समीक्षा - कहानी संग्रह, सुर्ख़ लाल रंग VIRENDER VEER MEHTA द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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समीक्षा - कहानी संग्रह, सुर्ख़ लाल रंग

जीवन के ठोस धरातल से जन्म लेती कहानियाँ. . . 'सुर्ख़ लाल रंग'

साहित्य की विधाओं में कहानी विधा एक मात्र ऐसी विधा है जिसकी पहुँच एक साधारण पाठक से लेकर एक श्रेष्ठ ज्ञानी तक समान रूप से सक्रिय एवं लोकप्रिय माध्यम के रूप में उपलब्ध रही है। आज आधुनिक युग के व्यस्त समय में भी, जहां विभिन्न विधाओं के बीच कहानी को पसंद करने वाले पाठकों की कमी नहीं है, वहीं कहानी विधा के समर्पित सृजनकर्ताओं के रूप में श्रेष्ठ लेखकों की भी कमी नहीं है। ऐसे ही एक श्रेष्ठ साहित्यकार विनय कुमार की कलम से निकला उनका प्रथम कहानी सँग्रह 'सुर्ख़ लाल रंग' हाल ही में प्रकाशित हुआ।

अगोरा प्रकाशन, वाराणसी उत्तर प्रदेश से प्रकाशित हुए इस कहानी सँग्रह में कुल चौदह कथाओं को शामिल किया गया है। पुस्तक के आकर्षक आवरण चित्र को बनाया गया है अनुप्रिया द्वारा, और सँग्रह की सारगर्भित भूमिका युवा कथाकार दीपक शर्मा द्वारा लिखी गई है।
सँग्रह की अधिकांश कहानियाँ सहज ही ज़मीन से जुड़ी और जीवन की सच्चाइयों के ताने-बाने में बुनी हुई हैं, ऐसा लगता है मानो लेखक ने हर कथ्य में कहीं न कहीं अपने जीवन के अनुभवों को आधार बनाया है। विषयों की विविधता इस सँग्रह का एक विशेष आकर्षण है।

सँग्रह की शुरुआत होती है सँग्रह-शीर्षक कथा 'सुर्ख लाल रंग' से। सांप्रदायिक दंगों के प्रभाव की पृष्ठभूमि में रची यह कथा हथकरघे पर कपड़ा बुनने वाले रज्जक की है, जो दंगों की छाया को वक़्ती असर मानकर अपने बच्चों के साथ गांव छोड़कर जाने की जगह, अपने एक परिचित लक्ष्मण की बेटी की साड़ी बुनने में जुटा रहता है। और अंत में किसी विरोधी की भावना का शिकार होकर अपनी जान खो देता है। रज्जक के बहते लहू के रंग में सरोबार होती तैयार साड़ी कथा के शीर्षक को तो सार्थक करती ही है, लेकिन साथ ही पाठक को भी हतप्रभ कर जाती है। विषय ग़ौरतलब है, भले ही कथा एक नकारत्मक अंत पर खत्म होती है लेकिन ट्रीटमेंट और भावों का चित्रण अच्छा हुआ है।
परिवर्तन की बयार लेकर आती कहानी 'असली परिवर्तन' आदिवासी क्षेत्रों में स्थित एक बैंक की ग्रामीण शाखा की है, जिसमें शहर से स्थांतरित हो कर आए अधिकारी के परिवर्तनशील नजरिए को विस्तृत ढंग से चित्रित किया गया है। बैंक की स्थिति सुधारने के बाद जब बात आती है, बैंक के आदिवासी क्षेत्रों के ऋण-रिकवरी की; तो उसके सामने निर्धनता के निचले स्तर पर रह रहे लोगों से रिकवरी न कर पाने की विकट स्थिति आ खड़ी होती है, जो सहज ही उसके वश में तो नहीं है लेकिन उसे हल करने का निश्चय वह अवश्य कर लेता है।
वृद्धावस्था या सेवानिवृत एक ऐसी स्थिति है, जिसकी अधिकांश कथाओं में उनकी विवशताओं का ही चित्रण होता है, लेकिन इस सँग्रह की कथा 'आत्मनिर्भरता' न केवल पिता के सकारात्मक रूख़ का चित्रण करती है बल्कि पुत्रों द्वारा पिता के स्वाभिमान को क़ायम रखने के साथ उन्हें एक बेहतर जीवन देने का संदेश भी प्रेषित करती है।

