पिछले अध्याय मे हमने पढा की शरीर की प्राण शक्ति का ह्रास असंयमित जीवन जीने से अर्थात इन्द्रियों का दास बनकर जीने से प्राण ऊर्जा का क्षरण होकर मनुष्य संसार मे रोग शोक को प्राप्त होता है ।
आज हम प्राण ऊर्जा को बढाने वाली साधनाओ मे से एक साधना के बारे मे चर्चा करेंगे ।
प्राणाकर्षण साधना ---
शान्त कक्ष मे सीधे लेट जायें और अपने नेत्र बंद कर लेवे । शरीर पर ढीले वस्त्र हो किसी प्रकार का व्यवधान वस्त्रो की कसावट से न हो । अब अपने आपको विचार शुन्य बनाने का प्रयास करे । बार बार जो भी विचार आते है उन्हे हटा दे । जब सब तरह से सामान्य हो जाये तब अपने फेफड़ो में श्वास को भर लेवे और अंदर ही रोके रखे । यह प्रक्रिया तब तक करनी है जब तक श्वास रोके रखने मे घुटन न हो । अर्थात आसानी से जितनी देर रोक सकते है उतनी देर तक रोके । श्वास रोकने के पश्चात फेफड़ो मे भरी वायु को अपनी एकाग्रता से अपने मस्तिष्क मे भेजे फिर अपने हाथो मे फिर अपने हृदय मे, फिर अपनी पेट मे, भेजते हुए पांवो तक आये । शुरू शुरू में श्वास को एक बार रोकने से सम्पूर्ण शरीर मे भेजने का कार्य नही कर पायेंगे । इसके लिए कई बार श्वास लिया और छोड़ना पड़ सकता है । ऐसा दिन मे दो बार या तीन बार अभ्यास कर सकते हैं लेकिन बलपूर्वक नही करना है । यदि बल पूर्वक अभ्यास किया तो हानि हो सकती है । इसमे जिन अंगो तक ऊर्जा पहुंचाई है । जब दुबारा श्वास भरकर अभ्यास करे तो पहले पहुंचाये अंगो का पुनः ध्यान करें और महसूस करे की ये अंग ऊर्जावान हो गये हैं । ऐसा कर आगे बढे ।
कुछ दिन के अभ्यास से जहां वायु का प्रेषण करते हैं उस भाग मे चुन-चुन होने लगती है । एक ऊर्जा का प्रवाह चलता हुआ महसूस होने लगता है । जब एक बार के श्वास रोकने से सम्पूर्ण शरीर मे ऊर्जा का प्रवाह करने मे सक्षम हो जायें तब एक नया अभ्यास उसमे शामिल कर देवे ।
जब ऊर्जा से ओतप्रोत शरीर हो जाये तब उस ऊर्जा को अपने किसी एक अंग से दूसरे अंग मे प्रवाहित करे , इस प्रक्रिया मे श्वास बिना रोके करना है । श्वसन की प्रक्रिया सामान्य रूप से चलती रहे । ऐसा अभ्यास करने से ऊर्जा को मन चाहे अंग की तरफ भेजने का अभ्यास हो जायेगा । नियमित अभ्यास से इस क्रिया मे सरलता व शीघ्र कर लेने की क्षमता भी विकसित हो जायेगी ।
प्राण ऊर्जा का स्रोत सूर्य है अग्नि है इनसे भी यह ऊर्जा प्राप्त की जासकती है । जलती हुई अग्नि के समीप उचित दूरी पर बैठकर भावना करना, अग्नि का दिव्य तेज मेरे नासा छिद्रों से मेरे शरीर मे प्रवेश कर रहा है और मेरे प्रत्येक अंग मे जा रहा है । मेरे रोम कूप भी इसका अवशोषण कर रहे है । इससे मेरा शरीर मेरा मन पवित्र होकर नयी ऊर्जा से ओतप्रोत हो रहा है । उस ऊर्जा की लपटे मेरे शरीर से निकल रही है । ऐसी भावना करने से कुछ सप्ताह के अभ्यास से शरीर से ऊर्जा निकलने लगती है ।
यही प्रक्रिया प्रातः सूर्योदय के समय भी की जा सकती है । अग्नि के सामने बैठकर अभ्यास करना होता है और जब सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करनी हो तो सूर्य को पीठ देकर बैठे या खड़े होकर वही भावना करे । सूर्य का तेज मेरे शरीर पर पड़ रहा है मेरा शरीर इसे सोख रहा है , मेरा शरीर ऊर्जा से ओतप्रोत हो गया है । मेरे अंग अंग मे दिव्य तेज दौड़ रहा है ।
साधना इस प्रकार कर लेने के पश्चात उस प्राप्त ऊर्जा से लोगो के रोग दूर किये जा सकते है ।