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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 10

श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’  के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्ट‍व्यी हैं।

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 10

 

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

दशक अध्‍याय – पाठशाला

दोहा – मन रमता जिस काम में, मगन होय इन्‍सान।

काम हाथ करते रहें, होती रह बतरान।। 1 ।।

गणपति शिष्‍य गुसाईं जी का। चाल चलन उत्‍तम है नीका।।

रतना मन विचार यह आवैं। शिक्षा पद्धति कौन चलावैं।।

एक रही है प्रथा पुरातन। दूजी नूतन है अधुनातन।।

शिक्षा मुझे सभी को देना। विधि विधान कार्य हैं लेना।।

जातिपांति का भेद न माने। सब में समता मुझको लाने।।

सब ही बालक पढ़ना चाहैं। क्‍यों न प्रेम से उन्‍हैं निभाहैं।।

सब बच्‍चों में समता लाऊँ। द्वेष विषमता सभी मिटाऊँ।।

श्रम ही मेरा जीवन धन है। पर मेरा विद्राही मन है।।

रूढि़बाद पाखंड न भावै। शिक्षा मेरी इन्‍हें मिटावै।।

दोहा – अम्‍मीजी तब आगई, ले निज सुत को साथ।

रतना ने बैठा लिया, कलम गहाई हाथ।। 2 ।।

चरचा चली गांवभर फैली। रतना ने पठशाला खोली।।

बोला अम्‍मी से रमजानी। ये क्‍या तुमने मन में ठानी।।

निज गृह सिलते वस्‍त्र तमाम। उसे सिखाते सुबह औ शाम।।

पंडित क्‍या है तुम्‍हें बनाना। जो पढ़वाती विद्या नाना।।

बोली अम्‍मी अच्‍छों पासा। मिलती अच्‍छी बातें खासा।।

यह तो तोहिन है इस्‍लामी। पाठन पढ़न नहिं बदनामी।।

यदि पढ़ने से धर्म नसाबै। तो क्‍यों दुनियॉं पढ़ने जावै।।

अव्‍वा के जो अव्‍वा तुम्‍हरे। पद लोलुपता धर्महि बिसरे।।

दोहा – तो क्‍या चाची अपन को, हिन्‍दू लेंय बनाय।

यह तो मन की बात है, खुदा एक कहलाय।। 3 ।।

एक मुहल्‍ला काछी रहते। आपस में वे बातें करते।।

अपने बच्‍चे लो पढ़वाई। तव तक प्रोहित जी गये आई।।

सुना है रतना लगी पढ़ाने। जाति पांति के भेद न माने।।

तब कुढ़ के पंडित जी बोले। वो क्‍या पढ़ा पायगी भोले।।

जिसने अपना पती भगाया। उसका मन तो है भर माया।।

रामचरन की हामें हामी। पढ़कर के क्‍या बनना नामी।।

थोड़े पढ़े तो हल नहिं भाते। जादा पढ़ै तो घर से जाते।।

दोहा – भई भीड़ बातें सुनन, पंडित जी महाराज।

लोग विचारें मनहिमन, है क्‍या ये नाराज।। 4 ।।

धोती वाले करें बुराई। धर्म नष्‍ट हित रतना आई।।

सुन रामा मन में खिसिआये। पंडित हैं लक्षन नहिं पाये।।

तबहि वसंत पंचमी आई। शारद पूजन दिवस मनाई।।

वि़द्यार्थी गण सब ही बैठें। पैर छुऐं दे दे कर भेंटें।।

रतना रामू को बुलवाये। बैठक में तिनको बैठाये।।

औरहु पुरा परौसी आये। सोचत मन क्‍या बात बताये।।

बोली रतना मीठी बानी। कदम उठाया सो सब जानी।।

वेद चार दस अष्‍ट पुराना। शतक उपनिषद सुमति प्रमाना।।

बाल्‍मीक रामायन संस्‍कृत। नहीं ज्ञान की होती है हद।।

दोहा – मैं सब को इक दृष्टि से, निसिदिन करूं विचार।

पहेली भी सम भाव था, अव भी रही निहार।। 5 ।।

कौरव पॉंडव समय समाजा। प्रथा तोड़़ कर किया अकाजा।।

एक लव्‍य शिक्षा नहिं दीनी। गढ़ी गई तब बात नवीनी।।

शिक्षा भेद भाव नहिं भावै। यह प्रभाव प्रत्‍यक्ष दिखावै।।

पुन: दक्षिणा की चालाकी। अवतक है समाज मैं झांकी।।

जुड़ा समाज गोष्‍ठी कीनी। उसमें सभी ठान मन लीनी।।

हम अंगुष्‍ठ नहिं करें प्रयोगा। अव तक मानत है वह लोगा।।

छोटी बात बड़ी बन जाती। जो समाज में घर कर जाती।।

नहिं चाहूँ कोइ ऑंख उठाये। इससे सब को दूं ब‍तलाये।।

दोहा – गुरू का होना एक सा, अरु समान व्‍यवहार।

ज्‍यों धरती माता करै, सब बच्‍चों से प्‍यार।। 6 ।।

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