नक्षत्र कैलाश के - 9 Madhavi Marathe द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नक्षत्र कैलाश के - 9

                                                                                                 9

तीन बजे ही नींद खुल गई। हिमालयीन वातावरण की यह खासियत हैं व्यक्ति कितना भी थका हारा क्यों ना हो ,रात की चार पाच घंटे की नींद उसे एकदम तरोताज़ा बना देती हैं। बिस्तर से उठकर खिड़की से बाहर देखने हुए धीरे धीरे इस अमृतबेला के ज़ादू में विलीन होने लगी। योगी इस समय योग करते हैं, तो उनके ध्यान के स्पंदन पूरे सृष्टी में समाए रहते हैं। मन के अंर्ततल तक यह शांति की तरंगे लहराती रहती हैं। इस समय मनुष्य, जीवन के सुख और दुःख दोनो भी याद नही कर सकता। सभी भावभावनाओं से परे का यह समय मुझे क्षण क्षण जीना हैं।

धीरे धीरे सृष्टी में मानवी स्पर्श का एहसास होने लगा। मैंने भी आगे निकलने की तयारी चालू की। आज का दिन गाला से बुधी गाँव तक  का अतिकष्टदायक ऐसा सफर तय करना था। चाय नाश्ता करने के बाद  ओम नमः शिवाय के ज़ागर से चलना प्रारंभ हुआ। पहाडी की चढ़ाई तो हमने कल के दिन में पूरी की थी। आज पहाडी की ढ़लान से सफर चालू हुआ। अभी भी सृष्टी का हराभरा रूप नजर के सामने था। ऊँची ऊँची पहाडी चट्टान ,तो दुसरी तरफ गहरी खाई ,वहाँ से ज़ोरशोर से बहने वाली कालीगंगा नदी, ऐसे में अपना पैर फिसल गया, तो शंकरजी की तिसरी आँख अपने लिए खुल गई समझ लेना।
चलते चलते 21 कि.मी. के बाद बिंदाकोटी गाँव लगा। वहाँ शिवजी का एक मंदिर था। अंदर जाकर देखा तो पिंडी पर अखंड़ धारा लेते हुए सगुण रूप में शिवजी वहाँ स्थित थे। वंदनादी प्रार्थना करते हुए मैं बाहर आ गई। चारों ओर दृष्टी गडाएँ देखने लगी। यकायक नजर रूक गई। नेत्र विस्फारीत हो गये। बहुत सारी सिढीयाँ मोड़ लेते हुए नीचे की ओर ज़ा रही थी। तभी समन्वयक ने बताया इसी सिढीयों से अभी हम नीचे उतरने वाले हैं। यहाँ से लखीमपूर जाने के लिए 4444 सिढीयाँ लगती हैं। यह सिढीयाँ म्हैसूर के महाराज़ा वाडियार इन्होंने बंधवाई हैं, वह जब कैलाश मानससरोवर की यात्रा पर निकले थे। तो उन्हे बहुत तकलीफ सहन करनी पडी । दुसरों को तकलीफ ना हो इसिलिए उन्होंने यह सिढीयाँ बनवाई थी लेकिन सिढीयाँ एकसमान नही हैं क्योंकी जैसे जैसे पत्थर मिलते गये वैसी सिढीयाँ बनती गई। कही पर चट्टान की खूदाई कर के सिढी बनाई हैं। कही पर 6 इंच तो कही पर 2 फीट ऐसे अनियमित रूप से सिढीयाँ उतरनी पड़ती हैं। उतरना चालू हो गया। ऐसे लग रहा था जैसे यह सिढीयाँ पाताल में ज़ा रही हैं।

अनियमित सिढीयों के कारण पैर फिसलने का ड़र भी था। देव पोर्टर मेरे इर्द गिर्द घुमता रहता। कभी जरूरत पडी तो झट से संभाल लेता था। सृष्टी के रौद्र रूप में से सफर चालू था। गाला से लखीमपूर 1400 फीट नीचे उतरने की प्रक्रिया चल रही थी। पहाडों पर चढ़ाई करते समय ज्यादा तकलीफ होती हैं लेकिन अभी पता चल रहा था उतरते वक्त घुटनों पर ज्यादा वजन की मात्रा पड़ने से पैर कपकपाँ रहे थे। लखीमपूर गाँव में तीन हॉटेल्स थे। इतने दुर्गम पहाडी में केवल यात्रीयों की सुविधा के लिए यह हॉटेल्स चलाई ज़ाती हैं। एक हॉटेल में हम लोगों ने पराठा और आलू की सब्जी का नाश्ता कर लिया। थोडी देर विश्राम के बाद फिर चल पडे। 
लखीमपूर के बाद कुछ ही दूरी पर नजांग झरना लगा। पहले इस झरने पर एक पूल बंधवाया था लेकिन पानी के बहाव की वजह से वह पूल बह जाने के कारण अभी वहाँ एक लकडी का पूल बंधवाया हैं। यहाँ पानी का बहाव काली नदी के बहाव के मुकाबले बहुत ज्यादा और शुभ्र दुधिया रंग का था। इस झरने का दुधिया रंग का पानी, आगे जाकर काली नदी में परिवर्तित होता हैं। पहाडों के क्षारीय प्रमाणों के कारण पानी रंग बदल देता हैं। 
मानव भी कितने परिस्थितीयों में अलग अलग वृत्तीयाँ धारण करता हैं। पानी जिस रंग में घोल दे उसी में एकरूप हो जाता हैं। पर मानव तो परिस्थिती से बाहर निकलने के बाद अपने मूल स्वभाव में रूपांतरीत होता हैं। एकरूपता का दिखावा करता हैं पर अंदर से वह भी ज़ानता हैं की, ज़ो दिखा रहा हूँ, वह मैं नही हूँ। वह चुभन व्यक्ति को अंदर से खाए ज़ाती हैं और वही कारण एक बिमारी बन ज़ाती हैं इसीलिए कहते हैं व्यक्ति अपना भाग्य खुद बनाती हैं और बिगाड़ती भी हैं। दुसरा कोई इसके लिए जिम्मेवार नही होता।

