Nakshatra of Kailash - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

नक्षत्र कैलाश के - 7

                                                                                                    7

मुझे नींद नही आ रही थी। मन विचलीत हो गया था। ऐसी कोई बात थी जो मेरा मन अस्वस्थ कर गई लेकिन वह कौनसी बात वहाँ तक मैं पहूंच नही पा रही थी । धीरे धीरे मन से पिछे की घटनाओं के तरफ जाने का अभ्यास शुरू किया। ऐसे करते करते एक बात सामने आ गई और उसी क्षण मन की अस्वस्थता दूर हो गई। हम अगर अपने मन में अस्वस्थता का कारण ढूँढ पाते हैं तो वह स्थिती वही खत्म हो ज़ाती हैं। मन दिखता तो नही हैं लेकिन अगर मन सदृश्य कोई अवयव शरीर में होता तो उसमें लगभग सात करोड़ सेल रह सकते हैं और हर एक सेल में करोडों सुचनाएँ इकठ्ठा करने की क्षमता रहती हैं। अब सोचो मन के मुकाबले अपना जीवन तो एक ओंस की बराबर हैं। मन ने इकठ्ठा कर रखी हर बात में कब और कौनसी बात स्मृती पटल पर आ ज़ाए और अस्वस्थता का कारण बन ज़ाए इस बात का भी पता नही चलता। मन के अंदर की घटनाओं को देखते रहने का अभ्यास चालू किय़ा तो शरीर और मन एक साथ होने के कारण वह स्मृतियाँ वही खत्म हो ज़ाती हैं । उस कर्म के परिणाम भोगने नही पड़ते। इस तरह खाली हो रहा मन कितना तरोताज़ा लगता हैं। एक नशा सा छा जाता हैं। वही होता हैं साधना का नशा। नाम कौनसा भी दे दो भक्ती ,ज्ञान, श्रध्दा, ध्यान ,सब बस मन को खाली कराने के तरीके हैं। नींद नही आ रही थी। मेरे मन से बहाव चालू था। उसी धून में मैं निंदीया के आगोश में चली गई।

अमृतबेला के समय मेरी आँख खुल गई। कितनी सुंदर होती हैं यह बेला। पूरे सृष्टी में लहराती यह पवित्र लहरे कितना सुकून देती हैं मन को। कही भी थोडीसी कंपन नही। ना बाहर ना अंदर। मन जैसे अथांग सागर में विलीन हो गया हो लेकिन यह बेला बहुत कम समय की होती हैं और इस बेला में जो भी काम करो वह तुम्हे अत्यंत फलदायी यशोमाला प्रदान करती हैं। युवा वर्ग पढाई करे, योगी योग करे, किसी कला का इस समय में अभ्यास करे, जिसमें भी आप यशप्राप्ती चाहते हो वह काम इस बेला में करने से अपार फलप्राप्ती मिल ज़ाती हैं। कही दूर से पंछी चहचहाने की मंद मधूर आवाज शुरू हो ज़ाती हैं और इस अमृतबेला का रूप पलटते हुए  अध्यात्मिक जगत से सांसारिक जगत का समय चालू हो जाता हैं। शरीर जगत के साथ मनचक्र भी चालू हो जाता हैं।
आज से हमारी पैदल यात्रा चालू होनेवाली थी। आगे के पड़ाव में सुखसुविधा का अभाव रहनेवाला था। गर्म पानी कहाँ मिलेगा यह कह नही सकते। हिमालय में कभी भी वातावरण में बदलाव आने के कारण कब कौनसी स्थिती उत्पन्न हो ज़ाए यह कह नही सकते इसीलिए सबने आज गर्म पानी से जी भर के नहा लिया। दूध, कॉर्नफ्लेक्स, चाय ऐसा नाश्ता करते हुए हम लोग बाहर आ गये। वहाँ पर पोर्टर्स और घोडे खडे थे। अपने अपने पोर्टर्स के साथ सबकी ज़ानपहचान करा दी। अब इनके सहारे ही आगे का सफर तय करना था। मुसिबत में जो साथ देता हैं वही अपनासा लगता हैं इसिलिए पोर्टर्स अभी से अपने लग रहे थे। उनको भी इस बात का खयाल था। बातचीत करते हुए उन्होंने भी हमको आश्वस्त किया। यहाँ सामान का वजन किया जाता हैं और ज्यादा सामान यही पर रख दिया जाता हैं। यह प्रक्रिया होने के बाद आगे का सफर चालू हो गया।

