श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्टव्यी हैं।
खण्डकाव्य रत्नावली 13
खण्डकाव्य
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
त्रयोदश अध्याय – चित्रकूट
दोहा – मैया मन में सोचती, पथप्रशस्ति की बात।
बाधा बन जाऊँ न कहिं, बार बार मन आत।। 1 ।।
रहै जरूरी मुझको जाना। अहो राम तुम मनहि समाना।।
सीता माता मन को फेरें। दया दृष्टि कर मुझको हेरें।।
मृदु मुस्काते हरको बोली। गुमसुम रहो मात तुम भोली।।
दरसन चाह हृदय में आती। गुरू का पता सही नहीं पाती।।
रामू भैया कह रये मोते। मावस आई सोम सँजोते।।
चित्रकूट का मेला भरता। संत आगमन पावन लगता।।
गूरू जी वहां जरूरी आवें। रतना सुन मन में हलषावें।।
मन दोनों का हरषित भारी। यह संजोग बहुत सुखकारी।।
इतने में रामू अब आये। संत एक के बचन सुनाये।।
रामघाट गोस्वामि विराजे। शीघ्र चलें सामा सब साजे।।
हरको हूं चलने की ठाने। करी तयारी प्रात: जाने।।
दोहा – यह कह रामू ही गये, निपटाये सब काम।
पैदल ही सब जायेंगे, वहिं होगा विश्राम।। 2 ।।
खबर गांव भर ने जब पाई। संग मात के चल हैं भाई।।
नर नारी सब चले सबेरे। झुंड बनाये अलग घनेरे।।
एक पंथ द्वै काज संवारे। तीरथ अरु गुरु दर्शन प्यारे।।
राम राम गावत हरषाई। सभी निकल चल दीने आई।।
रतना मन में विनती करती। विरह व्यथा में कव से दहती।।
स्वामी ने कुछ सुधि ना कीनी। बें तो रहें भजन लव लीनी।।
नारी बाधक बनी भजन में। नर्क द्वार माना निज मन में।।
जन्म सदा जो देती नर को। नर ने घृणित बनाया उसको।।
दोहा – सोचत गति धीमी भई, निकल गये सब दूर।
हरको ने टोका तभी, चाल बढ़ी भर पूर।। 3 ।।
निकट पहाड़ी ग्राम दिखाई। निकलें जंगल ही आजाई।।
सब हि ग्रामजन गुरू जी जाने। कथा सुनन के व्याज वखाने।।
सुना जभी गुरू माता जाई। धन्य धन्य कह करें बड़ाई।।
स्वागत हेत सभी जन आये। मैं अपराधिन यह नहिं भाये।।
पुन है पुत्र शोक फिर मारी। मुझ सी हतभागिन को नारी।।
स्वागत होता पति के कारन। आइ बुलाने एक पुजारिन।।
चलो बहिन घर भोजन कर लो। रात होयगी कुछ श्रम हरलो।।
फिर गोस्वामी जी क्या जाने। वे विरक्त क्या रहें ठिकाने।।
दोहा – परिचित जन को ले गये, सभी बुलाय बुलाय।
जन समूह वहं रम गया, कुछ विराम हो जाय।। 4 ।।
रतना हरको ले गये, रामरतन पहिचान।।
खा पीकर वापस हुये, जुड़ै वहीं मैदान।। 5 ।।
कोई लोक गीत है गाता। कोई सुन्दर भजन सुनाता।।
सुन सबही आनंदित होते। कोई राम प्रसंग संजोते।।
कोई श्री गुरुजी की बातें। लागे कहन प्रेम के नाते।।
मैंने सुना भये विरागी। अच्छी इन्हैं राम धुन लागी।।
इस युग में अब कौन है ऐसा। घंटो भजन करत हो वैसा।।
बोला रामू गुरू हमारे। क्या तुमने ऐसेहि विचारे।।
मैं जो दीक्षा लीनी उनसे। यों ही ले लीनी या गुन से।।
उनको तो अवतारी जानो। धन्य भूमि के भाग्य बखानो।।
