पिछले अध्याय में हमने चर्चा की थी कि अपनी प्राण ऊर्जा का संचार रोगी में कैसे करना है । अब आगे आध्यात्मिक चिकित्सा के बारे में हम चर्चा करेंगे । अथर्व वेद के मंत्र क्या संदेश देते हैं ।
हमारे प्राचीन ऋषि मानसिक स्तर से बहुत ऊंचे उठे हुए थे । वे आध्यात्मिक शक्ति को भी भली प्रकार जानते थे । वेद मंत्रों मे आध्यात्मिक व मानसिक चिकित्सा का विशद वर्णन हमें मिलता है । जिनसे शारीरिक मानसिक उपचार किया जा सकता है । यह कोई अंधविश्वास नही है केवल अपने शरीर की व मन की शक्ति का स्थानानंतरण है । किंतु अल्पज्ञानी अधुरी साधना से इस विद्या को झाड़फूंक तक सीमित कर दिए हैं । ऐसे लोगो के द्वारा की गयी चिकित्सा शुरू में अच्छे परिणाम देती नजर आती है, फिर वह बेअसर हो जाती है । इसमे कुछ तो उनका आडम्बर होता है , कुछ उनकी प्राण ऊर्जा का क्षरण हो चुकी होता है । वे अपनी साधना के लिए समय नही निकालते और कीर्ति यश के लोलुप होकर चिकित्सा करते रहते हैं । भीड़ बढती जाती है , नये लोग आते रहते हैं । दुकानदारी चलती रहती है ।
अस्तु ।
हम अपने विषय पर आते हैं , वैसे भी संसार में विरले ही हैं जो अपनी खुद की शक्ति को पहचानते हैं । पिछले अध्यायों में वर्णित साधना व्यक्ति यदि करता है तो उसे अपनी शक्ति का भान होजाता है ।
वह खुदके रोगों को ही नही दूसरों के रोगों को भी दूर कर सकता है । पिछली अध्यायों मे अपने आपको ऊर्जा से ओतप्रोत कर चिकित्सा क्रम कहा था वही अथर्व वेद के मंत्रो में कहा है ।
अथर्व वेद में उपचार --
( अथर्व वेद २|६|३३ )
ॐअक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ।। १।।
भावार्थ- हे रोगी मनुष्य ! मैं तेरी दोनों आँखों, दोनों नथुनों , दोनों कानों , ठुड्डी , सिर , जिह्वा से रोगों को भगाये देता हूँ ।
ॐ ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात्।
यक्ष्मं दोषण्यमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ।।२।।
भावार्थ- हे व्याधिग्रस्त जीव ! तेरे गले की १४ सूक्ष्म नाड़ियों के, हंसली एवं वक्षःस्थल की नाड़ियों , दोनों कंधों , दोनों भुजाओं, जिसमें से क्रमशः सब हड्डियाँ निकलती हैं , इन सबके रोग दूर करता हूँ ।
ॐहृदयात्ते परि क्लोम्नो हलीक्ष्णात् पार्श्वाभ्याम्। यक्ष्मं मतस्नाभ्यां प्लीन्हो यक्नस्ते वि वृहामि ते ।।३।।
भावार्थ- हे रोगी ! मैं तेरे हृतकमल (हृदय) से , पित्ताधारों ( गालब्लेडर ) से , दोनों बगलों से , गुर्दों से , प्लीहा (तिल्ली) और यकृत ( लिवर ) से रोग का निवारण करता हूँ ।
ॐआंत्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि।
यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्यां वि वृहामि ते ।।४।।
भावार्थ- हे व्याधिग्रस्त प्राणी ! मैं तेरी आंतों, गुदा के चक्रों तथा नाड़ियों, उदर , दोनों कोंखों की थैली और नाभिचक्र के स्नायुजाल से , रोग निवारण करता हूँ ।
ॐउरुभ्यां ते अष्ठीवद्भ्यां पार्ष्णिभ्यां प्रपदाभ्याम् ।
यक्ष्मं भसद्यं श्रोणिभ्यां भासदं भंससो वि वृहामि ते ।।५।।
भावार्थ- हे रोग ग्रस्त जीव ! मैं तेरी जंघाओं, घुटनों , एड़ियों , पैरों के पंजों, नितंबों , कमर , और गुह्य स्थानों से रोग को दूर करता हूँ ।
ॐअस्थिभ्यस्ते मज्जभ्यः स्नावभ्यो धमनिभ्यः ।
यक्ष्मं पाणिभ्यामंगुलिभ्यो नखेभ्यो वि वृहामि ते ।।६।।
भावार्थ- हे रोगी ! मैं तेरी हड्डियों, मज्जा आदि ,पुट्ठों, नाड़ियों ,और हाथों , अंगुलियों तथा नखों से सब रोग दूर करता हूँ ।
ॐअंगे अंगे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबहेर्ण विष्वंच वि वृहामि ते ।।७।।
भावार्थ- हे रोग से दुःखी प्राणी ! तेरे ऊपर न कहे हुए प्रत्येक अंग में , संपूर्ण रोमकूपों में , और प्रत्येक जोड़ में , जो रोग हो गया है , उस रोग को मैं दूर करता हूँ और तेरी त्वचा में जो रोग पहुंच गये हैं , उन्हें दूर करता हूँ । तेरे नेत्र आदि संपूर्ण अंगो में व्याप्त रोग को महर्षि कश्यप के विबर्ह से दूर करता हूँ ।
ॐआरोग्यम् ॐआरोग्यम् ॐआरोग्यम् ॐॐॐ
ॐआनंदम् ॐ आनंदम् ॐ आनंदम् ॐॐॐ
इस प्रकार के मंत्रों का उल्लेख अथर्व वेद मे मिलता है । मंत्र के भावार्थ के क्रम मे अपनी प्राण ऊर्जा का प्रेषण अपने दाहिने हाथ से करना चाहिए। यहां फिर से स्मरण करवाता चलूं यह झाड़फूंक का विषय नही है । इसके पीछे छिपे विज्ञान को समझना है ।