नक्षत्र कैलाश के - 8 Madhavi Marathe द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नक्षत्र कैलाश के - 8

                                                                                                   8

अब कठीन चढ़ाई शुरू हो गई । मंगती गाँव समूद्रतल से लगभग पाँच हज़ार फीट की ऊँचाई पर हैं। यहाँ से कठिन चढ़ाई शुरू हो ज़ाती हैं। गाला गाँव समुद्रतल से आठ हज़ार पचास फीट ऊँचाई पर हैं मतलब मंगती से गाला जाने के लिए तीन हज़ार फीट की चढ़ाई तय करनी पड़ती हैं। इस में और एक संकट हमारे सामने खडा हो गया। जिस रास्तेसे हमलोग जानेवाले थे वहाँ लँड़स्लायडींग हो गई। तो वह रास्ता बंद हो गया। देव पोर्टर ने कहाँ अब 18 कि.मी. दूरी पर जो लंबा रास्ता हैं वहाँ से ज़ाना पडेगा। अपनी सरकार कैलाश यात्रा के लिए अनेक सुखसुविधा देने की कोशिश करती हैं लेकिन आसमानी संकट के आगे कोई कुछ नही कर सकता। पहले तो यात्रा बहुत कठीन थी। यात्री सिरखा मार्ग से गाला के लिए रवाना होते थे। घने जंगल से लगभग 9 कि.मी. का फासला तय करना पड़ता था। घने जंगल में किटाणू तथा काले भालूओं का ड़र रहता था। यात्रीयों के पैर पर जलू नामक किटाणू बैठ गया तो वह खून चूसता रहता और यात्री को पता भी नही चलता। खून चूसते चूसते जब वह बडा हो जाता तभी उस किटाणू का एहसास होता था इसिलिए सरकार ने दुसरी तरफ से रास्ता बनवाया और वह मार्ग बंद हो गया। अब वही नया रास्ता पत्थरों के गिरावट के कारण बंद हो गया था। लंबे रास्ते से सफर तय करना अनिवार्य हो गया। 
अगर अपनी मंजिल क्या हैं यह व्यक्ति को पता हैं तो वहाँ तक पहूँचने की वह बहुत कोशिश करता रहता हैं। अलग अलग मार्ग अपनाता रहता हैं। अपने ध्येय तक पहूँचने के प्रयास में जो आनन्द हैं वह मंजिल मिलने के बाद नही आता। उस स्थान पर केवल एक सुकून छाया रहता हैं। वह कालावधी छोटा होता हैं। शिखर चढने के बाद उतराव ही आता हैं। वापिस वही बिंदू पर आना पड़ता हैं इसिलिए एक ध्येय पूरा करने से पहले दुसरे ध्येय की रूपरेखा मन में अस्पष्ट रूप से ही सही साकार करनी चाहिए। ऐसा करने से मन का आनन्द व्दिगुनित हो जाता हैं। नही तो बिना ध्येय का घूमता हुआ मन सिर्फ मानसिक बिमारीयाँ पैदा करता हैं इसिलिए चाहे कितने भी रास्ते बदलने पडे जिंदगी जीने के लिए ध्येय जरूरी हैं। श्रम जरूरी हैं। ध्यान जरूरी हैं। सफलता मिलेगी ही।

लंबे रास्ते का सफर आगे बढने लगा। कितनी मजे की बात हैं पहले से हमे इसी मार्ग से ले ज़ाते तो लंबा या पास इस बात का पताही नही चलता और बिना किसी बात के हम सब आराम से सफर के मजे लुटते रहते। अज्ञानता में सुख हैं इस कहावत का प्रत्यंतर आ गया। ज्ञान में हर बात के अच्छे, बूरे परिणाम के बारे में पता चल जाता हैं और उसी की चिंता या खुषी में सारा वक्त चला जाता हैं। अज्ञानता में निरागसता,भोलापन हैं। परीणाम का बोझ लेकर जीने की इनको जरूरत नही पड़ती। जैसे ही हम ज़ान गये, यह रास्ता लंबा हैं तो सबके मन और पैर भारी हो गये। आजही इसे बंद होना था, शुरवात अच्छी नही हुई, अनेक खयालों का लेनदेन होने लगा। ऐसे तो कितने मुसिबतों के क्षण आगे आने वाले थे। सफर चलता रहा। बीच बीच में कुछ टॉफी या सुखे मेवे मुँह में डालते, पानी पिते हुए देव पोर्टर के साथ कभी बात करते, या कभी ओम नमः शिवाय का ज़ाप करते सफर चालू था।
नदी का किनारा साथ में चल रहा था। जैसे माँ बच्चे का हाथ पकड़ के रास्ता दिखा रही हो। चलते चलते कभी पानी से गुजर रहे थे तो कभी रेत से। एक जगह तो दो पहाडों के बीच से पानी प्रचंड़ ध्वनी नाद करता हुआ जोर से बह रहा था। जलप्रपात का वह दृश्य देखते ही मन काँप उठा। वहाँ पत्थर एक दुसरे पर रखते हुए उपर लकडी का पूल बना दिया था। नीचे से पानी जोरकस प्रवाह रूप में बह रहा था। उछलते हुए पानी का नज़ारा देखकर चक्करसा आने लगा। अब उसी पूल के उपर से हमे गुजरना था। पकड़ने के लिए कुछ सहारा था ही नही। एक दो औरते तो रोने लगी। एक एक करते पूल लाँघना था। अभी सबकी इम्तहान की घडी थी। श्रध्दा से अगर कोइ कार्य करो तो वही श्रध्दा तुम्हे प्रेरणा देती हैं, बल देती हैं। मन का धैर्य बढाते हुए एक दो लोगोंने वह पूल पार कर दिया। उनका अनुकरण करती हुई मैं भी आगे बढ गई। मन में शिवजी का नाम लेकर पूल के उपर पाँव रखते उसी पर मन एकाग्र किया। पानी के तरफ नजर ना ज़ाए इस पर ध्यान रखते हुए एक एक पैर जमाते हुए चलने लगी। अंदर बाहर से घिरी हुई ड़र की भावना और मन में जलता श्रध्दा का दीप, कितना अनोखा था यह अनुभव। पूल खत्म होते ही वह अनुभव भी खत्म हो गया। इतने क्षणों के काल में मैंने तो कितनी जिंदगीयाँ जी ली। एक एक करते सब आ गये। किसी किसी को पोर्टर के सहारे ही लाना पड़ा। हमारा एक इम्तहान खत्म हो गया।

