उपन्यास-
रामगोपाल भावुक
अथ गूँगे गॉंव की कथा 15
अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति
15
पूँजीवादी व्यवस्थाके नये-नये आयाम सामने आते जा रहे हैं। रुपये का मूल्य गिरता जा रहा है। डालर की कीमत बढ़ती जा रही है। महगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इधर सभी धर्म वाले अपने-अपने धर्म में चारित्रिक गिरावट महसूस कर रहे हैं। इसी कारण कुछ लोग संस्कृति की रक्षा की आवश्यकता अनुभव करने लगे हैं। इससे निजात पाने राष्ट्रबाद की आवश्यकता महसूस की जा रही है। कुछ धर्म को महत्व देकर देश को बचाने की बात कह रहे हैं। इसके बावजूद शोषण के खून के धब्बे ऊपर झाँकने लगे हैं। रहीम कवि ने सच ही कहा था कि-
खैर,खून खाँसी खुशी, बैर प्रीति मधपान।
रहिमन दावे ना दवै, जानै सकल जहान।।
समाज में व्याप्त शोषण के कारण ही समाजवाद का नारा सुनाई पड़ने लगा है। जातियों के संरक्षक पूँजीपति अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये अपनी जाति वालों का खून इस सफाई से पी रहे हैं कि उन्हें आभास उल्टा ही हो रहा है। उन्हें वे हितैसी नजर आ रहे हैं। धर्म की बेड़ियाँ आदमी को आत्मज्ञान कराने के नाम पर छल रही हैं।ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई है कि आदमी यथार्थ से कोसों दूर चला गया है। यों पूँजीपतियों ने आदमी की चेतना को अपनी मुठठी में बन्द कर लिया है। अपने दिखाबटी कल्याण की भावना से मानव कल्याण की भावना को दवोचा जा रहा है।
इन सबने अपनी रक्षा में अपने-अपने पुलिस बल खड़े कर लिये हैं। हथियारों का जखीरा बना लिया है। जिससे यथा समय निहत्थे आक्रोश पर गोलियाँ बरसाई जा सकें। कानून को श्रम की रक्षा में जुट जाना चाहिये था। किन्तु यहाँ उल्टा ही हो रहा है। इन सब का उपयोग उन्हें कुचलने में किया जा रहा है। कानून बनाने वाले पूँजी के बल पर चुनाव जीतते हैं। उन्हें उन्हीं की रक्षा में कानून बनाना पड़ते हैं। यों कानून पूँजी का गुलाम बन कर रह गया है।
आदमी रोटी की चोरी कब करता है, जब वह भूख सहन नहीं कर पा रहा हो। समाज में सम्पति अर्जित करने की सीमा निर्धारित होनी चाहिये।साथ ही देश में कोई भूखा न रहे। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को इस बात के लिये बचन बद्ध होना चाहिये। चोरी पूँजीपति कराते हैं। सारा का सारा गरीब का हक चुराकर तिजोरियों में बन्द कर लेते हैं और व्यवस्था को अपने हाथ में लेकर अपना कानून चलाते हैं। सजा का पात्र बनता है गरीब ।
कुन्दन का चित्त आज विराम नहीं ले रहा है। वह सोचे जा रहा है। पैसे कमाने की होड़ में लोग मिलाबट करते हैं। जिससे अधिक मुनाफा कमाया जा सके।
वस्तु के उत्पादित मूल्य से उस पर अन्य खर्च अधिक पड़ रहे हैं। उपभेक्ता तक पहुँचते-पहुँचते वस्तु उत्पादित मूल्य से कई गुना अधिक कीमत पर बेचना पड़ती है। देश की स्वत्रंता के समय जो अवधारणायें जन्मीं थीं। वे जाने कहाँ लुप्त हो गईं। सब में अधिक से अधिक पूजी इकत्रित करने की होड़ लगी है।