दोहा – कामद गिरि दर्शन हुए, सबने किया प्रणाम।
हे प्रभु विपिदा काटवे, जग प्रसिद्ध तुव नाम।। 6 ।।
भये अंधेरे पहुंचे घाटा। मंदाकिनि मैया लख ठाटा।।
दर्शन कर सब मन हरषाई। पी निर्मल जल तपन बुझाई।।
रुके वहीं रामू की सूझा। आगे बढ़ कर उनने बूझा।।
सुनते यहीं गुफा ठहराई। गोस्वामी का पता लगाई।।
पता लगाय कहन को लौटे। हैं गुरुजी साधुन संग जोटे।।
सुन हरषाने सब ही लोगा। दरस परस का बना सुयोगा।।
रतना के मन अबहु कचाई। मिलन इजाजत दैं तब जाई।।
रामू आज्ञा लेने जाई। लाय प्रसाद सबन बटबाई।।
दोहा – खापीकर विश्राम लें, मंदिर रामहि जाय।
प्रात काल वे मिलेंगे, दिया प्रबन्ध कराय।। 7 ।।
सुन रतना यह वानी वोली। तारा की कछु बात न खोली।।
वोले रामू पता उन्हैं है। प्रभु इच्छा मन मांह गुने है।।
कितने निष्ठुर है ये स्वामी। इनके हृदय दया नहिं जामी।।
लो प्रसाद सब मिलकर पाओ। खा पीकर मेरे संग आओ।।
सभी थके थे चलकर सोये। प्रात मिलन की आस संजोये।।
प्रात: काल उठे सब लोगा। भारी भीड़ विपत्ती भोगा।।
स्नान ध्यान पूजन को कीना। गये गुफा गोस्वामी चीना।।
वैठे तखत गुसांई पाये। सभी मिले मन में हरषाये।।
दोहा – कर प्रणाम चरनन छुए, बैठे सब ही लोग।
रतना भी सब की तरह, वैठी निज फल भोग।। 8 ।।
हरको देख गुसांई बोले, सभी ठीक है मन दुख तौले।।
बोली तारा गया तुम्हारा। सुनकर सभी मौन को धारा।।
रामू मौन तोड़ कर बोले। अब तो भौजी रही अकेले।।
पाठक जी गये तीरथ करने। जीवन के सुख दुख को भरने।।
गंगेश्वर को तो तुम जानो। लग जाये चक्कर तब मानो।।
सुन बोले श्री तुलसी दासा। लैन दैन का सभी तमासा।।
इतने दिन को था वो मेरा। चुका कर्ज कहिं डाला डेरा।।
माता रह अब तो राम सहारे। करैं गुजर जीवन भर सारे।।
दोहा – हाड़ मांस की प्रीति का, इक दिन तजना होय।
राम भरोसे सब रहैं, करौ आसरौ सोय।। 9 ।।
गणपति माता भागवति, कही बात दुहराय।।
बोले तुलसीदास जी, इससे बड़ कछु नाय।। 10 ।।
पुन बोले परिकरमा जाओ। कामद गिरि दर्शन कर आओ।।
करूं व्यवस्था खान पान की। जब तक लौटो कृपा राम की।।
चल दीने सब राम सुमिरते। राम काज का चिन्तन करते।।
पहुँचे पूजन अर्चन कीना। नरियल भैंट चढ़ाई प्रवीना।।
कर दर्शन परिकरमा कीनी। तुलसी बाबा कुटिया चीनी।।
भरत मिलाप चिन्ह को देखे। लखन टेकरी दृश्यहु पेखे।।
चारों ओर दिखे हरियारी। नाले पर्वत दृष्टि डारी।।
बीच बीच में मंदिर जेते। सभी निहारे प्रेम प्रतीते।।
दोहा – दरसन परसन कर सभी, राम घाट की ओर।
आये दौरत शीघ्र ही, लगे ठिकाने ठौर।। 11 ।।
भोजन कर विश्राम ले, हनुमत धारा जाय।।
दरसन परसन मन हरन, देख देख हरषांय।। 12 ।।
सीता रसोई दृश्य ललामा। ताके ऊपर है इक ग्रामा।।
लम्बा चौड़ा है मैदाना। करते खेती वहां किसाना।।
आगे चल जंगल आजावै। तहां देवअंगना भावै।।
