तेरे होने से--रंग बिरंगी कविताओं का कोलाज Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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तेरे होने से--रंग बिरंगी कविताओं का कोलाज

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'तेरे होने से 'कविता संग्रह मन के भीने अहसास की छुअन से सराबोर शब्दों की ऐसी दास्तान है जिसे कवयित्री प्रेम लता ने अपने प्रिय जीवनसाथी को समर्पित किया है | प्रेम लता जी का यह पहला काव्य-संग्रह है जिसमें उनकी रचनाएँ जहाँ तेरे होने की छुअन को बार-बार स्नेहिल बौछार के सुहाने मौसम में तर कर जाती हैं वहीं कभी वह बौछार नैनों की भाषा पढ़ना शुरू कर देती है तो कभी 'मुझे यूँ भुला न पाओगे' की स्नेहिल शिद्दत से मन का पृष्ठ खोल देती है |

ढाई आखर प्रेम की इस गहन अनुभूति में प्रिय के अतिरिक्त माँ, पिता के चित्र कुछ ऐसे खुलते हैं जैसे बंद पड़ी एल्बम के वो पृष्ठ जिन्हें समयाभाव के कारण पलटा तो कभी -कभी ही जाता है किन्तु मस्तिष्क के पटल पर अंकित वे ऐसे कोलाज हैं जिन्हें कवयित्री हर पल अपनी खुली और बंद आँखों में समेटे रहती हैं |

इस कोलाज में विभिन्न चित्रों की प्रदर्शनी प्रदर्शित होती है जिसमें 'बारिश सी तुम' में जैसे पहली बरखा की भीगी माटी की सुगंध मन को अपनी गहरी संवेदना से सुवासित करती है तो जुस्तजू, किस्मत, अल्फ़ाज़, बहुत याद आते हैं--- जैसी रचनाएँ आकर्षित करती हैं और धीमे से कहीं मन के भीतरी कोने में छिपकर सुस्ताने लगती हैं |

ज़िंदगी एक स्वप्न की भाँति खरामा - खरामा चलती है, अनेकों दरीचे खोलती हुई एक किनारे पर जाकर साँस लेने का प्रयास करती है कि अटक जाती है | कवयित्री ने न केवल प्रेम पर बल्कि कई ऐसे विषयों पर कलम चलाई है जो आज की ज़िंदगी और वातावरण में हर आम आदमी के लिए कठिन परिस्थितियाँ लेकर आ खड़े हुए हैं | कैसा लगता है जब ज़िंदगी चलते-चलते अचानक थम जाए | 'हाय रे ! कोरोना ' जैसी सच्चाई से भी कवयित्री की कलम अलग नहीं रह सकी | साथ ही 'जीत जाएँगे हम ये जंग' सकारात्मकता की ओर एक आशापूर्ण कदम है | प्रेम जीवन का केंद्र है तो सहमती हुई संवेदनाएँ 'दीवार दायरे की' और 'गली का आखिरी मकान' में सिमटी दिखाई देती हैं |

जब कोई संवेदना मन छू जाती है तब कलम-कागज़ पर उसको उतार देना, उस संवेदनशील व्यक्ति की विवशता बन जाती है जो अपने चारों ओर चेतन दृष्टि रखकर चलता है | वह उस वातावरण से विलग कैसे रह सकता है जो उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है ? 'ज़िंदगी का सफ़र, टहोके मारता है और संवेदना कभी बालपन के झूलों की पेंगें बढ़ाती हुई 'दशहरे के वे दिन ' को एक बार फिर से जीने लगती है तो कभी माँ बनकर 'बेटियों' को पुकारती नज़र आती है |

वे तन्हा लोगों की ज़िंदगी के बारे में भी वे परेशान हैं तो कभी किस्मत से भी शिकायत कर बैठती हैं, कुछ पंक्तियाँ मन में उधेड़बुन करती हैं ;

जीवनयापन के लिए जैसे

मज़दूर खोदता है

रोज़ कुंआ ---

अथवा

चींटी जैसे करती है रोज़ उद्यम

और उठाती है

अपने से दस गुणा बोझ ---

एक आम की 'ज़िन्दगी का सफ़र' बहुत सारे प्रश्नों को सहेजकर सामने आ खड़ा होता है | वह सचेत है । हालाकि पता है हमें

मिल जाना है इक दिन

इस मिट्टी में

जहाँ से आए हैं

चले जाना है वहीं

किसी दिन ----

उपरोक्त पंक्तियों का दर्शन बहुत कुछ कह जाता है,प्रश्न भी करता है ----

क्या थमेगा यह सफ़र

मृत्यु के पूर्व

या फिर थमेगा

मृत्यु के पश्चात ही----??

 

'नहीं पता मुझे' में बहुत कुछ अनकहे शब्दों की कोमल अभिव्यक्ति, साथ ही एक कोमल, सहज, मासूम अभिव्यक्ति दृष्टिगोचर हो कई कदमों को पार करते हुए रचना कोलाज के अंतिम चित्र पर आ टिकती है ,जो 'मन' है ---

इस 'मन' कविता में मन से जुड़े हुए की कोलाज बनाकर अंत में कवईईटरी इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं --

मन तो

बावरा है

अल्हड़ है

नादान है

ज़िद्दी है

बच्चे की तरह ---

और 'मन तो मन है ' कहकर वे अपने क्षण से विदा लेती हैं |

यह विदाई कुछ समय की है जो आने वाले समय में पुन: अपनी नवीन रचनाओं के साथ पटल पर उपस्थित होने की साध रखता है |

आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि कवयित्री की इस कविता की प्रथम पुस्तक का काव्य-जगत में हृदय से स्वागत होगा जिससे प्रेरित होकर वे पुन: अपनी दूसरी पुस्तक लेकर शीघ्र ही अपने पाठकों के समक्ष उपस्थित होंगी |

मैं कवयित्री प्रेम लता मुरार को इस काव्य-संग्रह की सफ़लता के लिए अशेष स्नेहिल आत्मीय शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ | इस संग्रह की उच्च सफ़लता के साथ ही भविष्य में भी वे सदा माँ शारदा की अनुकंपा प्राप्त करती रहें |

 

अनेकानेक स्नेहिल शुभकामनाओं सहित

डॉ .प्रणव भारती