श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्टव्यी हैं।
खण्डकाव्य रत्नावली 8
खण्डकाव्य
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
जव परिवेश बदल जाता । पिछला काम टूटता नाता।।
बड़ों बड़ों की दशा दिखानी। मात पिता सुधि भूलत ज्ञानी।।
करें गुरु की नित्य प्रसंशा। जिन उपदेश पलट दी मंशा।।
राम कथा बहुतहि मन भाई। तजी नारि प्रभु लगन लगाई।।
राम नाम अति है सुखदाई। पर मेरी तो हंसी कराई।।
जन्मत राम शब्द मुख बोला। जिससे नाम हुआ रम बोला।।
सुनते मां गई स्वर्ग सिधारीं। तातहु पुन: देह तज डारी।।
दोहा – हरको आ ठाड़ी भई, भौजी मेरे हाथ।
देती जाओ वस्तुऐं, जमा धरूं इक साथ ।। 6 ।।
पुस्तक लेते हरको कहती। मैं भी अब हूँ पढ़ना चहती।।
सुन रतना बोली यह बानी। खानी डांट पड़़े मनमानी।।
बोली इसमें कहा बुराई। गुरू हमारे रहे गुसाईं।।
गुरु माता तुमहू ठहराई। पढ़ने में सब सहूं कड़़ाई।।
गणपति माता मुझसे कहती। पढ़वाना वो गणपति चहतीं।।
कहो आप तो करूं प्रचारा। बालक आवैं तुम्हरे द्वारा।।
बात सत्य है तुम जो कहतीं। इसी बहाने काटें विपती।।
भेंट राशि कुछ आजायेगी। नहीं याचना कहलायेगी।।
दोहा – बात बात में तै हुई, शिक्षा की यह बात।
सभा पढ़ाना चाहते, दुनियां में शिशुजात।। 7 ।।
रामा चक्कर रोज लगाते। रतना व्यस्त देख लौटाते।।
बालसखा तुलसी के ठहरे। फिर दीक्षा ले चेला गहरे।।
हनूमान के दरसन जाते। रामकथा सुनकर हरषाते।।
रतना जी से भौजी कहते। गुरु पतनी सा आदर करते।।
दीपावली कथा मन आई। जो गोस्वामी उन्हैं सुनाई।।
कहते भौजी को समझाई। रावण वधौ राम ने जाई।।
आये लौट अयोध्या नगरी। मनी दिवाली शोभा बगरी।।
इस दिन कथा गुसांई कहते। सभी प्रेम से सुनते रहते।।
करते सभी गुसांई आसा। कथा सुनन की मन अभिलाषा।।
सुन रतना कह जनजन वानी। कबहूं झूट न होत दिखानी।।
दोहा – तुम दोनों ही हो हठी, मैं वा दिन रहौ रोक।
यमुना चढ़ी अपार थी, तौउ चले अतिशोक।। 8 ।।
इतने में हरको धरबोली। मुझसे कहता घर चल भोली।।
अब मैं घर किस मुंह से जाऊँ। रहा गँजेड़ी का समझाऊॅं।।
एक सौत जो घर में लाया। पेट न उसका भी भरपाया।।
रतना समझी उसके मन की। कही बात नीकी गुन चुन की।।
कामव्यथा केवल है मनकी। शमित होय संयम से तनकी।।
चिन्तन कर मन निर्मल करले। आनंद ही आनंद वो भरले।।
दोहा – बोली सुनकर के यही, मैं नहिं हूं नादान।
रही आपकी बात जो, धूल न चंद मलान।। 9 ।।
विधवा परित्यक्ता में अन्तर। वह निश्चिंत इसे रहता डर।।
ले तारा को रतना मंदिर। दीपक रखवाने गई अन्दर।।
दीपक लिया पुजारी जी ने। तारा हाथों रखवा दीने।।
उत्सव का दिन था सुखदाई। रतना देखत खुशी मनाई।।
आन दिवाली लक्ष्मी पुजी। कुलदेवतं मनावन सूझी।।
पूजन तारा से करवाया। हरको धनियां भोग बटाया।।
यही आस इक तरापति से। पढ़लिख नाम करे शुचिमति से।।
वैसे लक्षण अच्छे दिखते। उच्चारण भी शुद्ध निकलते।।
दोहा – हरको तारापती ले, आंगन में गई आय।
फुलझडि़यां चलवा रही, खुशी मनाय मनाय।। 10 ।।