आगे बहती गंगा धारा। कोटि तीर्थ कह जाय पुकारा।।
नीचे बांके सिद्ध कहावैं। मानो हम आकाश भ्रमावैं।।
दृश्य पहाड़ी आनंद देई। करबी निकट देख सब लेई।।
ऐसा पर्वत विचत्र सुहावन। निरख निरख मन होता पावन।।
आये लौट राम के घाटा। कर जल पान बखाने ठाटा।।
दोहा – प्रात होत पुन चल दिये, दर्शन चारों धाम।
कुंड जानकी का निरख, श्री प्रमोद वन ठाम।। 13 ।।
फटिक शिला की सुन्दरताई। मंदाकिनि जी निकट बहाई।।
संत रहें मग आवत जाता। अनुसुइया तक लागा तांता।।
चहूं ओर हरियाली छाई। वन ही वन शेभा अधिकाई।।
मंदाकिनी का दिव्य किनारा। कल कल छल छल बहती धारा।।
अनुसुइया के पर्वत निकली। उनकी कथा सुनत ही उछली।।
पहुंचे उनका करजै कारा। सारा वैभव जाय निहारा।।
तीन पुत्र हैं तिनके गाये। ब्रम्हा विष्णु महेश बताये।।
सो सीता पतिव्रत उपदेसा। विचरत गये राम अरु शेषा।।
दोहा – मिली गुप्त गोदावरी, परवत अन्दर धार।
देव सभी आये तहां, सेवा हित सरकार।। 14 ।।
लौटे आश्रम अत्रि ऋषि, किया रात विश्राम।
टिक्कड़ खाय बनाय कें, जपा राम का नाम।। 15 ।।
कोई भजन राम के गाये। कोई लोकगीत मन लाये।।
चरचा अनुसुइया के तप की। करते करते आंखें झपकी।।
होत भोर चित्रकूटहि आये। उठी हाट के लक्षण पाये।।
रामू गये गुसांई मिलने। लाय प्रसादी पाई सबने।।
शीतल जल मंदाकिनी मैया। किया पान पुन बनी रसोइया।।
निज निज भोजन सभी बनाया। गोस्वामी जी को बुलवाया।।
रामू भैया गये लिवाने। भोजन तबतक लागे पाने।।
रामू लौट आय सब देखे। समझे सभी लगा कर लेखे।।
दोहा – कही तौल के सबन से, रामू जी ने बात।
जब मैं पहुंचा पाय रहे, गोसांई जी भात।। 16 ।।
खा पीकर सब भये निश्चिन्ता। सोवन गये मन्दिर भगवंता।।
रतना मन आवहि एक भावा। प्राणनाथ का हो घर आवा।।
प्रात काल उठ मंत्र विचारा। भरत कूप को जाय निहारा।।
कर स्नान बड़ाई कीनी। धन्य धन्य तुम रामहि चीनी।।
लौटत शैया राम कहाई। सोई निरख चकित हो जाई।।
गुफा ओर लौटा समुदाई। पहुँचा बाहर बैठा जाई।।
रतना केवल भीतन जाई। जहां रसोई साज सजाई।।
जा सहायता मैया कीनी। खान पान में सुविधा दीनी।।
पीछे रतना भोजन कीना। स्वामी निरख शान्ति मन लीना।।
निकट गुसांई बैठे आई। रामू भैया बात चलाई।।
गुरूजी सब दरसन कर आये। अब क्या आज्ञा देव बताये।।
दोहा – बोली रतना ‘’ बुद्ध’’ हू, गये जन्म के धाम।।
कह गुसांई लायक बनूं, आऊंगा तब ग्राम।। 17 ।।
सुन समझे सब निज निज मन में। आयें अवस काउ दिन घर में।।
भई रात अव जा सो जाओ। आटा दाल मार्ग बंधवाओ।।
छूकर चरण सभी उठ बैठे। शयन हेत मंदिर में पैठे।।
भोर भये सबकरी तैयारी। कर स्नान गुफा पग धारी।।
छुये चरणसब ही गुरूजी के। दई असीस सबहु रहु नीके।।
रतना चरण छुये कर विनती। करहु कृपा राहें रहु गिनती।।
ले आज्ञा यों सब भये चलते। अश्रु नयन से सबके ढलते।।