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तकलाकोट में दो मार्केट हैं। एक चिनी तो दुसरा भारतीय। यहाँ चीनी बनावट की हलकी चीजे सस्ती मिलती हैं। ज्योस्त्ना, क्षितिज और मैं बाज़ार में खरीदारी करने निकल पड़े। यह पुरा इलाका रेत और कंकरों से भरा था। छोटे पौधे इधर उधर नजर आ रहे थे। तिबेटीयन औरते कुछ बनाते हुई नजर आयी इसीलिए उनकी तरफ हम बढ गए। वह औरते आसपास के छोटे पौधे निकालते हुए उसपर चाय बना रही थी। उन पौधों का वैशिष्ट्य यह था की वह गीले होने के बाद भी जलते हैं। पानी, चायपत्ती, नमक सोडा और याक के दुध से बना हुआ घी डालकर चाय बनाते हैं। हमने भी वह चाय ले ली लेकिन उसका ज़ायका कुछ अलगही लगा। आदत के कारण हर कोई व्यक्ति मजबुर होता हैं। बाहरी स्वाद भी वह झट से नही अपना सकता। वह चाय पीना उस वातावरण में बहुत आवश्यक रहता हैं। वैसे भी गेस्ट हाऊस से मिली चाय से ज्यादा यह चाय अच्छी थी।
खरीदारी होने के बाद सामान ठीक तरीके से रख दिया। दुसरे दिन कैलाश परिक्रमा के लिए निकलना था। आवश्यक सामान साथ लेकर बाकी सामान यही एक रूम में रखने की सुविधा थी। तो एक बॅग में ज्यादा सामान पॅक किया और कमरे में बॅग रख दी। रात के मिटींग में यात्रियों की दो बॅचेस की गई। एक बॅच कैलाश परिक्रमा के लिए जानेवाली थी और एक बॅच मानससरोवर परिक्रमा की ओर जानेवाली थी। इन परिक्रमा के दौरान चंचल हवामान का सामना करना पड़ता हैं। वातावरण में कभी भी तबदिली आती हैं इसीलिए 40-50 लोगों की सुविधा करना मुश्किल हो जाता हैं। इस कारण दो बॅच करते हुए यात्रा सुखपूर्वक करने का प्रयास किया जाता हैं।
शरीर की चमडी जलने लगे ऐसी धुप, ठंस से फटते हुए हाथ पैर, दिनभर कडी धुप और रातभर सहेन ना कर पाएँ ऐसी ठंड़ यह तो रोज का था। सब ऋतु और हवामान यहाँ एकही दिन में देखने मिलता हैं। उसी कारण मिट्टी ढलने लगती हैं। जीवन अनिश्चित रूप में दिखाई देता हैं। अभी धुप हैं तो अगले क्षण भारी वर्षा का सिलसिला चालू हो जाता हैं। तुफानी हवा चारों ओर बहने लगती हैं। जीवन कितना क्षणभंगुर हैं इसका अर्थ यहाँ कदम कदम पर समझ में आता हैं। ऐसा क्षणभंगुरता का पूर्णरूप से एहसास होते ही मन में लीनता उत्पन्न होती हैं। नतमस्तक होकर पूर्ण शरणागत भाव में ही हम अलौकीकत्व का सफर कर सकते हैं। केवल श्रध्दा के बल पर यह यात्रा पूरी की ज़ा सकती हैं। अन्यथा आपका भ्रम कभी भी टूट कर चूर हो ज़ाएगा और यात्रा अधूरी रह जाएगी।
रात का खाने का समय हो गया। बाहर अभी भी उज़ाला फैला हुआ था। ऐसे में खाना खाने को जी ही नही कर रहा था। कितने बंधे हुए हैं हम आदतों से। समयानुकूल के अनुसार जो चीजे हमने तय की होती हैं वैसे ही करने के हम आदी हो ज़ाते हैं। सुबह का वह रूचिहीन खाना थोडासा चख कर मैं कमरे में आ गई। एक तो कडी ठंड़ और हवा की विरलता से भुख भी कम होती हैं। लेकिन ऐसे कम खाने से शरीर में कमजोरी आ सकती हैं। इसीलिए थोडा खाना जरूरी हैं। थोडे थोडे समय में पानी या ज्यूस का सेवन करना जरूरी हैं। सब निंदीया की आराधना करने लगे। सुबह कैलाश दर्शन के लिए निकलना था। मुझे कैलाश परिक्रमा बॅच में चुना गया था। मेरी ईच्छा थी की पहले मानस परिक्रमा कर के कैलाश दर्शन लेने की। जैसे मानससरोवर में शुचिर्भूत होकर फिर भगवान के दर्शन कर लिए, लेकिन जो हुआ उसे बदला तो नही ज़ा सकता। जो हैं अच्छा हैं ऐसा भाव मन में रखते हुए सो गई।
सुबह आँख खुली तो मन में एक लहर दौड़कर गई। आज अपने जीवन का सबसे भाग्यशाली दिन हैं। आज निसर्ग रूप में कैलाश के सगूण दर्शन होंगे। वैसे देखा ज़ाए तो ईश्वर के दर्शन कितने रूपों में होते हैं। लेकिन उनको समझने के लिए मन सजग होना चाहिए नवविभा भक्ती के नौ सोपान श्रवण, किर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन इसमें से एक भाव से एकरूप हो जाओगे तो परमात्मा दूर नही। भक्ती ऐसा एक ही साधन हैं जिसके व्दारा हम निष्काम कर्म करते हुए आत्मज्ञान की ओर बढ सकते हैं। सांसारीक लोगों के लिए वही एक आसान मार्ग हैं।
