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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 9

 

 

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 9

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

नवम अध्‍याय – रामाभैया

दोहा – जन जन की यह रीति है, अपना जैसा जान।

निज कमजोरी की तरह, जग को लेता मान।। 1 ।।

जैनी एक गांव में रहते। ज्‍वर से ग्रसित पुत्र हित जगते।।

भली जान हरको बुलवायो। दो दिन जागी उन्‍है सुवायो।।

तीजे दिन रतना गृह आई। पूछी का गायब रहि भाई।।

दूजे का दुख सह नहिं पाती। आय बुलावा वहिं चलजाती।।

जैनसाब के घर से आई। उनके लड़के ताप सताई।।

उनके  घर रह दो दिन जागी। रामू आय ताप तब भागी।।

उसकी औरत बड़ी विचित्रा। कहा कहा नहिं खोलति पत्रा।।

मैं भी सुनूं कहा क्‍या उसने। यों ही सुन रक्‍खा है हमने।।

दोहा – अतिउत्‍सुकता देख के, कहती तुम से मात।

रमा के सम्‍बन्‍ध में, दुष्‍प्रचार की बात।। 2 ।।

सुन चौंकी मन में घबड़ाई। क्‍यों करती अपवाद बुराई।।

अपनी जैसी दूजे जाने। झूठ बकै शंक नहिं माने।।

नीच प्रकृति के हैं सब लोगा। रहें रातदिन करते भोगा।।

अपनी तो आपन ही जाने। सीता तक में लांक्षन माने।।

धरती मां यदि तू फटजाती। तुझमें मैं भी जाय समाती।।

अब तो कलियुग सच ही आया। सब मर्यादा जगत भुलाया।।

जैसा चिन्‍तन रहे हमारा। वैसा कर्म करें हम सारा।।

गहन सोच मैं डूबी रतना। बोली हरको चित्‍त न रखना।।

दोहा – गुरू जी को अरू आपको, नहिं जाना संसार।

पूर्व जन्‍म के कृत्‍य वस, लिया आय अबतार।। 3 ।।

कोई कुशल पूछने आता। उसपर लांछन लाया जाता।।

चाल चलन इतना ही होता। तो क्‍यों पति फटकारा होता।।

भीतर सोया तारा जागा। बोला डंडा कहां हमारा।।

बड़बड़ात सुन रतना बोली। क्‍या कहता है बात निठोली।।

डंडा याद तुझे क्‍यों आया। किया रोष निज क्रोध दिखाया।।

रामू ने आवाज लगाई। रतना सुत ले बाहर आई।।

तारा रामू को पहिचाने। हाथ बढ़ा लेने की ठाने।।

तारा गोद लेलिया रामू। रतना खड़े खड़े कर ध्‍यानू।।

दोहा – बोली भइया बात इक, कहती वुरा न मान।

अच्‍छा नहिं लोगन लगे, तुम्‍हरा आवनजान।। 4 ।।

बोले जिन उर चोर बसत हैं। वही भले को बुरा कहत हैं।।

ऐसिन सीता दोष लगाई। दिया निकलवा घर से भाई।।

सच तो सच होता है भौजी। कोई अर्थ लगा ले खोजी।।

सियाराम कह घर चल दीने। मंदिर बैठन निश्‍चय कीने।।

तारापति को वहां बुलाते। अपना खूब दुलार जताते।।

लोगों ने जब यह सब देखा। निश्‍कलंक रामू को पेखा।।

कोई बात अवस ही भोगी। कोई कुतर्की कह दी होगी।।

यही द्वन्‍द जन जन मन छाया। आत्‍मग्‍लानि कर दूर हटाया।।

दोहा – मन रमता जिस काम में, मगन होय इन्‍सान।

काम हाथ करते रहें, होती रह बतरान।। 1 ।।

गणपति शिष्‍य गुसाईं जी का। चाल चलन उत्‍तम है नीका।।

रतना मन विचार यह आवैं। शिक्षा पद्धति कौन चलावैं।।

एक रही है प्रथा पुरातन। दूजी नूतन है अधुनातन।।

