Nakshatra of Kailash - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

नक्षत्र कैलाश के - 15

                                                                                                    15

भारत के सफर में जो नैसर्गिक सौंदर्य का विविध रूप से दर्शन होता हैं उससे अलग रूप तिबेट मार्ग में नजर आता हैं। दोनों के सौंदर्य में बहुत फर्क हैं। लिपु लेक से तिबेट तक का मार्ग ठंडे रेगिस्तान से जाना जाता हैं। 31 कि.मी. दुरी तय करने के लिए एक घंटा लग जाता हैं क्योंकी पूरा सफर कच्चे रास्ते से, नदी के बहाव से होता रहता हैं। लिपुलेक से निकलने के बाद रास्ते में कितने सारे झरने लग रहे थे। नीले रंगों में डुबे निर्झर, बिना पेड़ पौधों के रंगिन पर्बत, बीच में सिमटती हुई नदी की धारा, उसका कलकल बहना, उस प्रवाह से रेंगती हुई हमारी गाडी, गाडी में सफर करने वाले हम मुसाफिर,  मुसाफिरों में से एक मैं और मुझ में बैठा यह सब देखने वाला मन । विशालता से भरे ब्रम्हांड़ से निकलते हुए अणु रूपी मन की तरफ सफर चलने का आभास हो रहा था। और वह मन भी कैसा, क्षण में पुरे सृष्टी में विहरता हैं तो कभी क्षण में कही शांत बैठ जाता हैं। सच में भगवान एक एक तत्व का ज्ञान देते हुए आगे ले जा रहे थे। उनके दर्शन के लिए शारीरिक, मानसिक स्थिती की अंर्तबाह्य सफाई वह खुद कर रहे थे। आत्मा तो सब से परे हैं। तो खाली हाथ ईश्वर के पास ऐसे क्या लेकर जाना पड़ता हैं ? तो ही वह खाली झोली में ज्ञान का भंडार खुला कर सकते हैं। शायद वह अहं हैं। क्योंकी अहंकार अपने अंदर आ गया, तो पुरी सृष्टी आँखों से ओझल हो जाती हैं। बाकी रहता हैं सिर्फ मैं। मेरे अलावा अगर कुछ नही दिख रहा हैं तो ईश्वर कैसे दिखेंगे ? अहं कम करने का काम निसर्ग करता हैं। अहं कम होते ही मनुष्य का मन हल्का हो जाता हैं। तो साथ में दुःख भी कम होने लगते हैं। ब्रम्हांड़ के विशालता के सामने हम कितने छोटे हैं की उसके एक फुंक से हमारा अस्तित्व ही नष्ट हो जाता हैं। यह परोक्ष ज्ञान यहाँ मिल रहा था।

परोक्ष ज्ञान का एहसास करते करते हम बस के साथ आगे चल रहे थे। रास्ते में कौआ, कुत्ते ,खरगोश दिखाई पडे ,सबके सब पुष्ट दिखाई दिए। रात से मन के उपर भारी तनाव फैला हुआ था। गात्र थक चूके थे। मगर आँख उनकी तरफ देखने के लिए तैयार नही थी क्योंकी फिरसे यह सब देखने के लिए मिलेगा या नही इस विचार से नींदभरी आँखे भी सजगता से बैठी थी।
नाभीढांग से लेकर लिपूलेक पठार , चलते हुए बस तक ज़ाना पड़ता हैं। तब लगभग 11से 12 कि.मी. चलना पड़ता हैं। यह सफर 13000 फीट से चालू हो जाता हैं। उसमें भी 4700 फीट की चढ़ान से 17700 फीट उपर लिपु पहूँचते हैं और वही से फिर 4200 फीट ढ़लान पार करते हुए तकलाकोट पहुँचते हैं।
तकलाकोट यह तिबेट स्थित गाँव हैं। उसकी समुद्रतल से ऊँचाई 13500 फीट हैं। यहाँ आने के बाद हमे घडी दो घंटे आगे करनी पडी। बस तकलाकोट के पुरंग गेस्ट हाऊस पहुँच गई। स्मितहास्य से हमारा स्वागत किया गया। सिर्फ एक स्मितहास्य से दुनियाभर का कोई भी आदमी कैसे अपने से जुड़ सकता हैं इसका प्रत्यंतर आता हैं। क्योंकी भाषा का अड़सर अब बडा हो गया था। कुछ काम तो केवल इशारे के सहारे शुरु हो गए। एक बडे से हॉल में हमें बिठाया गया। वह एक मिटींग हॉल था। चाय का इंतज़ाम वही पर किया हुआ था।

