनेऊ (पतबंध) हुआ हो, केवल उसी का शास्त्रसम्मत राज्याभिषेक हो सकता है।
शिवाजी का जनेऊ नहीं हुआ था। पंडितों के अनुसार उनकी गणना शूद्रों में ही की जा सकती थी! उन्हें शास्त्रसम्मत सत्ताधीश घोषित करना असंभव था! शिवाजी 46 वर्ष के हो चुके थे। उनके कई विवाह हुए थे, जिनसे उन्हें संतानें भी थीं। इस स्थिति में और इस उम्र में उनके जनेऊ संस्कार (पतबंध) को शास्त्रसम्मत मान्यता भला कैसे दे दी जाती!
तब बालाजी आवजी चिटणिस ने शिवाजी को सुझाव दिया कि वह काशी के महापंडित गागा भट्ट से राय लें। उन्होंने सभी वेदों का गहन अध्ययन किया है। शास्त्रों एवं स्मृतियों का विशेष अध्ययन कर उन्होंने अत्यधिक सम्मान प्राप्त किया है। उनका कहा सब मानते हैं। बड़े-बड़े पंडित भी उनके वचन को टाल नहीं सकते। उन्हीं से विचार-विमर्श किया जाए।
शिवाजी ने अपने सरदारों, पंडितों एवं अन्य सम्मानित महानुभावों की सभा बुलाकर उसमें सम्मिलित होने का आमंत्रण काशी के गागा भट्ट को एवं पैठण के भी पंडितों को प्रेषित किया। राज्याभिषेक के औचित्य-अनौचित्य का प्रश्न इस भरी सभा में पूरी गरिमा के साथ उठाया गया। गागा भट्ट ने सभी पंडितों एवं बुद्धिजीवियों के साथ विचार-विमर्श करने के उपरांत अपना मंतव्य इस प्रकार दिया—
“शिवाजी का जन्म सिसौदिया राजवंश में हुआ है। इस नाते वे मूल रूप से क्षत्रिय हैं। उनके पूर्वज नर्मदा नदी के इस पार आकर स्वयं को मराठे कहने लगे। उन्होंने क्षत्रियों के अनेक रीति-रिवाज त्याग दिए, जिनमें पतबंध अर्थात् जनेऊ सम्मिलित था। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिवाजी का क्षत्रियत्व नष्ट हो गया। उदयपुर, जयपुर आदि में जिस प्रकार राजपूत राजा का पतबंध पहले करवाकर फिर राज्याभिषेक किया जाता है, उसी प्रकार शिवाजी का भी पतबंध पहले करके फिर राज्याभिषेक हो सकता है। इसमें शास्त्र की कोई रुकावट नहीं है। उदयपुर के कुल में इनका छत्र सिंहासन का अधिकार आज भी बना हुआ है। फिर हमारे प्रतिरोध का क्या अर्थ है!
“रहा यह प्रश्न कि शिवाजी की आयु बड़ी है एवं एकाधिक विवाहों से उन्हें संतानें भी हैं। तो ऐसे में उनका पतबंध कैसे हो? यहाँ हम आपातकालीन धर्म का सहारा ले सकते हैं। पतबंध तो होना ही है, क्योंकि वह राज्याभिषेक का अनिवार्य अंग है। आपातकालीन धर्म कहता है कि इस संस्कार को मुख्य विधि के रूप में अवश्य किया जा सकता है।”
गागा भट्ट का यह निर्णय पैठण एवं महाराष्ट्र के पंडितों ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। शिवाजी का पतबंध करने के उपरांत राज्याभिषेक संपन्न कर लिया जाए, ऐसा सुनिश्चित हो गया।