पाँच मिनीट तो सब ऐसेही बैठ गये। नया अनुभव जब आता हैं तो शरीर, मन ,विचार सब एकसाथ चलने लगते हैं और जब अनुभव की पुनरावृत्ती होने लगती हैं तो व्यक्ति उसका आदी हो जाता हैं।
दूरदूर तक फैली घाटी और पहाडीयों का दृश्य रमणीय लग रहा था। एक निर्वाचनीय शांती का एहसास उसमें समाया हुआ था। इस शांति में हम प्रवेश करते हैं, तो पता चलेगा अंदर कितनी आवाँज की तरंगे चल रही हैं। जंगल का भी अपना एक नाद होता हैं यह तो पता था लेकिन इस पहाडों से टकराती हवाँ ना जाने क्या गुनगुनाती हैं ? वायुपटल के यह सुक्ष्मस्तर से आप वाकिफ हो सकते हो तो आपका अध्यात्मिक स्तर भी काफी ऊँचाई छू रहा हैं। जो चौथे आयाम के तरफ प्रगती करता हुआ चला ज़ा रहा हैं।
चलने का इशारा हो गया। अब थोडी देर घोडे पर बैठने का मन हुआ। देव पोर्टर की सहायता से मैं घोडे पर बैठ गई। अपनी चाल में घोडा चलने लगा। बैठते ही थोडा ड़र तो लगा, पर पैर फिसलने का ड़र तो इस में नही था इसीलिए सभोवताल का नज़ारा अब देख पा रही थी। शुरू में तो बहुत अच्छा लगा लेकिन मन ऐसी चीज हैं वह नया अनुभव, विचार हमेशा ढूंढते रहती हैं। वह नही मिला तो मन इधर- उधर भटकने लगता हैं। खयालों में रास्ता कट रहा था। 
कुछ देर बाद रास्ते में एक हॉटेल दिखाई दिया। आगे निकल गये थे, वह यात्री वहाँ बैठे हुए नजर आए। घोडे से उतरने के बाद कमर थोडी अकड़ गई थी। चाय की प्याली लेकर एक अच्छी शांत जगह ढूंढकर मैं बैठ गई। शरीर कष्ट तो थे लेकिन मन निसर्ग में सुखावह अनुभव कर रहा था। थोडा आराम करने के बाद चलना चालू हो गया। अब चढ़ाई के समय साँस फूल रही थी लेकिन रूकना संभव नही था। ऐसा लगा जैसे खडे पहाड़ पर चल रहे हैं। हमारे समन्वयक की नजर सब पर गडी हुई थी। धीरे धीरे चलते पड़ाव तक पहूँच गई। मेरे पिछे और चार लोग बाकी थे।

गाला पहूँचने के बाद वहाँ के लोगों ने शरबत के गिलास हाथ में रखते हुए हमारा स्वागत किया। उसका स्वाद चखते सुमित्रा दीदी और में बैठी रही। मन में कोई भी तरंग नही थे। थी तो बस असीम शांति। वह पीने के बाद हम दोनो कमरे की ओर चले गये। वहाँ सामान रखकर थोडा आराम किया बाद में बाहर चले आए। 
सामने एक छोटा मंदिर था। मंदिर में सब लोग इकठ्ठा हुए और सायंप्रार्थना, भजन गायन का कार्यक्रम संपन्न हुआ। एक भाव से प्रेरीत हो कर किया हुआ काम तीव्र गती से फल प्राप्ती देता हैं। सामुहीक भक्ती दुगूनी हो ज़ाती हैं। जिसके भी मन में कुछ विकार ज़ागृत हुआ हो तो वह शांत हो जाता हैं। सच्चे भाव से दिखावे बिना सामुहिक भक्ती के आप अनुयायी हो तो आपको बडी मात्रा में बल प्राप्त होता हैं। यह बल सांसारिक मार्ग में सहायता करता हैं। भजन खत्म हो जाने के बाद हम लोग खाना खाने के लिए भोजनालय में इकठ्ठा हुए।

दिनभर के परिश्रम के बाद भुख लगना स्वाभाविक था। गर्म टोमॅटो सूप, गोबी की सब्जी, रोटी और चावल ऐसे सादे स्वादिष्ट आहार से तृप्ती हो गई। कोई तैयार किया हुआ भोजन लाकर दे रहा हैं यह बात मुझे बडी अच्छी लग रही थी। हाँथ धोकर कल की तयारी करने के लिए कमरे में गई तभी कोई पुकारता हुआ सुनाई दिया, तो लपक के फिर हॉल पहूँच गई। मि. पूरी कल के दिन कुछ सुचनाएँ देने वाले थे। कल का दिन आज से ज्यादा कष्टदायक था। पूरा विश्लेषण सुनने के बाद हम सोने के लिए गये। सुबह चार बजे उठना था। दिनभर की थकान से झट से आँख लग गई। 

(क्रमशः)