कुन्दन को याद है, मौजी जब इस गाँव में आया था, इस गाँव में इने गिने लोग ही धनी थे। स्वतंत्रता के बाद देश में जो विकाश हुआ है, इससे कई गुना पैसे वाले दिखने लगे हैं। लेकिन मौजी वहीं के वहीं खड़ा है। एक कदम आगे नहीं बढ़ा है। उसे कोल्हू का बैल बनाकर जोता गया है। गाँव के सभी पैसे वालों के यहाँ मौजी के आदमी नौकरी करते आ रहे हैं।
आज एकादशी का पर्व है। रोज तो मौजी को माँगे से मट्ठा मिल जाता था। आज यह भी नसीव नहीं हुआ ।मौजी जब से इस गाँव में आया है तब से उसे विरासत में माँगने से मट्ठा मिल जाता था। वह भी काम का आदमी जानकर लोग उसे दे देते थे। अज जब रधिया गाँव में मट्ठा माँगने गई तो सभी ने यह कह दिया-‘आज तो हमाये आदमी उपासे हैं।’
रधिया ने घर आकर मट्ठे पर अपना आक्रोश उड़ेला-‘अरे! मट्ठा से मोडा-मोड़िन को नेक मन समझ जातो सो आज सुसरी एकादशी पवर गई। गाँव भर में काऊ ने माँगे छाछ ही नहीं दई।’
यह सुनकर सम्पतिया ने उसकी बात का समर्थन किया-‘आज के दिना वैसे बड़ो पुन्न धरम करंगे। आज गरीबन के पेट पै लात दे दई।’
मौजी बोला-‘काये को पुन्न धरम कत्तयें। गरीब की आत्मा को तो ध्यान रखत नाने , फिर जे का पुन्न धरम कत्तयें। सेठ श्यामा कक्का माला फेरत रंगे और दिन भर डाँडी मारत रंगे। बताऊ का माला फेत्तयें।’
सरजू झट से बोली-‘अपयें ठाकुर कक्का जू तो ऐसे हैं कै माला फेत्त जाँगे और नौकरन ने गाँईं देत जाँगे।’
मौजी ने सलाह दी-‘काऊ को नाम लेकें बुराई-भलाई मत करो। कोऊ सुन लेगो तो मात्त फिरैगो।’
सम्पतिया ने आत्मविश्वास उड़ेला-‘का काऊ को खातयें, सो मात्त फिरैगो। अब तो मारिवे में बिन्हें पतो चल जायगो। अब कोऊ गड़बड़ करैगो तो मैं रिपोट करिबे थाने चली जाउँगी। हरिजन एकट के मारे तो अच्छे-अच्छे फसूकरै डात्तयें।’
मौजी ने सम्पतिया को थपथपाते हुये कहा-‘तेंने ज अच्छी चाल निकारी है।’
वह झट से पुनः बोली-‘अपयीं का है, अपन तो पहलें से ही मरै मराये हैं। हम से तो कोऊ हाथ लगा के देखे, बाकी नस्सरी से लग कें खून पी जाउँगीं।’
यह सुनकर सभी को अपने अस्तित्व का बोध हुआ। मन ही मन सभी को लगा- हम किसी से किसी तरह कम नहीं हैं।
शाम का वक्त होगया था। हनुमान जी के मन्दिर पर बैठे लोगों में जोर-जोर से बातें चल रहीं थी। जो कुन्दन के घर तक पहुँच रहीं थी। कुन्दन का मन हनुमान जी के मन्दिर पर पहुँचने के लिये व्यग्र हो उठा। उसने गिलास का पानी हलक से जल्दी-जल्दी नीचे उतारा ,गिलास को खट की आवाज के साथ पटिया पर रखा और मन्दिर पर पहुँचने के लिये चल दिया। जब वह वहाँ पहुँचा ,लोग मौजी के डेरे की तरफ फावडा लिये चले जा रहे थे। सभी लाठियाँ भी लिये थे। कुन्दन समझ गया- नहर आ गई है। टेल पर पानी मुश्किल से आ पाता है। नहर को चलते कितने दिन हो गये। अब यहाँ पानी आ पाया है। ऊपर वालों के गन्ने में चार-चार वार पानी लग गया है फिर भी वे इस वार भी पानी और देने के मूड में हैं। नहर के ऊपर पंजाबियों की जमीनें है, वे पानी का पूरा उपयोग करते हैं। नहर की टेल पर जिनकी जमीनें है, उन्हें एक वार ही पानी नहीं मिल पाया है। सुना है टेल वालों ने इसके लिये लिखा- पढ़ी की थी। उस पर भी इतनी लेट कार्यवाही हुई है। ऊपर वालों के सारे कुलाबे बन्द कर दिये गये है। इसके लिये पुलिस का सहारा लेना पड़ा है। टेल के सभी लोग सचेत हो गये हैं। अब तो नीचे पानी आकर ही रहेगा।