शिवाजी ने इस समारंभ की तैयारी राष्ट्रीय महोत्सव के रूप में की। उन्होंने सन् 1674 के मई महीने में चिपलूण जाकर सेना का निरीक्षण किया। फिर परशुराम के मंदिर में जाकर पूजा की। वे 11 मई को रायगढ़ आए, जहाँ उन्होंने हेबीरराव मोहिते को सरनौबती दी। प्रतापगढ़ जाकर उन्होंने तुलजा भवानी के दर्शन किए एवं देवी को सुवर्ण छत्र अर्पित किया। उसका मूल्य लगभग 56,000 रुपए था।
इसके बाद रायगढ़ आने पर ज्येष्ठ सुदी 4 (29 मई, 1674) को शिवाजी की मुंज (जनेऊ संस्कार) हुई। बाद में षष्ठी तिथि को मंत्र सहित विवाह हुआ। लुप्त (बाधित) विधि के संदर्भ में प्रायश्चित्त, पुण्याहवाचन, होम, शांति आदि विधियाँ संपन्न हुईं। ब्राह्मण-भोज अनवरत चलता रहा। शक संवत् 1596 आनंद, संवत्सर ज्येष्ठ शु. 12 शुक्रवार (6 जून, 1674) के दिन, जब रात्रि के तीन प्रहर शेष थे, शिवाजी को सिंहासन पर आसीन किया गया।
ऐसा उल्लेख ‘जेधे शतकावली’ में है।
कुलगुरु प्रभाकर पुत्र बालभट गृह कार्यों की देख-रेख में जुटा हुआ था। स्वर्ण एवं दूसरे पदार्थों से शिवाजी को तौला गया। वह सब दान कर दिया गया। शिवाजी का वजन 16,000 होन यानी करीब 140 पौंड था। उनका वजन 150 पौंड होने का भी उल्लेख मिलता है।
मंगल स्नान करके, वस्त्र आभूषण धारण कर शुभ मुहूर्त में शिवाजी ने सिंहासनारोहण किया। चारों तरफ अष्ट प्रधान अपने-अपने राजचिह्नों सहित आठों दिशाओं में विराजमान हुए। समारोह में भाग ले रहे कोशशाला के अधिकारीगण, सेना अधिकारी, मांडलिक आदि अपने सुनिश्चित स्थानों पर खड़े थे। सिंहासन पर आसीन होने के बाद शिवाजी पर ब्राह्मणों ने मंत्रोच्चार करते हुए अक्षत एवं स्वर्ण तथा चाँदी के पुष्पों की वृष्टि की। सभी दिशाओं में तोपों की गर्जना की गई। ब्राह्मणों को दक्षिणा दी गई। गागा भट्ट को दक्षिणा में एक लाख रुपए एवं बहुमूल्य वस्त्र देकर सम्मानित किया गया, किंतु जमीन अथवा कोई अन्य पुरस्कार नहीं दिया गया। मंत्रोच्चार करने वालों को
पाँच-पाँच हजार रुपए तथा पुरोहित को चौबीस हजार रुपए दक्षिणा स्वरूप मिले। अन्य लोगों को उनकी योग्यतानुसार एक हजार पाँच सौ, दो सौ ऐसी राशि से पुरस्कृत किया गया। पच्चीस रुपयों से कम की राशि किसी को नहीं दी गई। इसी प्रकार गोसाईं, तापसी व गरीबों को भी योग्य सम्मान दिया गया।
सिंहासन पर बैठने के बाद सुबह लगभग आठ बजे शिवाजी महाराज ने अंग्रेज वकील 'हेनरी ऑक्सजैंडन' को बुलाकर उससे मुलाकात की। महाराज के साथ उनका परामर्शदाता नारायण शेणवी था। अंग्रेजों ने इस अवसर की खुशी में एक अंगूठी, एक विलायती कुरसी, एक हीरे-जड़ित सिर का वस्त्र, दो हीरे-जड़ित हाथों के कड़े व तीन मोती शिवाजी को उपहार में दिए। दरबार के अन्य लोगों को लगभग तीन हजार रुपये जितने मूल्य की विविध वस्तुएँ भेंट कीं। उन्हें महाराज ने अपनी ओर से भी आकर्षक पोशाकें भेंट में दीं।