आज पूर्ण रूप से कैलाश यात्रा शुरू होनेवाली थी। धारचूला से गाला। धारचूला से मंगती तक का सफर पैतालीस कि.मी. का था। यह दूरी लगभग तीन घंटे की थी। पूरा रास्ता बहुतही खराब घाट मोड़ लेते लेते ही गुजर रहा था। कष्टदायिनी यात्रा का यह प्रारंभ था। भगवान ना जाने कहाँ कहाँ ज़ाके बसे हैं। फिर भी आदमी ने उनका पिछा नही छोडा। ईश्वर भी मन में कहते होंगे दुनिया की कोलाहल से बाहर आ ज़ाओ तभी मुझसे मिल सकोगे। अजस्त्र पहाडों में तैयार किए हुए रास्ते इतने छोटे थे की आमने सामने से दोनो गाडीयाँ साथ में आ गई तो गाडी में बैठे मुसाफिर एक दुसरे से हाथ भी मिला सकते हैं। 
बातचीत के माहोल में हम लोग मंगती गाँव पहूँच गये। कैलाश यात्रा पूरी कर वापिस आनेवाली एक बॅच यहाँ मिल गई। पूरे यात्रा में छे बॅचेस अलग अलग जगह पर एक दुसरी से मिलती हैं। हमारी गाडी देखते ही पोर्टर्स, घोडेवाले सामने आ गए। मेरे पोर्टर का नाम देव था। हँसते हूए मैंने उसे कहाँ मैं तुम्हे देवानंद कह के पुकारूंगी। वह भी देवानंदजी की नकल करता हुआ गाना गाने लगा। अभी सब अपने अपने पोर्टर्स से बात करने लगे। ओम नमः शिवाय के ज़ागर के साथ पैदल यात्रा चालू हो गई। देवभूमी की ओर चलते ही शरीर रोमांचित हो गया। एक अलग एहसास होने लगा। कण कण में भगवान बसते हैं इस उक्ती की जैसे पुनरावृत्ती होने लगी। 
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से इस यात्रा में दो पुलिस अधिकारी, गुंजी गाँव तक साथ आते हैं। दोनों के पास एक वायरलेस सेट रहता हैं। एक अधिकारी यात्रा में सबसे आगे रहता हैं इनसे आगे जाने की अनुमती किसी को नही मिलती। इनको हेड़ कहा जाता हैं और एक अधिकारी सबसे पिछे रहता हैं। इनसे पिछे भी कोई नही रह सकता हैं। इन्हे टेल कहाँ जाता हैं। वायरलेस बेसकँम्प धारचूला और आगे जिस पड़ाव की ओर ज़ा रहे हैं उससे जूडा हुआ रहता हैं। एक डॉक्टर और एक कंपौड़र फर्स्ट एड़ बॉक्स और वैद्यकीय जरूरी चीजे लेकर साथ में ही रहता हैं। एक गाईड़ का रहना भी अनिवार्य हैं। सब सामान घोडे पर लाद कर आगे भेज दिया गया। सबने साथ में चलना तो शुरू किया लेकिन हर एक की गती के अनुसार आगे पिछे करते दुरी बढने लगी और वही से समय चालू हो गया अंर्तमुखता का। अंर्तयात्रा का।

चारों ओर फैला हुआ पहाडों का नज़ारा, बडे बडे वृक्षों का घना साया फैला हुआ था। सुरज की किरणे वृक्षों के पत्तों से मार्ग निकालकर जमीन पर गिरती थी तो वह भी पुरी तरह से नही। पत्तों का साय़ा और सूरज की रश्मियों से बना काले और पीले रंग का बिछोना धरती पर हर जगह बिछा हुआ था। जब गाडी में बैठे थे तब हर दृश्य गतिमान था। कुदरत की नज़ाकत तब नजदीक से देख नही पाए। ऐसे ही जीवन के गती में भी होता हैं। अपना जीवन जितना गतिमान होता हैं उतनी बहिर्मुखता ज्यादा होती हैं। जीवन की छोटी छोटी बाते तब हम समझ नही पाते और बुढापा आता हैं तो जीवन की गती जैसे थम ज़ाती हैं तो पुरे जीवन का मुआयज़ा करने की क्रिया चालू हो ज़ाती हैं। अंर्तमुखता आ ज़ाती हैं। किया हुआ, या जो काम करना रह गया, वह सामने आने लगता हैं। इस स्थिती में मनुष्य़ अपने आप को संभल पाता हैं, तो उसे जीवन जीने की कला प्राप्त हो गई हैं यह समझना चाहिए। जो लोग अपने आप को संभल नही पाते वह समाज के लिए एक बिमारी बन ज़ाते हैं। पहिले खुद को माफ करना सिखो, तो तुम समाज को भी माफ करना सीख ज़ाओगे। निराशा जो बढती ज़ाती हैं उसके लिए बच्चे, पती, समाज जिम्मवार नही हैं। उसके जिम्मेवार हम खुद हैं क्योंकी अपने स्वभाव से विपरीत काम करने की विधी चालू हैं तो वह बेचैनी की परते इकठ्ठा हो ज़ाती हैं और मन अशांत हो उठता हैं। वही अशांत मन, पूरे वातावरण को खराब कर देता हैं। 
अचानक ध्यान में आया, मुझे तो नज़ारों का लूफ्त उठाना चाहिए। विचार तो आते ज़ाते रहेंगे। कोई यात्री घोडे पर बैठने की कोशिश कर रहे थे। बाद में तो घोडे पर बैठना ही था। मैंने पैदल ही आगे चलना शुरू रखा। 
रास्ते के एक तरफ पूरा पहाड़ तो दुसरी ओर गहरी खाई, हरेभरे पेडों से सजे जंगल, कलकल बहती नदी की धारा। पहाडों से गिरते जलप्रपात, यह अनमोल नैसर्गिक संपत्ती देखने के लिए भी एक जगह पर रूकना पड़ता था। पैर फिसलने का ड़र हर समय मंड़राता था। चलते चलते इसका आनन्द नही उठा पा रहे थे क्योंकी वह छोटा रास्ता, पूरा छोटे बडे पत्थरों से भरा हुआ था। कभी पैर के नीचे पानी का बहाव लग जाता तो वहाँ से गुजरते एक अपूर्व आनन्द की लहर तन मन में समा ज़ाती। ठंडे पानी के स्पर्श से एक सुक्ष्म थरथराहट शरीर में फैल ज़ाती। चलते चलते सामने झील दिखाई पडी। हमारा रास्ता उस झील से निकलकर ही आगे ज़ा रहा था इसिलिए पहिले से ही रेनकोट पहनने की सुचना हमको दी गई थी। झील के नीचे से निकलते वक्त ऐसा लगा मानो बचपन लौट आया हो।

(क्रमशः)

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