अगली कथा 'इंतज़ार' एक ऐसी सर्जन की व्यथा है जो स्वयं अपने पिता के गलत निर्णय के कारण बदसूरती का अभिशाप झेलने के लिए विवश है।
कथा दो विषयों पर एक साथ फोकस करती है, जहां एक ओर इसमें नायिका द्वारा पिता के उसे गर्भ में ही समाप्त करने के निर्णय के लिए सजा देते दिखाया गया है, वहीं अपनी बदसूरती के कारण किसी और पुरुष को अपने जीवन में न आने का विषय दिखाया गया है।
'उदास चाँदनी' कथा है साथ उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले दो युवाओं समर और कनु की। जहां कनु पूरी तरह से समर के प्रति समर्पित है और उसके साथ जीवन बिताना चाहती है, वही समर अपने जीवन-लक्ष्य के प्रति कुछ अनिश्चित है और सदियों से उपेक्षित वर्ग को मुख्य धारा में लाने के लिए 'कुछ' करना चाहता है लेकिन क्या? शायद वह स्वयं भी इसके लिए आश्वस्त नहीं है। विषय पूरी तरह से मनोविज्ञान और आदर्शवाद के बीच एक द्वंद पर आधारित है। जिसका अंत दोनों प्रेमियों के नदी के दो किनारे की तरह होता है।

कहानी 'फिर चांद ने निकलना छोड़ दिया' का कथ्य भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य पर रचा गया है। हालांकि कथा में चांद के विलुप्त हो जाने की कल्पना को आधार बनाया गया है लेकिन कथा के मूल में बलात्कार जैसी विभीषका का मुद्दा उठाया गया है जहां चांद द्वारा इस घटना के विरोध में पृथ्वी पर अपनी चांदनी न बिखरने का फैसला किया है।
कथा 'कोई और चारा भी तो नहीं' एक पंडित दुक्खू किसान द्वारा अपनी फ़सल को नील गाय, बछड़ों से बचाने के मुद्दे पर उसके सामने पैदा हुई कशमकश की कहानी है। कहानी बड़ी सुंदरता से भगवा बिग्रेड, गौ सेवकों और बूचड़खानों पर प्रतिबंध जैसे तात्कालिक बिंदुओं को भी कहानी में समेटती है और अंत में किसान द्वारा गाय के बछड़े पर 'बल्लम' चलाने के साथ ये संदेश भी दे जाती है कि अन्तोगत्वा मनुष्य की पहली ज़रुरत जीवनयापन अथवा अपने भविष्य की सुरक्षा ही है, बाकी बातें बाद में।
हालांकि आज के आधुनिक भारत में सामंतवाद की घटना किसी को कल्पना लग सकती है, लेकिन ये एक कटु सत्य है कि बहुत से परिवार (अप्रत्यक्ष रूप से ही सही) अभी भी सामंतवाद की गुलामी के दायरे में जकड़े हुए हैं। ऐसे ही एक मंदबुद्धि पात्र की कथा है 'चन्नर'। संस्मरण शैली और ग्रामीण एवं आंचलिक शैली में प्रस्तुत यह कहानी सामंतवाद के बीच मानवीय और भावनात्मक रिश्ते के साथ एक गांव के बदलते वातावरण का अच्छा चित्रण भी करती है।
ग्रामीण परिवेश में ही रचित कथा है 'जीत का जश्न' जिसमें गांव में हो रहे प्रधानी के चुनाव के संदर्भ में गांव से शहर आ बसे बंसी के परिवार सहित कोरोना काल में गांव लौटने और कोरोना के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठने का स्वाभाविक चित्रण दर्शाया गया है।