पारंपारिक तरीके से सबका स्वागत करते हुए चाय दी गई। हम जैसे थके हारे लोगों को तो सच में वह वरदान लगा। बाद में चायनीज कस्टम अधिकारीयों ने सबसे फॉर्म भरने के लिए कहते हुए सब यात्रियों के पासपोर्ट और सामान की तलाशी करने लगे। बाद में कमरा नंबर देते हुए जाने की अनुमती मिल गई। जल्दी से कमरे की ओर हम लोग बढ गए। वह एक बडा, हवा से भरपूर और साफ सुथरा कमरा था। साफ सुथरी चीजे मन को कैसे लुभा लेती हैं। स्वच्छ अन्न, जगह, कपडे, मकान, देश, यह सब साफ मिल सकते हैं लेकिन साफ मन का व्यक्ति मिलना बहुत कठिन हैं। ऐसा एखाद व्यक्ति भी अपने आसपास अगर हो तो अपनी निरागसता में वह बाकी लोगों के जीवन में बहार लाता हैं। ऐसे आदमी के साथ जीवन सहजता से परे हो जाता हैं। 
कमरे में आते ही चारपाई (बेड़) को देखकर सबकी रातभर की थकान, गात्रों से उतरकर सामने आ गई। अतिरिक्त ऊर्जा से काम चलाने वाले शरीर ने जबाब दे दिया। सामान जगह पर रखकर ,चारपाई पर अपने थके हुए शरीर को फैला दिया। स्वर्ग कहते हैं वह शायद यही हैं ऐसी स्थिती हो गई थी। अति तीव्र इच्छा पूर्णता पाने के बाद व्यक्ति को स्वर्गसुख प्राप्ती का ही आनन्द होता हैं। वह ईच्छा कितनी भी छोटी हो या बडी, आनन्द तो आनन्द ही हैं। प्यास लगने के बाद पानी पीने के सुख से लेकर जीवन में मनचाहे कितने भी सुखों तक स्वर्ग का आनन्द हम भोगते हैं। लेकिन हर ईच्छा पूरी हो यह जरूरी तो नही। अब हम तो निद्रा सुख में रममाण हो गए। दो घंटे के बाद जब खाने की घंटी बजी तभी इस स्वर्गसुख का त्यागने का समय भी आ गया। सच में सब अनित्य हैं। इसीलिए वर्तमान क्षण में रहो वहाँ सुख ही सुख हैं।