अभी चलना मुश्किल लग रहा था, इसीलिए घोडे पर बैठ कर आगे का सफर ज़ारी रखा लेकिन तीव्र चढ़ाई या ढ़लान का रास्ता आने पर घोडे से उतर कर पैदल चलना पड़ता था। देव पोर्टर को हिंदी भाषा थोडी बहुत आती थी इसी कारण हम दोनो बातचीत कर पा रहे थे। यात्रा में आए अनुभवों को, बडी मजेदार ढंग से वह कथन करता था। वातावरण के अनुमान, कैलाश की भौगोलिकता पुराणकालीन कथाएँ, औषधीयाँ ऐसे बहुत से विषय की ज़ानकारी उसके पास थी। देव का आवाज भी पहाडी और मधुर था। जब मन में आए वह गाना गाने लगता और इस नए अनुभव में मैं खो ज़ाती। मुझे तो पोर्टर लोगों की जीवनशैली देखकर बडा अचरज लगा। सुखसुविधा के अभाव में भी यह लोग मस्त मौला जीवन जीते हैं। केवल यात्रा ही उनका कमाने का जरीया हैं। प्रतिकूल वातावरण में रहने वाले यह लोग आधूनिकता से भरे वातावरण में शारीरिक तथा मानसिक रूप में ठीक से रह नही पाते हैं। हम जब लदाख गये थे तब लदाख से काश्मिर लेकर आनेवाला ड्रायव्हर काश्मिर आतेही पसीना पोंछ रहा था। उतनी गरमी से भी उसे अस्वस्थता आने लगी। हमे छोड़कर झटसे उसने अपना रास्ता अपनाया इसीलिए जो जहाँ पैदा होते हैं उसी के अनुसार व्यक्ति की शारीरिक रचना और क्षमता होती हैं। 
अब ऊँचे ऊँचे वृक्ष पहाडों पर ही नजर आ रहे थे। कही जगह पर स्थानिक खेतीबाडी का दृश्य दिखाई दे रहा था। नैसर्गिक असीम शांती में शारीरिक कष्ट विलीन हो रहे थे। भविष्यकाल और भूतकाल का फाँसला धुंधला होने लगा। ऐसे लग रहा था अनादी अनंत काल से, इसी शांति में चलती ज़ा रही हूँ। सफर कभी खत्म ही नही होगा लेकिन पुरा जगत अनित्य हैं। यह सृष्टी अनित्य हैं। तो मै जी रही हूँ वह क्षण कैसे नित्य रहेंगे इसीलिए सुक्ष्मता में रहने योग्य अपना मानस बनाने की प्रक्रिया ज़ारी रखनी चाहिए। वह प्रक्रिया हैं केवल ध्यान।

अब हमारा काफिला मालपा गाँव की तरफ बढ रहा था। नजांग झरने का पूल लाँघने के बाद मालपा तक का रास्ता पहाड़ में  तैयार किया हैं। लगभग तीन फिट का रास्ता पैर सड़क जितना हैं। चलते वक्त बहुत जगह पर फुहारे लग रहे थे। कभी पैर के नीचे से छलछल बहते पानी के छोटे मोटे बहाव आ ज़ाते। कभी पहाडों से गिरते झरनों की नज़ाकत सामने आ ज़ाती। कही झरनों की गुनगूनाहट दूर से सुनाई देती, तो कभी झरनों की सरगम में भीगते हुए उसी धुन में आगे चले ज़ाते। 
धीरे धीरे मालपा गाँव के निकट पहूँच गये। अत्यंत मनोरम सृष्टीसौंदर्य से भरपूर इस गाँव को किसी की नजर लग गई। जैसे पूनम के चाँद को ग्रहण लग गया हो। कैलाश ज़ाते समय यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव हुआ करता था। लेकिन 17 अगस्त 1998 में कैलाश यात्रीयों की नौ नंबर की बॅच यहाँ पहूँची। इस बॅच में मशहूर नर्तिका प्रोतिमा बेदी थी। इतने सुंदर शांत नीरव वातावरण में भगवान को अपनी कला से रिझाने का,  भक्ती करने का प्रयास अगर कलाकार करना चाहे तो वह बात परिपूर्ण हैं। इतना अच्छा मौका कोई भी कलाकार नही छोड़ सकता। प्रोतिमा बेदी ने अपने सुंदर नृत्याविष्कार से भगवान शिव की आराधना की, और शंकरजी ने प्रसन्न होकर उन्हे और अन्य यात्रीयों को मुक्ती दे दी, या शंकरजी को आवाहन करने के कारण सबका सर्वनाश हो गया। यह अपनी अपनी सोच की बात हैं। गाँव के रहिवासी उन्हे नृत्य करने के लिए मना कर रहे थे लेकिन उन्होंने लोगों की बात अनसुनी कर दी और नृत्यविष्कार के समय ही पूरा का पूरा गाँव एक पहाड़ के गिरने से नष्ट हो गया।

(क्रमशः)