हडसन तट का ऐरा गैरा - 40 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हडसन तट का ऐरा गैरा - 40

ऐश ने अपने पंखों को कुछ ढीला छोड़ा और झील के किनारे उतरने लगी। उसे काफ़ी देर से भूख भी लगी हुई थी।
उसने पहले तो पानी के किनारे से कुछ स्वादिष्ट कीट- पतंगों को चुन कर पेट की आग बुझाई फ़िर वो एक भीगी सी चट्टान पर बैठ गई। उसे आलस्य और नींद ने एक साथ ही घेर लिया। वह पलक झपकते ही नींद के आगोश में थी।
आसमान पर सफ़ेद बादलों के छितराए हुए टुकड़े तैर रहे थे जिनके कारण उस पर कभी धूप तो कभी छांव पड़ती। लेकिन झील का पानी ठंडा था इसलिए वातावरण सुहा रहा था।
पिछले दिनों के तनाव और रहस्य झेलती थकी हुई ऐश जैसे किसी स्वप्नलोक में चली गई।
उसे लगा जैसे जिस चट्टान पर वो बैठी थी वो यकायक बर्फ़ की शिला बन कर पानी में तैरने लगी। उस बजरे सी झूलती शिला पर उसे किसी फूलों की टहनी के फड़फड़ा कर अपने बदन से सटने का अहसास हुआ। जल्दी ही वो चट्टान जैसे फूलों के किसी बड़े से गुंचे में बदल गई।
ओह, ये कैसी बेचैनी? ये कैसी राहत?
जैसे कोई युवा परिंदा तेज़ सांसें लेते हुए उसके करीब चला आया हो। उस शोख पक्षी के कंपकंपाते डैने उसे अपने बदन से लिपटते हुए महसूस हुए।
ऐश ने एक अंगड़ाई ली। उसकी चोंच किसी कली के दो पटलों की भांति हौले से खुली। लेकिन देखते- देखते उसकी लंबी - पतली गर्दन से लिपटती हुई किसी छांव ने उसके मुंह में जैसे किसी फूल की पंखुड़ी फंसा दी।
ऐश कसमसाई। चट्टान घूम कर थिरकने लगी और इस डबडबाई ज़मीन पर ऐश किसी गोल घेरे में घूमने लगी। उसे सहसा महसूस हुआ जैसे आज उसके साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो पहले कभी नहीं हुआ।
इस खेल को अब रोका जाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन था। आंखें खुलती ही न थीं।
कोई था जिसने ऐश के तन - बदन पर मानो कब्ज़ा कर लिया था। कोई अजनबी मेहमान उसके तन- महल के उस अनछुए कक्ष में आ बैठा था जिसे उसने आजतक कभी किसी के लिए नहीं खोला था।
ऐश के कितने ही मित्रों, संगी - साथियों ने ये कब्ज़ा चाहा था लेकिन कभी किसी को ये जादुई कोना सौंपा नहीं गया था। आज न जाने किस अदृश्य चाबी ने आकर खुद- ब- खुद ही उसका ताला खोल लिया था। ऐश न जाने कौन से नशे में थी कि उससे ये भी न कह पाई... और निकट मत आ रे! ऐश पलक- पांवड़े बिछा कर उसके नेह की गर्मी सह गई। वो भी इठला कर इस नई दुनिया में समा गया। ओह, मेहमान खुशी से नाचता रहा, झूमता रहा, ऐश भी थिरकती रही, धरती घूमती रही, बादल उमड़ता रहा। ऐश की नींद थी कि नशा, मेहमान का पुरजोश इस्तकबाल होता रहा, पुरज़ोर आलम छाता रहा... जाने दो, होने दो, रोकना क्या, अब कुछ रोका न जा सकेगा! ...दूर सागर के तल में, बूंद भर प्यास छिपी है... सभी की नज़र बचा कर... वहीं जाता है पानी!
समय का किसी को पता न चला।
दुनिया ने इतनी रगड़ खाई कि एक नई दुनिया बन गई। जो कभी न हुआ था, सो अब हुआ।
बारिश हुई। बूंदों ने धरती को भिगो डाला।
ऐश की तंद्रा लौटी। उसने आंखें खोलीं। धूप,छांव, बादल, हवा सब अपनी - अपनी जगह थे, बस ऐश की दुनिया बदल चुकी थी।
उस पर बेहद सुकून बरसा था।
उसकी नज़र उठी तो उसने एक परिंदे को जल्दी- जल्दी चलते हुए चट्टान के ढाल से उतरते हुए देखा।
ऐश की चीख निकल पड़ी। ये चीख किसी दुख- दर्द की नहीं... बल्कि खुशी की चीख थी। ये किलकारी थी। ये ऐश के जीवन का स्वप्नराग था। जो पक्षी किसी अपराधी की भांति जल्दी- जल्दी चला जा रहा था उसके सिर की ओर ऐश ने एक गहरा लाल निशान देख लिया था। उसी निशान को चीन्ह कर तो ऐश ने ये उन्मादी किलकारी मारी।
ऐश ने लगभग छलांग लगाकर उड़ते हुए उस भागते परिंदे के सामने आकर उसका रास्ता ही रोक दिया। और अब उस नर ने भी ऐश की आंखों में आंखें डालकर सुगंधित गहराई से देखा। वह चीत्कार सी कर उठा। ऐसी चीत्कार जो खुशी के अतिरेक में ही हो सकती है। दोनों एक दूसरे को देख कर फूले न समाए।
ऐश और रॉकी लंबे समय बाद फिर आमने- सामने थे!