हाथ मुँह धोकर सब खाने के लिए इकठ्ठा हो गए। खाने में चावल , चायनीज सूप, प्रिझर्व किया हुआ अनानास, उबले हुए आलू थे। बहुत भुख लगी थी ।चावल कुछ अलग लगे, लेकिन खाना तो पडेगा ही और नींद भी बहुत आ रही थी। क्षणमात्र ऐसा लगा यहाँ आकर फँस तो नही गए। वह क्षण आया और गया, दुसरे क्षण मैंने अपने आप को संभाला। जो सामने आया वह जल्दी से खत्म कर बिस्तर का रास्ता पकड़ लिया।
अन्नमय शरीर ऐसी भावनाऐं उत्पन्न करता हैं, जिसमें हम अपनी मंजिल की तरफ बढनाही चाहते हैं। शरीर को अन्नमय कोश कहा गया हैं क्यों की आप जैसा भोजन करते हैं वैसा जीवन पाते हैं। आहार केवल जीवन चलाऊ नही हैं, वह एक जीवन जोड़ने की कडी हैं। हम रोज खाते हैं उससे नई कोशिकाएँ बनती हैं और पुरानी साथ छोड़ देती हैं।ऐसे पुरे जीवन में व्यक्ति का दस बार शरीर रूपांतरण होता हैं। आपके व्यक्तित्व की पहली पर्त अन्न ही निर्मित करता हैं। यह मात्रा आपको जीवन की दिशा दर्शाती हैं। मतलब सात्विक भोजन आंतर यात्रा की ओर ले जाता हैं, राजसिक भोजन आपको सिर्फ कर्मगती की ओर ले जाता हैं । तामसिक भोजन शरीर में बैचेनी, विकार ऊत्पन्न करता हैं इस कारण मन शांत नही रहता। अशांत मन में गलत कर्मोंकी झोली भर ज़ाती हैं जिसे साफ करनें में जन्मों की श्रृंखला लग ज़ाती हैं। अपने बुध्दी में अच्छे कर्म, अच्छाई या बुराई का एहसास, कर्मफलों के बारे में सजगता, इसकी शुरवात आहार से ही होती हैं। इसीलिए भोजन केवल आनन्द या कर्तव्य के लिए खाना हैं ऐसा नही। अपने जीवन उद्देश प्राप्ती की वह एक महत्वपूर्ण कडी हैं। शुध्द भोजन से आपका शरीर काँच की तरह पारदर्शी हो जाता हैं जिसका मतलब हैं आपकी अंर्तयात्रा शुरू हो गई।

आधी अधुरी नींद खुल गई। चार बजे फिर से हॉल में इकठ्ठा होना था। थोडा तरोताज़ा होकर सब मिटींग हॉल में आ गए। फिरसे चाय नामक पानी सामने आया। 
वहाँ काम करने वाली हर एक व्यक्ति अपने अपने काम में मशगूल थी। काम के वक्त कोई किसीसे बात नही करता था। इतने लोगों का काम लेकिन गतीपुर्णतासे वह पुरा कर रहे थे। बाद में चलते फिरते बात करते करते उनका स्वेटर बुनाई का काम चालू हो गया। गोरी, छोटे नाक की, चपलता से भरी, तरतरीत हसमुख लड़कियाँ यह सब काम कर रही थी।
हॉल में कुछ खास बात नही चल रही हैं यह देखते एकेक करके सब उठने लगे। हम भी गेस्ट हाऊस के बाहर घुमने निकल गए। बहुत बडी जगह में यह गेस्ट हाऊस बनवाया था। पुरब दिशा की ओर किचन, बगल में डायनिंग हॉल, ऊत्तर ओर दक्षिण दिशा में रहने के लिए कमरे थे। तो पश्चिम दिशा की ओर एक बडासा प्रवेशव्दार और ऑफिस ऐसी रचना थी।जनरेटर पर लाईट की व्यवस्था थी।
अब रंगबिरंगी दुनिया पूरी तरह से पिछे छुट गई।किसी में अभी मन की आसक्ती मत रखना यह संदेश मानो पुरी सृष्टी की ओर से आ रहा था। वहाँ का आकाश बडा लुभावना लगा। इतना पारदर्शी और मन को शांति प्रदान करने वाला आल्हादप्रद नीला आँसमान उससे नजर हटाने को जी ही नही कर रहा था। मानो बर्फाच्छादित अंगुठी में नीलम बिठाया हो ऐसा सौंदर्य निखर रहा था। विशाल नीले आँसमान के नीचे हम बुंदे ऐसा प्रतित होने लगा। न जाने कितनी देर तक उसे निहारते रहे।

आँसमान के नीले जादूई दुनिया के सफर में विहार करते अचानक एक आवाज सुनाई दी। उस आवाज से वास्तविकता की दुनिया में मजबुरन प्रवेश करना पड़ा। नहाने का पानी तैयार हैं ऐसा संदेश आते ही सब नहाने की तयारी करने लगे। गर्म पानी से, थके हारे शरीर का पूरा तनाव दूर हो गया। तरोताजगी महसूस होने लगी। अब हमे बाज़ार जाने की तयारी करनी थी। 
(क्रमशः)                                                                                                                                  

 

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