नक्षत्र कैलाश के - 14 Madhavi Marathe द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नक्षत्र कैलाश के - 14

                                                                                             14

नाश्ते के बाद सब बाहर आ गए। चारों ओर घना अंधियारा छाया हुआ था। चांदनी रात में अंधेरा घना लग रहा था या तारों नक्षत्रों की तेजस्विता यह तो समझ के बाहर हैं। लेकिन एक दुसरे के बिना दोनो अधूरे हैं। आज हम लोग चीन में प्रवेश करने वाले थे। नाभीढांग से लेकर लिपू लेक तक का सफर अत्यंत दुर्गम। अति तीव्र चढ़ान के कारण यात्री के साथ घोडे भी थक ज़ाते हैं। लगभग 5000 फिट ऊँचाई की चढ़ाई अत्यंत कम समय में तय करनी थी। प्रचंड़ ठंड़ से भरा तापमान, घना अंधेरा, हलकेसे गिरते ओंस की बूंदे ,ऐसे वातावरण में चढ़ान चढनी थी। लिपूलेक पास तक सात बजे से पहले पहूँचना जरूरी हैं क्यों की सुबह पहूँचने में देर हो गई ,नौ बजे से पहले ना पहूँच पाएँ तो चढना मुश्कील हो जाता हैं। चारों तरफ पहाडों की कतार और दो पहाडों के बीच चलने के लिए छोटा रास्ता इसी से गुजरना पड़ता हैं। एक बार ऊत्तर दिशा की ओर से हवाँ का बहना चालू हो गया तो उस मार्ग पर चल ही नही सकते। पूरी बॅच वापिस भेज दी ज़ाती हैं। फिरसे दुसरे दिन, रात को 2.30 बजे निकलना पड़ता हैं। चीन से वापिस आनेवाले बॅच के साथ जो अधिकारी रहते हैं वही यहाँ से दुसरी बॅच लेकर चीन ज़ाते हैं। यहाँ कैलाश के दर्शन करने पश्चात वापिस लौटनेवाली बॅच मिलती हैं। एक बॅच को अगर देर हो ज़ाती हैं तो वहाँ पहूँचे हुए बॅच को बहुत मुसिबतों का सामना करना पड़ता हैं। एक तो खाने पीने की कोई उपलब्धता वहाँ नही हैं और चारों तरफ बर्फ के कारण नीचे बैठ भी नही सकते। गलती से बैठ गए तो अपने हाथ पाँव संवेदनाहीन होने लगते हैं और इस बात का हमे पता भी नही चलता।

प्रकृति के सामने मानव कितना क्षुद्र हैं इस बात को कैलाशयात्रा में तीव्रता से समझ सकते हैं। मानव अपने क्षुद्र अस्तित्व के एहसास में कितना बडा अहं छूपा बैठा हैं। जो खूद को पूरे विश्व का स्वामी समझने लगता हैं। क्लोनिंग तैयार करते हुए नए जीव रचना का सपना देखने लगता हैं। लेकिन क्लोनिंग के लिए जो मुल पेशी का निर्माण भी वह खूद नही कर सकता यह बात को वह भुल जाता हैं। अपने बौध्दिकता के बल पर वह ग्रह तारों का प्रांत भी देख चूका हैं लेकिन वह बौध्दिकता उसे ईश्वरने ही प्रदान की हुई हैं। ब्रम्हांड़ के विशालता में मानव तो सिर्फ प्रकृति का एक अंश हैं। यह बात अहंकार कभी याद नही करने देता। लगभग सभी लोग घोडे पर सवार हुए थे। तारों के साथ हमारा सफर चालू था। दो यात्रियों के आगे पिछे एक एक जवान चल रहा था। रास्ता दिखाने के लिए बीच में उनके हाँथ के टॉर्च चमक उठते थे। नीरव शांती का ड़र खत्म हो गया। अब वह भी अपनीसी लगने लगी थी। ऐसे लग रहा था भगवान के रास्ते में तारों के दिप ,हवा के झोंकों की गुनगूनाहट मन में मिलन की आंस लगाए, बढते हुए, अदृश्यता की ओर खिंचते हुए लेकर ज़ा रही हैं। आज भी वह दृश्य, वह मन में उभरी हुई भावना मैं भुल नही पाती हूँ।

