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भ्रम - भाग-14

भाग - 14 "भ्रम"

पिछले भाग में आपने पढ़ा, जयंत एक गड्ढे में कूद गया था, जिसकी गहराई जयंत की कल्पना से कोसो दूर थी। जयंत जिस चीज पर गिरा था वह क्या थी??? आइये देखते हैं..😰

वहां का माहौल यूँ था कि लोग रजाई ओढ़ कर और आग जला कर भी बैठते तब भी दांत किटकिटाते रहते और देह थरथराती रहती। मगर जयंत..जयंत के माथे से तो पसीना चू रहा था। हाँ! मगर उसकी पलके जरूर झपकना भूल गईं थीं।

"अहा..मेरा भोजन! बहुत दिन बाद इतना स्वादिष्ट भोजन जुबान पर चढ़ेगा।" एक बहुत ही भयानक आवाज जयंत के कानों ने सुनी।

"क..क..क..कौन..कौन हो तुम!" जयंत घबराया हुआ बोला।

वह कोई जीव था जो जयंत के नजदीक आता जा रहा था, "दू..दू.. दूर हो जाओ मुझसे..क्या हो तुम..किस तरह के जीव हो तुम..कितने भयानक..कितने बदबूदार.. छिह..हट जाओ......"

जैसे ही वह जीव जयंत के पास आया, प्रकाश का रास्ता उसके विशाल शरीर से ढक गया, और अब जयंत को उल्टियां करने का मन कर रहा था, उस से सांस नहीं ली जा रही थी। वह जीव उसे अपने दांतों में भींचने ही वाला था कि तभी जयंत ने अपना बायां हाथ जो की उसके (जयंत के) पीछे छुपा रखा था जिसमें वही अदृश्य जादुई किताब थी। उस जीव को अपने से दूर करने के लिए जयंत ने अनजाने ही वह हाथ आगे किया और अचानक वह जीव छूमंतर हो गया।

जयंत को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ये क्या था जो उसके साथ हो रहा था? वो वहां पानी ने तरबतर एक गुफा में घबराया हुआ था बैठा था। जैसे ही उसे याद आया कि वो किताब उसके हाथ में ही समाई है..वो तुरंत समझ गया कि उस जीव के गायब होने का कारण सिर्फ और सिर्फ यह जादुई किताब है।
"मगर मगर वो जीव था कैसा, किस प्रजाति का जीव था वह?? न तो पूर्णरूप से मछली जैसा, न ही किसी पक्षी जैसा, आखिर पानी में रहने वाले जीवों के किसी विशाल पक्षी की तरह पंख कैसे हो सकते हैं। और इतना बदबुदार..!" जयंत के दिमाग में हजारों सवाल नाच रहे थे।
कुछ देर तक वह बदहवास सा वहीं पड़ा रहा, कुछ देर बाद उसे याद आया कि वह यहां कैसे पहुँचा और उसका इरादा यहां पहुँचने से पहले क्या था। वह हड़बड़ाया हुआ सा खड़ा हुआ..और उस पानी में अपने कदमों को आहिस्ता आहिस्ता बढ़ाता हुआ, आगे बढ़ा! जहां एक बेहद शांत नदी वह रही थी, नदी के दोनों और दीवारों की तरह चट्टानें खड़ी हुईं थीं, जिस पर जंगली पेड़ पौधे कहीं कहीं उग आए थे। वहां पक्षियों का करलव, बेहद सुकूनभरा था। और नदी का धीरे-धीरे बहना, उसकी नीर की कोमल आवाजें सब कुछ उस माहौल की खूबसूरती में तारे से जड़ रहीं थीं।

जयंत के चेहरे पर अनायास ही एक बेशकीमती मुस्कान उभर आयीं, जो बिन कुछ कहे, बिन कुछ सुने..उस अनोखे दृश्य की प्रसंसा के गीत आ रही थी। देखते देखते जयंत की आंखों ने किसी पेड़ का बड़ा सा तना नदी में तैरता देखा। उसे कुछ होश आया और खुद से ही बोला.."न जाने ये फैसला कहाँ ले जाये? मगर मैं इस जगह भी नहीं रुक सकता, इस नदी के अलावा और कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे यहां से हिलने तक का मौंका दे। ठीक है बेटे जयंत! भरोसे पर दुनिया कायम है, तू भी यकीन कर और हो जा इस बहते पानी के संग..!" इतना कहते ही जयंत ने एक ऐसी छलांग लगाई की वो सीधा उस तने पर औंधा गिरा, जयंत ने संतुलन बनाते हुए उस तने को कस के पकड़ लिया, वह तना लगातार पानी के साथ बहता जा रहा था। यहां पानी का बहाव काफी धीमा था, जयंत बड़ी बोरियत महसूस करने लगा था। कुछ आधे-एक घण्टे में वह तना नदी की ऐसी स्थिति पर पहुँचा जहां असाधारण रूप से बहाव बढ़ता चला जा रहा था, यहां जयंत की जैसे नींद खुली, उसने नदी के पानी को निहारा, जो काफी तेज गति से बहने लगा था।