शिक्षा मुझे सभी को देना। विधि विधान कार्य हैं लेना।।

जातिपांति का भेद न माने। सब में समता मुझको लाने।।

सब ही बालक पढ़ना चाहैं। क्‍यों न प्रेम से उन्‍हैं निभाहैं।।

सब बच्‍चों में समता लाऊँ। द्वेष विषमता सभी मिटाऊँ।।

श्रम ही मेरा जीवन धन है। पर मेरा विद्राही मन है।।

रूढि़बाद पाखंड न भावै। शिक्षा मेरी इन्‍हें मिटावै।।

दोहा – अम्‍मीजी तब आगई, ले निज सुत को साथ।

रतना ने बैठा लिया, कलम गहाई हाथ।। 2 ।।

चरचा चली गांवभर फैली। रतना ने पठशाला खोली।।

बोला अम्‍मी से रमजानी। ये क्‍या तुमने मन में ठानी।।

निज गृह सिलते वस्‍त्र तमाम। उसे सिखाते सुबह औ शाम।।

पंडित क्‍या है तुम्‍हें बनाना। जो पढ़वाती विद्या नाना।।

बोली अम्‍मी अच्‍छों पासा। मिलती अच्‍छी बातें खासा।।

यह तो तोहिन है इस्‍लामी। पाठन पढ़न नहिं बदनामी।।

यदि पढ़ने से धर्म नसाबै। तो क्‍यों दुनियॉं पढ़ने जावै।।

अव्‍वा के जो अव्‍वा तुम्‍हरे। पद लोलुपता धर्महि बिसरे।।

दोहा – तो क्‍या चाची अपन को, हिन्‍दू लेंय बनाय।

यह तो मन की बात है, खुदा एक कहलाय।। 3 ।।

एक मुहल्‍ला काछी रहते। आपस में वे बातें करते।।

अपने बच्‍चे लो पढ़वाई। तव तक प्रोहित जी गये आई।।

सुना है रतना लगी पढ़ाने। जाति पांति के भेद न माने।।

तब कुढ़ के पंडित जी बोले। वो क्‍या पढ़ा पायगी भोले।।

जिसने अपना पती भगाया। उसका मन तो है भर माया।।

रामचरन की हामें हामी। पढ़कर के क्‍या बनना नामी।।

थोड़े पढ़े तो हल नहिं भाते। जादा पढ़ै तो घर से जाते।।

दोहा – भई भीड़ बातें सुनन, पंडित जी महाराज।

लोग विचारें मनहिमन, है क्‍या ये नाराज।। 4 ।।

धोती वाले करें बुराई। धर्म नष्‍ट हित रतना आई।।

सुन रामा मन में खिसिआये। पंडित हैं लक्षन नहिं पाये।।

तबहि वसंत पंचमी आई। शारद पूजन दिवस मनाई।।

वि़द्यार्थी गण सब ही बैठें। पैर छुऐं दे दे कर भेंटें।।

रतना रामू को बुलवाये। बैठक में तिनको बैठाये।।

औरहु पुरा परौसी आये। सोचत मन क्‍या बात बताये।।

बोली रतना मीठी बानी। कदम उठाया सो सब जानी।।

वेद चार दस अष्‍ट पुराना। शतक उपनिषद सुमति प्रमाना।।

बाल्‍मीक रामायन संस्‍कृत। नहीं ज्ञान की होती है हद।।

दोहा – मैं सब को इक दृष्टि से, निसिदिन करूं विचार।

पहेली भी सम भाव था, अव भी रही निहार।। 5 ।।

कौरव पॉंडव समय समाजा। प्रथा तोड़़ कर किया अकाजा।।

एक लव्‍य शिक्षा नहिं दीनी। गढ़ी गई तब बात नवीनी।।

शिक्षा भेद भाव नहिं भावै। यह प्रभाव प्रत्‍यक्ष दिखावै।।

पुन: दक्षिणा की चालाकी। अवतक है समाज मैं झांकी।।

जुड़ा समाज गोष्‍ठी कीनी। उसमें सभी ठान मन लीनी।।

हम अंगुष्‍ठ नहिं करें प्रयोगा। अव तक मानत है वह लोगा।।

छोटी बात बड़ी बन जाती। जो समाज में घर कर जाती।।

नहिं चाहूँ कोइ ऑंख उठाये। इससे सब को दूं ब‍तलाये।।

दोहा – गुरू का होना एक सा, अरु समान व्‍यवहार।

ज्‍यों धरती माता करै, सब बच्‍चों से प्‍यार।। 6 ।।

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