इस सफर में बहुत सारे झरने लगते हैं। वह दिखने से पहले ही सुनाई देते हैं। रात का समय होने के कारण सिर्फ सन्नाटे के आगोश में यात्रा चालू थी। साथ में चल रहे पोर्टर, यात्री घोडे पर बैठकर नींद में तो नही हैं इस बात की तसल्ली कर रहे थे। क्योंकी रात की ठंडी हवा,और शारीरिक मानसिक थकान के कारण नींद आने की संभावना बढती हैं। झपकी लग गई तो घोडे से गिरने का ड़र रहता हैं। खुद के साथ घोडा भी अपना संतुलन नही संभाल सकता और दोनो कैलाशवासी हो सकते हैं। चार साडे चार बजे सवेरा होने लगा। नाभीढांग और चीन से तकलाकोट यह दोनों गाँव वायरलेस सेट से जूडे हुए हैं। तकलाकोट से लिपूपर आनेवाली बॅच कितने बजे तक उपर पहूँच ज़ाएगी यह सेटव्दारा पता चलता हैं। अगर इस बॅच को आने में देर हो गई तो यात्रा लिपूपास के पहले 1 कि.मी. दूरी पर ही रोक देते हैं और संदेशा आने के बाद ही फिरसे चढ़ान की ओर निकल पड़ते हैं। हमलोग छे साडे छे बजे उस मैदान में पहूँच गए। ठंड़ तो इतनी थी की पुछो ही मत। सवेरे के ठंडे झोके और घोडे पर बैठकर हाथ पैर पूरे अकड़ गए थे। समन्वयक अधिकारी के कहने पर सब लोग इधर उधर घुमते रहे। एकही जगह पर अगर रूक गए तो हाथ पैर ठंडे पड़ने लगते हैं वह बात ज़ान पर भी बीत सकती हैं। इसीलिए मुँह में कुछ डालते हुए बाते करते सब घूम रहे थे।

वहाँ अधिकारी चीन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे। चीन से निकल कर भारत की ओर आनेवाली बॅच नो मेन्स लँड़ पहूँची या नही इस बात का अधिकारी पता करने लगे। सब घुमते घुमते थक चूके, उब चूके थे। कुछ तो बात हुई थी, मुसिबत आई थी इसीलिए 9.30 बजे भी लोग आते हुए नही दिख रहे थे। 
इतने में सामने से बॅच आते हुए दिखाई देने लगी। वह देखते ही हमारे मन में भी उमंग, उत्साह, स्फूर्ति की लहर तनमन में दौड़ गई। सामने से आनेवाले लोगों की भावनाएँ उमड़ रही थी। वह अपने देश में आ रहे थे। अपनी मातृभूमी के लोगों को देखते ही उनका मन अनिवार आनन्द से भर उठा। हम तो उनके पहचान वाले भी नही थे फिर भी भारतीय प्रति जो अपनापन उमड़ आता हैं वह महसूस करने के लिए विदेश यात्रा ही जरूरी हैं। अलौकिकत्व की दर्शन, यात्रा सफल करते हुए अपनी मातृभुमी में प्रवेश, ऐसे त्रिवेणी संगम का अनोखा मिलन उनकी आँखों में झलक रहा था। हम लोग भी उनसे मिलने बेताब थे।