"न जाने ये नदी कहाँ खत्म होगी, न जाने इन चट्टानों से पीछा कब छूटेगा, न जाने किनारों का दीदार किस वक़्त होगा। हाये मेरी किस्मत! न जाने कहाँ ले कर जा रही है मुई!
कहाँ फसा दिया इस मासूम बच्चे को तूने सेजुरानी!" जयंत किस्मत पर रोना रोते हुए बोला।

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"जयंत कहाँ रह गए तुम? राजा जी तो वापस भी लौंट आये, मगर वही मुस्कान, वही आंखों की चमक! कहीं से भी कोई बदलाव उनमें नजर नहीं आता। इसका मतलब! तो यही हुआ कि जयंत ने अपना काम किया ही नहीं। और अब वो किताब भी लेकर उड़ गया है, अब मैं क्या करूँ, मुझे यहां से जल्दी बाहर निकलना है, मैं यहां और अपना वक़्त खराब नहीं कर सकती। मेरे दोस्त! मेरी मां! मेरी बुक्स..मेरा कॉलेज! सब सब कुछ मुझसे दूर है, और न जाने कितनी दूर, न जाने किस मैजिकल वर्ल्ड में फंस गयी हूँ मैं!
काश! काश..मैं उस कमरे में जाती ही नहीं!
लेकिन सारा किया धरा उस उस नानी मां का है। जाने कौनसी दुश्मनी मुझसे निकाल रही है.. वो भूतनी की बच्ची!" सेजू अपने कमरे में बैठी हुई अपने आप में ही बड़बड़ा रही थी। जब सेजू को कुछ न सुझा तो वह तकिए पर सिर रख कर कुछ सोचने लगी, और सोचते सोचते उसकी नींद लग गयी।

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"कैसी है सेजू तू?? जब से ट्रिप पर गयी है एक भी बार कॉल नहीं कि है तूने!" सेजू की मां सपना अपने काम से फोन लागये हुए, शिकायत भरे अंदाज में बोली। उसके ठीक सामने ही कमलावती बैठी हुई थी, जिसके हाथ में एक किताब थी।

"माँ! हम लोग बस यहां से निकल ही रहे हैं। शाम तक हम सब अपने अपने घर पर होंगे। वहीं आ कर सब बताऊंगी।" फोन के दूसरी ओर से आवाज आयी। जो बेशक सेजू की ही थी। "माँ! आप ठीक हो न! एक्चुअली मैं सोचती ही रही कॉल करूँ आपको, बट.. टाइम ही नहीं मिला।"

"हां! ठीक हूँ मैं! मेरी टेंशन मत ले। मगर तुम लोगो की ट्रिप तो अभी कुछ दिन और..." सपना आगे बोलती उसके पहले ही फोन से आवाज आई.."मां! मैं सब कुछ घर आ कर बताऊंगी! सब अब शाम तक का वाइट और कर लो। ठीक है मां मैं रखती हूं।" लास्ट लाइन सेजू हड़बड़ी में बोली और वहां से कॉल कट हो गयी।

"हेलो हेलो..सेजू.." अचानक कॉल कटने से सपना बौखला सी गई। "ये लड़की भी न! किसी दिन मुझे हार्ट अटैक दे कर मानेगी।" सपना फोन टेबल पर ही रखते हुए बोली।

"क्या कह रही थी..!" कमलावती अपनी किताब में ही घुसी हुई बोली।

"आ रही है शाम को!" सपना कमलावती की ओर बढ़ते हुई बोली।

"मगर उसकी ट्रिप तो..."

"हाँ! वही मैंने कहा..तो बोली, घर आकर बताऊंगी सब!" सपना परेशान सी लग रही थी।

"वैसे तुम्हारी बेटी बहुत मेहनती है।" कमलावती बुक को टेबल पर रखती हुई बोली।

"मतलब..?" सपना अनजानी सी बोली।

"अब देखो न कितनी सारी यात्राओं में जुटी है!" कमलावती मुस्कुराकर बोली।

"कितनी सारी मतलब..आप क्या कहना चाह रहीं हैं मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं।" सपना जैसे कमलावती के कहे एक एक शब्द से अनजान हो।

"तुम नहीं समझोगी सपना रानी! जाओ जाकर एक कप..मसाले वाली गरमागरम चाय लेकर आओ!" कमलावती सोफे पर फैलते हुए बोली। सपना कुछ हिसाब लगाते हुए किचिन की ओर बढ़ गयी।

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राजमहल के एक कमरे में सो रही सेजू हड़बड़ाई हुई सी उठी, उसका चेहरा पसीने से नहाया हुआ था। उसकी सांसे फूल रहीं थीं। वह अपने आप से ही, हाँफते हुए बोली..."वो वो कमला..वो कमला मेरी मां से क्या कह रही थी, और और मेरी मां फोन पर किस सेजू से बात कर रही थी।
मैं मैं कौनसी मेहनत कर रहीं हूँ?? कौनसी यात्रा?? कितनी यात्राएं..??" सेजू ने अपने सिर को जोर से दबाया और खुद से ही खीझते हुए बोली..."नहीं! कहीं मैं पागल न हो जाऊं...ये ये मेरे मेरे साथ क्या हो रहा है। गॉड प्लीज हेल्प मी! मैं यह सब और नहीं सह सकती।"

क्रमशः....

(देरी के लिए सॉरी..🙁)


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