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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 12

श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्ट‍व्यी हैं।

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 12

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

 

 

द्वादश अध्‍याय – मान्‍यतायें

दोहा – आस्‍था और अनास्‍था, द्वन्‍द परस्‍पर होय।

कबहुँ कोइ जीतत रहे, कबहूँ हारे कोय ।। 1 ।।

तर्क सभी के अपने होते। करते पुष्‍ट लगाकर गोते।।

रतना बारंबार विचारे। कौन राम हित पिया निकारे।।

रमा करे तव पूरी आशा। किन्‍तु मुझे तो मिली निरासा।।

कई राम की दई दुहाई। पर रक्षा हित भये न सहाई।।

अपनी लीला कछू दिखाते। संकट में रक्षा कर जाते।।

सबकोई अस्तित्‍व जनाते। इससे उनसे जुड़ते नाते।।

हम सब धर्म उसे ही मानें। परम्‍परा गत जो कुछ जाने।।

करें प्रार्थना होय विफल तब। करें राम पर शंका हम सब।।

दोहा – नहीं पुण्‍य आड़े हुआ, वंश गया अब डूब।

धर्म ग्रन्‍थ माने कोई, मरूं जाय अब खूब।। 2 ।।

कहते जब दुर्दिन आ जाते। पलटे बुद्धि कुकृत्‍य कराते।।

मम विश्‍वास मिटा ही डाला। कौन नहीं सुन हो बेहाला।।

था इक मात्र सहारा मेरा। छीन लिया मम ओर न हेरा।।

यदि अस्तित्‍व तुम्‍हारा होता। तो क्‍यों गाल बजाती थोता।।

पशु पक्षी तुमको नहिं जानै। दुख सुख उनके घर नहिं आने।।

दिखती यह मानुष की माया। अनुभव निज जग में फैलाया।।

दूजों को विश्‍वास दिलाया। यही धर्म जग का कहलाया।।

चन्‍द्र सूर्य को कोईमाने। पंच तत्‍व की बात बखाने।।

दोहा – शान्ति मिली नहिं आज तक, यह तो जग की रीति।

अपने अपने ढंग से, करते सब परतीत।। 3 ।।

सत्‍य सत्‍य सब कोई कहै, सत्‍य गले की फांस।

मारे पीटे दु:ख दे, लेन न देंवें सांस।। 4 ।।

सोचत सोचत हिम्‍मत आई। जग में होगी अरे हसाई।।

साह‍स वांध धरूं उर धीरा। आगे की सोचूं तदवीरा।।

हरको आय कही तब बानी। एक बात मेरे उर आनी।।

गुरू जी पास चलें हम दोनों। सुन शायद पग धरें विछौनों।

मुझ को भय इतना ही लगता। आस्‍था से नहिं होय विमुखता।।

समाचार कैसे पहुँचाऊँ। युक्ति न मन में एकउ पाऊँ।।

वे विद्वान राह बतलावैं। जो कछु कहें समण्‍ के आवैं।।

रमता जोगी बहता पानी। इनकी गति काऊ नहिं जानी।।

दोहा – जो होनी थी हो चुकी, बचचों से कह आव।

कल्‍ल पढ़ाई शुरू है, तुम सब ही आजाव।। 5 ।।

बालक फिर से लगी पढ़ाने। कटता समय दु:ख विसराने।।

रामू भैया के मन आई। पता लगाऊँ गुरू का जाई।।

पूछ ताछ लोगन से करते। पथिक राह में जोभी मिलते।।

इत रतना से बात चलाई। मिले पता तब गुरू ढिंग जाई।।

साथ चलन तुम करो तैयारी। यह विनती लो मान हमारी।।

सभी ग्राम जन मन यह आई। गोसवामी से मिलहँ जाई।।

सबकी बात टारहों कैसे। जाना भी चाहूंगी बैसे।।

रामू की जिद कोउ ना टारै। अवस करें जो जियें विचारै।।

दोहा – कहें सभी या बात को, जो पंचन की राय।

वो ही प्रभु की राय है, मेरे मन वह भाय।। 6 ।।

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