दरबार समाप्त होने के बाद शिवाजी हाथी पर सवार होकर देवदर्शन को गए और वापस आए। सिंहासनारोहण के समारंभ का खर्च लगभग चौथाई लाख रुपए हुआ, ऐसा एक सभासद ने लिखा है। यह खर्च 50 लाख रुपयों से अधिक नहीं रहा होगा, ऐसा अनुमान विख्यात इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लगाया है। पुत्र का ऐसा अप्रतिम भाग्य देखकर मातुश्री जीजाबाई कृतकृत्य हो गईं एवं 12 दिन बाद 17 जून, 1674 को पाचाड़
में दिवंगत हुई।
अपने नए राज्य की स्थापना की स्मृति एवं प्रसन्नता में शिवाजी महाराज ने ‘राज्याभिषेक शक’ की स्वतंत्र कालगणना प्रारंभ की। ‘क्षत्रिय कुलावतंस, सिंहासनाधीश्वर महाराज छत्रपति’ की उपाधि धारण करते हुए उन्होंने अपना राज्याभिषेक संपन्न होने की घोषणा की। कालगणना प्रारंभ करने वाला हजार वर्षों में कोई एक ही होता है, ऐसी धारणा है। प्रत्यक्ष में शिवाजी अपने कार्यों का मूल्यांकन किस प्रकार करते थे, यह इसी से स्पष्ट हो जाता है।
मुसलमानों के शासन में फारसी व उर्दू भाषाओं का प्रचार हुआ था। इसे स्थगित कर प्राचीन भारतीय रीति-रिवाज एवं भाषा का प्रयोग करने का आदेश शिवाजी महाराज ने जारी कर दिया। राज-व्यवहार कोश के माध्यम से उन्होंने संस्कृत के शब्द प्रचारित किए। यह ग्रंथ रघुनाथपंत हनमंत ने कर्नाटक में धुंडिराज लक्ष्मण व्यास पंडित से बनवाया और कर्नाटक के आक्रमण के समय शिवाजी को समर्पित किया। दरबार की कार्य-पद्धति के नियम बनाने के लिए शासन एवं न्याय से जुड़े शब्द एवं वाक्य-विन्यास शिवाजी ने सुनिश्चित किए। इससे अधिकारियों द्वारा पालन किए जाते नियमों एवं लेखन की महत्त्वपूर्ण बातों के साथ व्यवहार आदि की समीक्षा करना संभव हो गया।

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का समाचार पाकर देश की हिंदू जनता फूली नहीं समाई। यहाँ तक कि बीजापुर, गोलकुंडा के राजकर्ताओं को भी इस बात का दुःख नहीं हुआ, बल्कि उन्हें औरंगजेब की राज्य-तृष्णा का प्रतिकार करने का संबल शिवाजी के रूप में हासिल हो गया। इस माहौल में बस एक ही व्यक्ति था, जो दुःखी था और वह था औरंगजेब! “शिवाजी को स्वतंत्र राज्य स्थापित न करने दिया जाए। उसके राज्याभिषेक समारोह में चारों ओर से विघ्न डालकर परेशान किया जाए।” ये आदेश औरंगजेब ने बार-बार अपने सिपहसालार बहादुरखान को दिए थे, लेकिन शिवाजी महाराज ने अपनी सुरक्षा का इंतजाम ऐसा चाक-चौबंद रखा था कि बहादुर खान उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। शिवाजी महाराज ने सरहदों को कुछ ऐसी सख्ती से बंद कर दिया था कि बहादुरखान कोंकण में प्रवेश ही नहीं कर सका था।

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की खबर जब औरंगजेब को पता चली, तब वह इतना व्याकुल हुआ कि तख्त से उतर पड़ा और बोला “अल्लाह ने हमारे तख्त का सर्वनाश किया है। मुसलमानों का राज्य छीनकर मराठों को ही दे दिया?”