अब सिर्फ विचार करने के लिए समय नही था। कर्म ही अनिवार्य था। मौन, धीर गंभीर, प्रकृति में हिमालय स्थित साधनारत तपस्वीयोंकी तपोभूमी की अध्यात्मिक तरंगोंसे भरी लहरे, चारों तरफ उमड़ रही थी। उसी से प्रेरीत होकर सब जल्दीसे तैयार हो गए। विरल हवामान के कारण साँस फुलने लगी। थोडे चलते ही थकान महसूस हो रही थी। सात बजे नाश्ते के लिए बुलावा आया। वहाँ जाने के लिए मन तैयार ही नही था। लेकिन दुसरा कोई चारा भी नही। आठ बजे बस के पास सब इकठ्ठा हो गए। वहाँ सुंदरसा भजन गाया गया।“ भोलेबाबाने ऐसा बज़ाया ड़मरू, सारा कैलाश पर्बत मगन हो गया”। ऐसे भक्ती भरे भजन से सारा वातावरण भावविभोर होने लगा। ऐसी मग्नता में आगे का सफर चालू हो गया। गाडी अब तारचेन के दिशा में बढ रही थी। यह सफर 125 कि.मी. था। पूरे पाँच घंटे वालूकामय, उजडे हुए इलाके से और कच्ची सड़क से सफर चल रहा था। जहाँ नजर पडे वहाँ छोटे मोटे पत्थर, पूरा पत्थरीला इलाका । बस जा रही थी तो पिछेसे धुल मिट्टी का फवाँरा हो जाता था।
सभोवताल अत्यंत सुंदर, पर्वत श्रृंखला नजर आने लगी। पीला, ज़ामुनी, सुनहरा, लाल ऐसे अलग अलग रंगों में डूबे हुए पर्बत देखकर मती दंग रह गई। यह रंगों की फैलावट सिर्फ पर्बतों पर ही दिखाई दे रही थी। मानो कलाकार का कुंचला उपर ही काम खत्म कर गया हो। सफेद बादल कपास जैसै लग रहे थे। उसमें से कही कही पहाडों की शिखर चोटियाँ नजर आ रही थी। समझ नही आया की यह चोटीयाँ इतनी ऊँची हैं या कपास जैसे बादल इन वादियों में विहार कर रहे हैं। पूरे उजडे हुए सृष्टी में भी कितना सौंदर्य समाया हुआ था।
सफर करते करते दूर से कही एक नीली रेखा चमचमाने लगी, और कुछ ही मिनीटों में पूरा चित्र दृष्टीगोचर हो गया। अनोखा नज़ारा था वह। थके हारे शरीर, मन में, वह देखते ही जैसे नवचैतन्य छा गया। गाडी रोको ऐसा पुकारा चालू हो गया। लेकिन गाईड़ ने कहा” यह राक्षसताल हैं। यहाँ से पूरा तालाब नजर नही आता इसीलिए हम आगे ज़ाऐंगे”।
बस से कुदते हुए सब बाहर आ गए। 75 कि.मी. परिघ का राक्षसताल मानससरोवर से अलग हैं। उसका दंतुर किनारा उखडा हुआ था। इसी कारण किनारे पर बहुत सारी भूशीर व्दिकल्प, उपसागर बने हुए थे। सरोवर में लँच्याटो अर्थात हंसव्दिप और तोसेरमा ऐसे दो बेट हैं। मंद लहरों में राक्षसताल का पानी झुम रहा था। चारों ओर से यह अपरूप झगमगा रहा था। लेकिन इस ताल का सौंदर्य शापित सौंदर्य कहलाता हैं। हम यात्रियों को पहले ही सुचना दी गई थी राक्षसताल के पानी को कोई नही छुऐगा। पानी पीना मना हैं। ऐसे कहाँ जाता हैं रावण ने यहाँ भगवान शिव की प्राप्ती के लिए तपःश्चर्या की थी तब उसके पसीने से यह तालाब निर्माण हो गया। सच बात तो अलग ही हैं। लेकिन लोगों को मनवाना हैं तो पौराणिक आख्यायियों का सहारा लेते हुए उनकी भावनाएँ जतन की ज़ाती हैं और विपरीत परिणामों से लोग बच ज़ाते हैं।
ऱाक्षसताल में लोह की मात्रा बहुत हैं। चारों तरफ विविध रंगों के पर्बत दिखते हैं,वह असल में खनिज संपत्ती हैं। पूरे खनिज पर्बतों के कारण वहाँ से जो पानी बहते हुए आता हैं, वह अपने साथ खनिज की मात्रा भी लेते हुए आता हैं। इसमें भी विविध क्षारीय द्रव्यों से ज्यादा लोह खनिज भारी मात्रा में मौजूद होता हैं। इस कारण यह पानी पीने योग्य नही हैं। यह पानी पिते ही पेट में अतीतीव्र वेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। मृत्यु यातना जैसे महसुस होता हैं। ऐसे ज़ड़ पानी में मछलियाँ भी नही हैं, की पानी पिने के लिए पंछी भी नही आते। एक तापसी वहाँ तपश्चर्या करता हैं, तो वह लहरे कितनी सात्विक होनी चाहिए, लेकिन तप में, मैं आ गया तो वह तपःश्चर्या तामसी हो ज़ाती हैं। मुझे भगवान को प्राप्त करना हैं। यह हटयोग ईश्वर को पसंद आता हैं या भक्ती भाव के सरल क्षणों में ईश्वर विराजमान रहते हैं यह तो वह ही जाने।
(क्रमशः)