हडसन तट का ऐरा गैरा - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हडसन तट का ऐरा गैरा - 2

ये बहुत अच्छा था कि रॉकी हडसन नदी से थोड़ी सी दूरी पर बनी एक छोटी सी कंदरा में रहता था। क्योंकि नदी इतनी तेज़ी से बहती थी कि उसके किनारे रह पाना बहुत ही मुश्किल था। अब कोई इतनी तेज़ धारा के समीप आखिर कब तक रह सकता है? कभी तो थकान के कारण ध्यान चूकेगा ही। और बस, ऐसे में लहरें उसे बहा कर ले जाएंगी तथा न जाने कहां का कहां लेजाकर पटकेंगी।
कोई सोच सकता है कि पानी की लहरों से रॉकी को कैसा भय? वह तो खुद एक उम्दा तैराक है! लेकिन कहा जाता है न, कि गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए - जंग में।
तो अब हमारी बात आगे बढ़े और आपके सिर चढ़ कर बोले, इसके लिए ये जरूरी है कि आपका परिचय मिस्टर रॉकी से अच्छी तरह हो जाए। आप उसे अच्छी तरह से जान लें।
रॉकी यहां लगभग दो साल से था। वो हडसन नदी के इस मनोरम तट पर कहां से आया था यह जानने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह कहीं से नहीं आया बल्कि उसका जन्म यहीं हुआ था। हां, उसके माता - पिता अलबत्ता यहां नहीं रहते थे।
संयोग से रॉकी की मॉम एक बार एक पक्षियों के दल के साथ उड़ते- उड़ते यहां चली आई।
यहां एक छोटे से जंगली टापू पर कुछ समय इन सब प्रवासी पक्षियों का वास रहा। यहीं उसकी मुलाकात रॉकी के पिता से हुई जो तेज़ जानलेवा सर्दी से बचने के लिए अपने मित्र पंछियों के साथ एक सुदूर सागर तट से यहां आया हुआ था।
रॉकी की मॉम इस मुलाकात के चंद दिनों बाद गर्भवती हो गई। उनके श्वेत धवल जिस्म में धीरे- धीरे एक प्यारा सा भारीपन उगने लगा।
पंछी उड़ कर वापस अपने अपने डेरे में लौटने लगे। रॉकी की मॉम को भी अपना वतन याद आने लगा। अपने दल के साथ उतरती ठंड में उसे भी अपने ठिकाने पर लौटना ही था।
तो बस, इधर एक पनीली कंदरा के किनारे एक दोपहर रॉकी महाशय अपने अंडाघर को फोड़ कर दुनिया में आए और कुछ समय की उसकी परवरिश कर के उसकी मां वापस लौट गई। वो यहीं रह गया।
उसे याद है कि एक चट्टान के मुहाने पर अपनी ज़िंदगी की पहली उड़ान उसे मां ने ही सिखाई थी। और जब मां ने भांप लिया कि अब उसका बेटा विराट नदी के अथाह पानी से भी नहीं घबराता है तो उसने अपने देश लौट जाने का मानस बना लिया।
इस तरह रॉकी यहीं का वाशिंदा बन कर यहीं रह गया और परदेसी लौट गए।
रॉकी! ये नाम उसने कहां पाया?
इसकी भी एक छोटी सी दिलचस्प कहानी है। एक दिन आसपास के अपने छोटे- छोटे पंछी मित्रों के साथ खेलते- खेलते सबने ये ज़िद पकड़ ली कि सभी पानी से एक - एक छोटी मछली पकड़ कर नज़दीक की चट्टान पर लायेंगे और वहीं बैठ कर उन्हें खाने का आनंद लेंगे।
किनारे पर भूरी नन्ही मछलियों का एक पूरा का पूरा जत्था मंडरा रहा था। आननफानन में इन परिंदों ने फड़फड़ा कर पानी में डुबकी लगाई और अपना- अपना निवाला खोज लाए।
हल्की सुनहरी धूप में बाल परिंदों का महाभोज चल ही रहा था कि रॉकी को सहसा अपनी मां की याद आ गई। वह अपने मित्रों को बताना चाहता था कि उसकी मां ने उसे सबसे पहले इसी जगह पर मछली पकड़ना सिखाया था।
ऐसे...ऐसे .. बस ऐसे उसे पंजे से दबाओ और वो निढाल होकर तुम्हारे काबू में आ जाएगी।
उसने जैसे ही मछली पर अपने पंजे से उसे दबाने के लिए प्रहार किया मछली फिसल कर उसकी गिरफ्त से छिटक गई।
सारे दोस्त खिलखिला कर हंस पड़े। और तभी एक नन्हे ने कहा - तुम्हें पानी के जीवों की ज़रा भी परख नहीं, केवल रॉकी हो तुम।
रॉकी! बस तभी से उसका नाम रॉकी पड़ गया।