वह दो दिन तक अपने तख्त पर बैठा ही नहीं। उसने कुछ भी खाने-पीने से इनकार कर दिया। उसके वजीरों ने बहुत मिन्नतें कीं और शिवाजी को खत्म करने के वादे किए। तब कहीं औरंगजेब जनानखाने से बाहर निकला और तख्त पर बैठा।
ऐसा भी नहीं था कि समाज के सभी पक्षों ने शिवाजी के राज्याभिषेक समारोह की सराहना की। कुछ का यहाँ तक कहना था कि कलियुग में क्षत्रियों का अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे में शिवाजी भला कैसे क्षत्रिय हो गए! अनेक ब्राह्मण एवं मराठे यह कहकर आलोचना कर रहे थे कि जब शिवाजी क्षत्रिय हैं ही नहीं, तब उन्हें वेदमंत्रों द्वारा धार्मिक कार्य करने का अधिकार कैसे मिल गया। शिवाजी ने अपनी सत्ता और अर्थ-शक्ति का प्रयोग कर ऐसे अधिकांश लोगों को अपने पक्ष में खींच लिया, किंतु फिर भी गागा भट्ट को दोष देने वालों के मुँह बंद करना असंभव था।
निश्चलपुरी नामक एक विद्वान् गोसावी तांत्रिक था। उसने गागा भट्ट की निंदा करके शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक को निरर्थक बताया और कहा “यह आचरण पाप का है। इसके दुष्परिणाम भुगतने ही पड़ेंगे।”
उसने याद दिलाया कि गागा भट्ट के कदम महाराष्ट्र में पड़ते ही शिवाजी महाराज की सातवीं पत्नी काशीबाई का अवसान हो गया (20 मार्च, 1674 ), सेनापति प्रतापराव गूजर एक छोटी लड़ाई में ही शहीद हो गए ( 24 फरवरी, 1674 ), राज्याभिषेक की विधियाँ चालू थीं तब भी कई अशुभ घटनाएँ हुईं। जैसे कि गागा भट्ट और उनके सहायक बालम भट्ट के नाक और सिर पर लकड़ी के वजनदार फूल गिरे। जब महाराज रथ के सिंहासन पर बैठकर जगदीश्वर मंदिर के दर्शन करने निकले, तब अचानक रथ की धुरी टूट गई। तब महाराज को हाथी पर आरूढ़ होकर जाना पड़ा।
निश्चलपुरी गोसावी ने आगे कहा “क्षमा करें, महाराज! तेरहवें और बाईसवें दिन और भी हैं, जो अशुभ हैं।”
सचमुच यही हुआ।
तेरहवें दिन राजमाता जीजाबाई का अवसान हो गया। बाईसवें दिन शिवाजी महाराज के अत्यंत प्रिय एक मशहूर हाथी की रायगढ़ में मौत हो गई, साथ में कुछ और भी घटनाएँ ऐसी घटीं, जो निश्चलपुरी गोसावी की भविष्यवाणी के अनुसार थीं। इससे विरोधियों का स्वर और भी उग्र हो गया।
अंततः शिवाजी महाराज ने विरोधियों को शांत करने के लिए एक और संक्षिप्त राज्याभिषेक समारोह आयोजित किया, जो निश्चलपुरी गोसावी के हाथों संचालित हुआ। इस द्वितीय राज्याभिषेक की तिथि थी शक संवत् 1596 के आश्विन शुक्ल पक्ष में ललिता पंचमी का दिन (24 सितंबर, 1674)।
इस समारोह का विशद् वर्णन ‘शिवराज्याभिषेक कल्पतरु’ नामक संस्कृत पदों के ग्रंथ में उपलब्ध है।
समाज की रक्षा करना और पर धर्म के प्रभाव से हिंदू धर्म को सुरक्षित रखना। ये दोनों दायित्व क्षत्रिय वर्ग के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इस भूली हुई परंपरा को शिवाजी महाराज ने फिर से जीवित किया। इतना ही नहीं, ब्राह्मणों से उसे परिपक्व भी करवाया।
क्षत्रिय का राज्याभिषेक होना भी अत्यावश्यक था, क्योंकि इसके बिना हिंदू आनंदित नहीं हो सकते थे। इसीलिए उन्होंने गागा भट्ट जैसे सर्वमान्य विद्वान् से स्वयं को क्षत्रिय घोषित करवाया और राज्याभिषेक भी उन्हीं से करवाया। इस प्रकार उन्होंने एक रुकी हुई रूढ़ि को फिर से जीवित किया ।
स्मरणीय है कि यह सब उन्होंने केवल अपने बड़प्पन के लिए नहीं किया। इसलिए किया कि हिंदू समाज के उत्थान के लिए यह अनिवार्य था। निस्संदेह राज्याभिषेक में बहुत भव्यता से खर्च किया गया। उतने खर्च में तो कई नए किले बन जाते और समुद्री युद्ध के लिए सुसज्जित अनेक नौकाएँ तैयार हो जातीं, किंतु यदि शिवाजी महाराज इतना खर्च न करते, तो हिंदू समाज की ओर से उन्हें उतना समर्थन न मिलता, जो कि मिला। शिवाजी महाराज के प्रथम पुत्र संभाजी की क्रूर हत्या औरंगजेब करवा चुका था। महाराज के द्वितीय पुत्र राजाराम घोर संकट में घिरे हुए थे। ऐसे में मराठों को उस समर्थन की तीव्र आवश्यकता थी, जो उन्हें राज्याभिषेक की अलौकिक भव्यता के ही आधार पर मिल सकता था।
महाराज का कर्तव्य था कि वे अपने अनुयायियों के मन-मस्तिष्क में श्रद्धा का निर्माण करते। ऐसी श्रद्धा के बिना राज्य का रक्षण नहीं हो सकता था। इसी दूरदर्शिता के साथ शिवाजी ने खर्च की परवाह न करके अपने राज्याभिषेक में खुलकर खर्च किया।
इससे उनकी आन, बान और शान में जो वृद्धि हुई, वह उन्हें हर कदम पर काम आई।

मैग्नाकार्टा क्या है ?
