खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 14 ramgopal bhavuk द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 14

श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्ट‍व्यी हैं।

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 14

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

चतुर्दश अध्‍याय – छोटी बड़ी एवं प्रेम – पत्र

दोहा – जिमि मीठे के संग में, है नमकीन सुहात।

त्‍यों जीवन के बीच में, हास्‍य व्‍यंग दरसात।। 1 ।।

होली आई सभी मनाई। बोली हरको सुन भौजाई।।

वह सुसरा रस्‍ते में रोके। करे विनय जाऊँ नहिं धोके।।

रतना कही चली ही जाती। बोली हरको क्‍यों ललचाती।।

कहता छोटी मार भगाऊँ। तुझको अपने घर बैठाऊँ।।

तब तक छोटी ही चल आई। फटी चूनर थेगर छाई।।

चरणन छूकर करी प्रनामा। रहौ सुहागिल वन सुखधामा।।

मुझे शरण में ले लो मैया। बड़ी तरह हो जाव खिवैया।।

दोहा – लख हरको कहने लगी, जै जै सीताराम।

कहु छोटी कैसे यहां, कहि मिलने के काम।। 2 ।।

बोली तुम सब जानो माया। दम में चूर सदा रहे छाया।।

अच्‍छा अच्‍छा भोजन चाहै। काम धाम कुछ करता नाहै।।

कैसेहु गुजर करत हों अपनी। पाखंडी वह बनता भजनी।।

बोली हरको भाग्‍य जो अपने। देखन आई इसके सपने।।

हरको महिमा रतना गाई। बनी पंच निर्णय को जाई।।

देख दशा मन पाता दुख री। ले जा मेरी लहंगा चुनरी।।

सुन हरको चुनरी ले आई। छोटी के वह हाथ गहाई।।

दोहा – भई कृपा अब राम की, मिली प्रसादी मोय।

मैया ने कीनी दया, चल दी घर को सोय।। 3 ।।

युवा अवस्‍था तो सभी, जैसे तैसे काट।

वृद्ध अवस्‍था हेतु ही, जोड़े अपने ठाट।। 4 ।।

रतना उर चिन्‍ता यह छाई। आई जरा गई तरुणाई।।

हरको कही श्‍वेत भये केशा। जीवन कटा पती उपदेसा।।

परित्‍यक्‍तापन अति दुखदाई। ईश भरोसे सोइ विताई।।

सुन हरको पुन कहने लागी। सोचेंगें कुछ वे बड़भागी।।

इतने में गणपति को पाया। प्रसंग पलट उसे समझाया।।

एक पहर अब दिन चढ़ आया। शिष्‍य न अबतक कोइ दिखाया।।

बोले आते होंगे अबही। इतने में जुड़ आये सबही।।

गणपति सबको लगे पढ़ाने। रतना हरको भई रवाने।।

दोहा – दूजे दिन की बात है, हरको सुन ली कान।

साधु संत आये कोई, मंदिर हुई बतरान।। 5 ।।

बोली वह कहते थे ऐई। गुरुजी जाय अयोध्‍या सेई।।

इतने में रामू वह आये। समाचार कह सभी सुनाये।।

बोले पता लगा गुरूजी का। संत बसे मंदिर नजदीका।।

गुरूजी रहैं अवध स्‍थाना। समाचार कोई हो भिजवाना।।

बोली इक दोहा लिक्‍खा है। वो ही देती जो रक्‍खाहै।।

सुन आश्‍चर्य चकित भये दोनों। पढ़ने लगे रामु मन गुनके।।

दोहा कटि की छीनी कनक सी, रहति सखिन संग सोय।

और कटे को डर नहीं, अंत कटे डर होय।। 6 ।।

हरको सुनकर समझ लई, वृद्धापन संकेत ।

अच्‍छा दोहा यह रचा, गोस्‍वामी के हेत।। 7 ।।

लेकर रामू भये रवाने। जै जै सीताराम बखाने।।

साधू पत्र दिया सो जाई। या प्रकार उन ढिंग पहुँचाई।।

लेकर साधू भये रवाना। इतमें मैया चित उलझाना।।

सब कुछ समझ जायंगे स्‍वामी। उत्‍तर अवस आय द्रुतगामी।।

सोमवती का जुड़ा सुयोगा। यहि पथ का करें संत प्रयोगा।।

टोली कई निकल के जाती। रतना निकल वाहरे आती।।

पता पूछ कर वह रुक जाती। रतना निकल वाहरे आती।।

दिया पत्र पुन हुई रवाना। हमको परवी के हित जाना।।

उसमें दोहा एक लिखा था। मां रतना ने उसे पढ़ा था।।

दोहा – कटे एक रघुनाथ संग, बांध जटा सिर केश।

हम तो चाखा प्रेम रस, पतनी के उपदेश।। 8 ।।

पढ़ कर रतना मग्‍न हुई, पा स्‍वामी आदेस।।

फूली फूली फिर रही, चिन्‍ता रही न लेस।। 9 ।।