भारत में कुमाँऊ मंड़ल, खानपान की सुविधा बहुत अच्छी तरह से रखते हैं। लेकिन चीन इस बात का जरा भी ध्यान नही रखता। तिबेट चायना के कब्जे में हैं इस कारण वहाँ के लोग चाहते हुए भी कुछ नही कर सकते। चीन रहने का तो इंतज़ाम करता हैं लेकिन खाने का बंदोबस्त बॅच के लोगों को खुद करना पड़ता हैं। दिल्ली में यह सब ज़ानकारी दी ज़ाती हैं और फुड़ कमिटी का आयोजन करते हुए वही पर सब सामान पॅक कर के साथ में रहता हैं। एक कूक की व्यवस्था भी की ज़ाती हैं। हालाँकी हम अब ऐसी दुनिया में प्रवेश कर चुके थे जहाँ मन की, प्राण की,और विचार की शक्ती, और मानसिक चेतना में आशातीत वृध्दी हो ज़ाती हैं। भुख कम हो ज़ाती हैं, प्रफुल्लता और तरो-ताजगी का एहसास होता रहता हैं। लेकिन यह सब अनुभव अपने कर्मों के झोली पर भी निर्भर हैं। जिसकी झोली जितनी हल्की हो उतने चमत्कार पूर्ण अनुभवों का वह अधिकारी रहेगा। यहाँ चीन में अली टूर्स अँड़ ट्रॅव्हल्स कंपनी की तरफ से उनके प्रतिनिधी बॅच को लेने आते हैं। हमारे साथ आए हुए अधिकारी और ट्रॅव्हल्स के लोगों में डॉक्यूमेंट्स का लेनदेन हो गया। फिर कैलाश दर्शन की हुई बॅच कुमाँऊ अधिकारीयों के साथ भारत लौट गई और भारत से आयी हुई बॅचने चीन में प्रवेश किया। हम अब चीन के कब्जे में थे।

लिपू लेक से 4 से 5 कि.मी. दुरी पर चीन सरकार की बस आकर रूकी थी। वहाँ तक जाने के लिए घोडे रहते हैं लेकिन पुरा रास्ता ढ़लान का हैं तो पैदल चलना ही ज्यादा बेहतर होता हैं। सब सामान घोडे पर चढा कर बस तक पहुँचाया जाता हैं। कुछ लोग घोडे पर सवाँर हो गए तो कुछ पैदल चलने लगे। यहाँ के घोडे लंबे और मजबूत होने के कारण बैठने में भी परेशानी होती हैं। पैर फैलाकर बैठना पड़ता हैं। खोगिर चुभते हुए जख्म हो ज़ाते हैं। मैंने तो तय किया था जहाँ तक पैदल जा सकती हूँ वहाँ तक जाऊँगी। चलना शुरू कर दिया। तीव्र ढ़लान का वह रास्ता पूरा पत्थरों से भरा हुआ था। ज़ान हथेली पर लेते हुए नीचे देखकर ही चलना आवश्यक था। लेकिन मौसम बडा सुहाना होने के कारण चलना आसान हो गया। मैं धीरे धीरे बस तक आ गई। घोडे पर जो बैठे थे वह कब के आ चूके थे। जोत्स्ना ने मेरी जगह पकड़ रखी थी। बस की स्थिती अच्छी ना होने के कारण मन में थोडी कटूता छा गई। बस निकल चूकी और विचारों की श्रृंखला उसी के साथ दौड़ने लगी।
इतनीसी बात के लिए कटूता ? तो सांसारीक मोह, माया, बंधनों के पार कैसे जा सकेंगे। संसार के मायाज़ाल में उलझी हुई हमारी आत्मा संसार के गहनतम अंधःकार में डुब गई हैं तो उससे मुक्ती कैसे मिलेगी ? आत्मा की अंतराल से एक गुंज सुनाई दी जो स्थिती पैदा हो रही हैं बस उसे स्वीकार करते हुए आगे बढो। चाहिए, नही चाहिए के झगडे में बस दुःख ही पैदा होता हैं और स्वीकार करने से रास्ता आसान लगने लगता हैं। रास्ते खुलने लगते हैं। नए अनुभवों की परिभाषा का सौंदर्य प्रकट होने लगता हैं। बस की गती और विचारों की गती एकही दिशा के ओर चल रही थी वह दिशा थी अंतराल आत्मा की खोज।

(क्रमशः)