यह एक दस्तावेज है, जो अंग्रेजी संविधान की विधि का प्रारंभ करता है। शासकों एवं सिपहसालारों के संघर्ष से इस दस्तावेज का जन्म हुआ।
प्लैंटेजमेंट घराने का राजा जॉन लैकलैंड (सन् 1199-1216) अत्यंत अत्याचारी एवं विश्वासघाती था। उसके असंतुष्ट अमलदारों ने आपस में एका कर लिया और फैसला किया कि राज्य सत्ता को वे स्वयं ही नियंत्रित करेंगे। उन्होंने सुझाव दिया कि आजादी का जो मसौदा हेनरी प्रथम (1100-1135) ने तैयार किया था, उसी को फिर से अमल में लाया जाए।
जॉन लैकलैंड ने पहले तो हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, किंतु बाद में उसने रन्नीमीड में इस सुझाव को मान्यता दे दी। (15 जून, 1215)
इंग्लैंड के घटनात्मक इतिहास में इस दस्तावेज का असाधारण महत्त्व है। इसी सनद को ‘मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है।
मैग्नाकार्टा की बहुत सारी धाराएँ राज्य के अमलदारों के अधिकारों से जुड़ी हुई हैं। मसलन बैरन से 100 पौंड एवं नाइट से 100 शीलिंग से अधिक की छूट न माँगी जाए। अमलदार का वारिस यदि नाबालिग हो, तो राजा को चाहिए कि उसे योग्य भत्ता दे। अमलदारों से उतनी ही सेवा ली जाए, जितनी उचित एवं आवश्यक हो।
कानून व सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए कॉमन प्रीकोर्ट की व्यवस्था करनी चाहिए। दंड की रकम गुनाह की गंभीरता के अनुसार होनी चाहिए। जिन्हें कानून की गहरी जानकारी हो और जो स्वयं भी कानून का पालन करते हों, ऐसे निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति की जानी चाहिए।
इस सनद में सबसे महत्त्वपूर्ण धाराएँ मूलभूत नागरिक अधिकारों से संबंध रखती हैं। यदि किसी की संपत्ति का अधिग्रहण सार्वजनिक कार्य के लिए किया जा रहा है, तो उसे नुकसान की सही भरपाई एवं योग्य मुआवजा देकर ही ऐसा किया जाएगा (धारा 28 से 31)। किसी को भी कारावास तभी दिया जाएगा, जब इसका औचित्य कानून की कसौटी पर सिद्ध हो चुका हो। किसी को भी सीमापार नहीं किया जाएगा (धारा 39 )। किसी भी व्यक्ति को न्याय एवं अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा। राजा इस अधिकार को प्रतिबंधित नहीं कर सकता। न्यायिक प्रक्रियाएँ सही समय पर की जाएँगी ( धारा 40 )।
ऐसी मौलिक धाराओं के कारण इस दस्तावेज को ‘अंग्रेजी संविधान की बाइबिल’, ‘अंग्रेजी स्वतंत्रता की कमान के बीच की कड़ी’ इत्यादि गौरवपूर्ण शब्दों से संबोधित किया जाता है। कई राजनीतिज्ञों के अनुसार इंग्लैंड ने अपनी अस्मिता को पहचाना, उसके बाद का पहला महत्त्वपूर्ण दस्तावेज यही है।
हॉबिस कॉर्पस ऐक्ट (1679), अमेरिकन कंस्टीट्यूशन (1787) और मानव अधिकार (1948)। इन सबका उद्गम इसी मैग्नाकार्टा से हुआ है।
जिन अधिकारों को बड़े जमींदारों ने कभी स्वयं अपने लिए हासिल किया था, वे ही अधिकार अपने आश्रितों को देने पड़ जाएँगे, ऐसी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। कानून बनाने का अधिकार वरिष्ठ वर्ग की सभा को दिया गया। सामान्य नागरिक एवं कनिष्ठ अमलदारों को कोई अधिकार ही नहीं मिले ! इसके बावजूद अंग्रेजी संविधान में इस सनद को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। कानून की सत्ता को स्वयं राजा