एक कहानी है 'जुनैद', जिसमें अपने घर परिवार से दूर रह रहे एक छात्र की आर्थिक जरूरत के विषय को लेकर उसके मूल में कश्मीर और शेष भारत के निवासियों के बीच के प्रतिरोध स्वरूप उत्पन्न उदासीन भावना को दर्शाया गया है। हालांकि प्रत्यक्ष में यह कहानी किसी भी विशेष कथ्य को लेकर नहीं चलती लेकिन सरल भाषा में रची यह कथा अपने पीछे बहुत गहरा संदेश छोड़ती है। हम अक्सर सामने वाले की जरूरत को समझने और उस पर निर्णय लेने में बहुत सोच विचार करते हैं, जबकि हमारी थोड़ी सी सहायता किसी की बहुत सी कठिनाइयों को दूर कर देती है। जुनैद की इस कथा को पढ़ने के बाद ये विचार एक पाठक के मन को सहज ही सोचने पर विवश कर देता है।
'पुतलों का दर्द' एक अलग ही विषय की मार्मिक कथा है जिसमें एक 'गारमेंट्स शॉप' के सेल्स मैन के माध्यम से उसके परिवार की व्यथा को दुकान में स्थिति पुतलों (डमी) से जोड़कर उसकी भावनाओं को दर्शाया गया है। कथ्य के मूल में स्तन कैंसर की बीमारी में ऑपरेशन के बाद की उत्पन्न होने वाली रिक्तता का विषय कथ्य को प्रभावी बनाता है।
मृत्यु के बाद की परम्पराएँ आज भी भारतीय समाज में बहुत सी विसंगतियों के साथ जीवित हैं। कहानी 'मुर्दा परम्पराएँ' भी जोखू के पिता के मृत्यु के बाद उनके दाह संस्कार से जुड़ी विसंगति का विस्तार से चित्रण करती है। आर्थिक क्षमता न होने के बावजूद इस परंपरा का पालन करना समाज में कमोबेश ऐसी स्थिति बना देता है जहाँ मृत्यु भावनात्मक रूप से ही नहीं आर्थिक रुप से भी व्यक्ति को त्रस्त कर देती है।
'यह बस होना था' कथा है दो मित्रों के आपसी विश्वास और स्नेह की, जिसमें एक मित्र के बेटे की दुर्घटना के बाद कोमा में जाने का चित्रण है। मित्र के बेटे की इस स्थिति के लिए स्वयं को दोषी मानने वाले दूसरे मित्र की मनोदशा का चित्रण बहुत प्रभावी बना है। किसी भी 'होनी' के पीछे किसी विशेष व्यक्ति को दोषी न ठहराने का संदेश तो कथा स्पष्ट रूप से देती ही है, साथ ही कथा के अंत में अंग दान का वर्णन भी कथ्य को उत्कृष्ठता बख़्शता है।
'सौदा' कहानी है एक बड़ी जात के पात्र 'सितला' की, जो समय के फेर में आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के बाद एक छोटी जात के रग्घू महतो को अपनी ज़मीन (बेटी के विवाह में की गई मांग को पूरा करने के लिए) बेचने के लिए विवश हो जाता है। जात-बिरादरी के विभेद से जुड़ी यह कथा न केवल ग्रामीण समाज के ढांचे को सामने रखती है बल्कि आर्थिक दृष्टि से जाति विसंगति में होने वाले परिवर्तन का चित्रण भी करती नज़र आती है। कथा की भाषा आंचलिकता से भरपूर ज़मीन से जुड़ी होने के कारण पढ़ने में भी सहज ही भली लगती है।

बहरहाल यदि समग्र रूप से सँग्रह पर कुछ कहा जाए तो सँग्रह की कमोबेश सभी कथाएं मनोरंजन तत्व से थोड़ा हटकर समाज में घटित घटनाओं को लक्ष्य करने में उत्सुक लगती हैं। कथाओं में चुने गए विषय कहीं भी जबरन उठाए गए नहीं लगते, बल्कि स्वाभाविक रूप से कथा में से सामने आते हैं। कथ्य के विषय ग्रामीण पृष्ठभूमि से लेकर निम्न मध्यम वर्ग के बीच की यात्रा तय करते नजर आते हैं जिसमें विभिन्न विसंगतियों के साथ पात्रों की कठिन परिस्थितियों को समेटा गया है। हालांकि कथा-पात्रों के नाम के चयन पर लेखक ने अधिक सोच विचार नहीं किया है लेकिन कथानक के बीच पात्र अथवा स्थान से जुड़ी विशेषता का परिचय देना लेखक के लेखन कौशल का एक पक्ष अवश्य कहा जा सकता है। लेखन की भाषा सहज,सरल और यथासंभव कहानी के परिवेश और परिस्थिति के अनुकूल है। पात्रों के संवादों को कथ्य में चलते घटनाक्रम के अनुसार आंचलिक भाषा में पिरोने का पूरा प्रयास किया गया है। कथाओं में कहीं न कहीं कथ्य से जुड़ी विशेष बातों, जैसे विधुत शवदाहगृह, अंग दान का चित्रण, आरक्षण समस्या तथा गौ तस्कर आदि का वर्णन करना लेखक की कलम का एक विशेष पक्ष है।

अंततः यदि सीमित शब्दों में कहा जाए तो पेशे से एक बैंक अधिकारी होते हुए भी लेखक विनय कुमार ने न केवल अपने क्षेत्र से जुड़े विषय पर बल्कि अन्य विषयों पर भी अपनी कलम बहुत सूक्ष्मता से चलाई है। उनका यह सद्दप्रयास सफल हो और यह संग्रह साहित्य जगत में अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ श्रेष्ठ स्थान बनाए, ऐसी ही शुभेच्छा और शुभकामनाओं के साथ मैं भी अपनी कलम को विराम देता हूँ।
सादर !

विरेंदर 'वीर' मेहता, दिल्ली -92.


कहानी संग्रह - सुर्ख लाल रंग (विनय कुमार)
प्रकाशन - अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, (उ. प्र.)
प्रथम संस्करण - 2022
पृष्ठ - 120
मूल्य - (सजिल्द) ₹ 499/- (अजिल्द) ₹ 160/-