रॉकी एक सुबह घास पर बैठा धूप सेक रहा था। क्या करता, ठंड ही इतनी थी। रात में तो थोड़ी सी पानी की बूंदें भी गिरी थीं। पानी उसके लिए कोई नई चीज़ नहीं था, वह तो रहता ही पानी के किनारे था। लेकिन ये पानी जो आसमान से गिरता था न, इसकी सिफत कुछ अलग ही थी। ये बदन को तो भिगोता ही था साथ में आसपास की हवा को भी ठंडा कर देता था। बस, सर्दी बढ़ जाती।
तभी रॉकी ने कोई आवाज सुनी। बिल्कुल उसकी जैसी ही आवाज। वह सिर उठा कर इधर- उधर देखने लगा। सामने कुछ ही दूरी पर उसे ऐश आती दिखी। ऐश बिल्कुल उसी की तरह ही दिखाई देती थी। दूर से उन दोनों को साथ देख कर उन्हें "दो हंसों का जोड़ा"ही समझा जाता था।
ऐश की कहानी भी कोई कम दिलचस्प नहीं थी। ऐश का जन्म एक ऊंची इमारत के पिछवाड़े गुलमोहर के पेड़ के नीचे एक खुशबूदार झाड़ी के भीतर हुआ था। उसकी मां भी प्रवासी थी और किसी दूर के सागर तट पर हिमपात होने के दिनों में अपने संगी साथियों के साथ सर्दी से बचने की जुगत में ही इस तरफ़ चली आई थी।
यहां तब इतनी सर्दी नहीं थी। उसकी मां घास में कीट पतंगों को चुगती हुई रोज वहां घूमने आते एक छोटे से पप्पी से मिलने चली आती थी।
एक दिन वही नन्हा पप्पी न जाने कहां से अपनी बिल्डिंग में रहने वाले एक बड़े से खूंखार झबरे कुत्ते को अपने साथ ले आया। झबरा तो पप्पी का दोस्त ही था, वो भला पप्पी की सहेली से थोड़े ही कुछ कहता। वह तो उससे दोस्ती करके उसके साथ खेलने ही आया था। मगर वह युवा हंसिनी उस खूंखार झबरे को देख कर एकाएक घबरा गई। उसने सोचा कि ये कहीं झपट न पड़े। इस खौफ से वह भाग कर पास की एक झाड़ी में जा छिपी।
पप्पी की समझ में जब तक सारा माजरा आता तब तक तो वो प्रवासी हंसिनी ये जा, वो जा, न जाने कहां जा छिपी। नन्हे पप्पी ने उसे खूब ढूंढा। कई आवाज़ें भी दीं। पर वह तो न जाने कहां अंधेरे में जा छिपी।
कुछ देर इंतजार करके पप्पी और झबरा वापस अपनी बिल्डिंग में लौट गए। आख़िर उनका भी तो दाना- पानी का वक्त हो चला था।
उधर उस परदेसी हंसिनी को अंधेरा खूब रास आया।
उसी झाड़ी में भीतर की ओर एक और मेहमान बैठा सुस्ता रहा था। वह झबरे के खौफ में सहमी सी धीरे- धीरे पीछे की ओर सरक रही थी कि तभी उसे अपने पंखों पर कुछ गुदगुदी सी महसूस हुई। अंधेरा घना होता जा रहा था, फिर भी पंखों पर महसूस हुआ स्पर्श इतना सुहाना था कि वह हिल डुल न सकी। वह चुपचाप खड़ी रही।
हज़ारों मील दूर से उड़ कर आने के बाद पंखों की थकान कोई हफ्ते दो हफ्ते में तो उतरती नहीं है, पंखों ही नहीं बल्कि उसके पूरे बदन में एक मीठा- मीठा सा उन्माद तो हमेशा रहता ही था।
एक तो अंधेरा, और दूसरे झाड़ी के बाहर झबरे का खटका, वह कुछ और पीछे खिसक गई। उसे मालूम पड़ गया था कि उसकी नस्ल का ही कोई नर शरारत से उसके पंखों पर चोंच मार रहा है फिर भी।
सच पूछो तो झबरे का तो बहाना ही था, वो क्या अब तक वहां बैठा होगा? वह तो पप्पी के पीछे- पीछे तभी खिसक लिया होगा। मगर करे क्या? ये जो उसके पीछे अंधेरे में छिपा बैठा है ये भी तो पूरा चुंबक है। और और और खिंची चली गई पीछे।
लो, जब वो नहीं हट रही तो वही क्यों पीछे हट जाता। वो भी तो मरद जात था।
मुश्किल से दो पल बीते होंगे कि घूम कर आगे आ गया। चोंच से चोंच मिली। कुछ देर ऐसे ही रहे दोनों और फिर फड़फड़ा कर ऊपर आ गया।
ये खेल कई दिन चला।