ने भी स्वीकार किया हो, इसका यह पहला उदाहरण है। राजा कितना भी बड़ा हो, वह कानून से बड़ा नहीं है। उसे कानून का पालन करना ही चाहिए। वह कानून का उल्लंघन नहीं कर सकता या उससे बच नहीं सकता।

शिवाजी अकेले राजा हैं, जिन्होंने अपने लिए 'छत्रपति' की उपाधि चुनी। यह उपाधि यही सिद्ध करती है कि शिवाजी महाराज की छत्रच्छाया सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक इत्यादि, सभी क्षेत्रों की आम जनता पर फैली हुई थी। शिवाजी से पहले भारत या संसार के किसी भी राजा, महाराजा या बादशाह ने ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण नहीं की। रोमन या जर्मन सम्राट् स्वयं की तुलना गरुड़ से, भारत के कुछ राजा स्वयं की तुलना सिंह से, चीनी सम्राट् स्वयं की तुलना ड्रैगन यानी सर्पासुर से करते थे। ये सारे पशु-पक्षी क्रूर शिकारी हैं। छत्रपति की छत्रच्छाया में जो सुकून होता है, वह किसी सर्पासुर या गरुड़ आदि के सान्निध्य में भला कैसे हो सकता है!
शिवाजी महाराज तो अपनी प्रजा के लिए संरक्षक पिता के समान थे। उन्होंने ‘छत्रपति’ जैसी उपाधि धारण की, इसमें उनके आत्मविश्वास एवं अंतिम ध्येय दोनों का प्रतिबिंब है।
शिवाजी महाराज ने इस दृष्टिकोण को अपने 28 जनवरी, 1677 के दिन लिखे एक पत्र में स्पष्ट किया है। इस पत्र को हम मराठा स्वराज्य का मैग्नाकार्टा मान सकते हैं। इसमें शिवाजी महाराज वचनबद्ध हुए हैं कि वे प्रचलित परंपराओं की रक्षा करते हुए अपनी प्रजा को एक ऐसा न्याय देंगे, जो शास्त्रों पर आधारित होगा, जिसके साथ प्रजा की वैचारिक सहमति होगी, जो सभी के साथ समान व्यवहार करेगा और जो बिना किसी विलंब के दिया जाएगा।
इसी पत्र में आगे शिवाजी महाराज ने सभी जाति एवं धर्म के अपनी प्रजा जन का आह्वान किया है कि वे सदा संगठित रहें, ताकि उत्तर की ओर से आनेवाले यवनों से स्वराज्य की रक्षा कर सकें। जब राजा और प्रजा दोनों मिलकर प्रयास करते हैं, तभी स्वराज्य की रक्षा होती है। ऐसे प्रयास के ही फलस्वरूप राजा और प्रजा दोनों को ईश्वर का आशीर्वाद मिलता है।
इस पत्र से शिवाजी महाराज की प्रशासनिक कुशलता का पता चलता है तथा यह स्पष्ट होता है कि शिवाजी धन के लोभी, अपनी शक्ति पर गर्व करने वाले अथवा राज्य का विस्तार करने की धुन में खोए रहने वाले योद्धा नहीं थे। उनके जीवन का एक सुनिश्चित उद्देश्य था, लक्ष्य था, जिसकी प्रेरणा उन्होंने प्राचीन महाकाव्यों से, संतों की वाणी से एवं मातुश्री जीजाऊ के दिए संस्कारों से ग्रहण की थी।

इंग्लैंड के राजा जॉन लैकलैंड ने प्रजा के क्रोध के कारण, डरकर मैग्नाकार्टा को मान्यता दी थी। इसके विपरीत शिवाजी महाराज ने प्रजा के कल्याण का उत्तरदायित्व स्वेच्छा से सानंद स्वीकार किया था। उन पर किसी का दबाव नहीं था।