नीचे के किसानों में पानी के बटवारों को लेकर योजनायें बन रहीं हैं। जिन के पास गन्ने की खेती अधिक है, उनका कहना है उन्हें पहले पानी मिलना चाहिये। अरे! जनके पास एकाध बीधा गन्ना है, उन लोगों का उतना घाट नहींे है जितना बड़े किसानों का। उनको हजारों का घाटा होगा। प्रजातंत्र का युग है , बात बहुमत पर आकर अटक गई है। लोग बड़े किसानों के तर्कों का समर्थन कर रहे है।छोटे किसानों के चेहरे मुरझा गये है। उन्हें लग रहा है-गरीब लड़े तो आखिर कैसे? कल उन्हीं के दरवाजे पर जाना है। उनके बिना काम चलने वाला तो है नहीं, फिर वही अकेला उनसे विरोध मोल क्यों ले। कल काम पड़ गया तो कोई साथ देने वाला नहीं है।इससे तो अच्छा है गन्ना सूखता है तो सूख जाये। आपस में लड़ाई- झगड़ा हो पड़ा तो पुलिस केस बन जायगा। उसमें भी पैसे लगेंगे। ऐसे सोच सोचकर ,सभी हार-थककर बैठ गये।
इस तरह जाने कैसे-कैसे मन को समझाते हुये वे लौटने लगे। नहर के पानी पर बड़े-बड़ों ने कब्जा कर लिया। लालहंस अभी भी अपनी जिद् पर अड़ा रहा-पहले छोटे किसानों को पानी मिले। दलित वर्ग के बड़े किसान भी अन्य बड़े किसानों के साथ जाकर मिल गये। अन्य वर्ग के छोटे किसानों ने लालहंस का साथ देना उचित समझा।
महाभारत के युद्ध की याद आ रही है। नाते रिस्ते सब मटियामेंट हो रहे हैं। अमीन अवतार नारायण के आदमियों के मुँह से लालहंस के लिये गालियाँ निकल गईं। लालहंस को यह बात नागवार गुजरी। उसने भी गालियों के बदले गालियाँ देना शुरू कर दीं। टकराहट में विद्युत की चिनगारियाँ निकलने लगीं। दोनों पक्ष एक दूसरे को आमने समाने गालियाँ बकने लगे। अमीन अवतार नारायण के आदमी ताकत की बू में थे। उन्होंने लालहंस को मारना शुरूकर दिया। सरपंच के आदमियों ने अमीन के आदमियों का साथ दिया। दोनों पक्षों में जमकर लठियाई हुई।
इसी समय पुलिस की गाड़ी हनुमानजी के मन्दिर के पास आकर रुकी। गाँव के लोग हनुमानजी के मन्दिर के चबूतरे पर चढ़कर इस लड़ाई को देख रहे थे। पुलिस ने बात को ताड़ लिया। रास्ते में पानी होने के कारण उनकी जीप वहाँ जा न सकती थी, इसलिये पैदल ही जाया जा सकता था। दरोगा अपने सिपाहियों को लेकर घटना स्थल की ओर चल पड़ा। पुलिस के आने की खबर लड़ने वालों को भी लग गई। पुलिस के डर से वे सभी भाग खड़े हुये। कुछ तमासबीन आराम की चाल से घर लौटने लगे। दरोंगा ने उन लोगों की पिटाई शुरूकर दी। सरपंच और ठाकुर साहब के लोग भी उन लौटने वालों में शान में तने लौट रहे थे। वे जान रहे थे पुलिस तो हमारी अपनी है। पुलिस ने उनका भी पिटाई से जमकर स्वागत किया। जब उनमें बैंत पड़े तो उनकी भी इज्जत धूल में मिल गई। सारे गाँव के सामने बिना कारण के उनका पिटना चर्चा का विषय बा गया।
पुलिस को आया हुआ देखकर लालहंस स्वयं ही उनके पास आ गया। उसके मुँह से खून वह रहा था। उसके आगे के दो दाँत टूट गये थे। इस बात को लेकर दरोगा ने दूसरे पक्ष पर केस लाद दिया।
गाँव के लोग यह आश्चर्य कर रहे थे ,इस तरह इस गाँव में दरोगा पहले कभी नहीं आया है। इस गाँव के लोग पहले चाहें जितने कुटे-पिटे हों, आज जाने ये कैसे चले आये? कुछ कह रहे थे-इस गाँव में चोरी की भैंसे आई हैं। उन्हीं की तलाश में पुलिस यहाँ आई थी। इधर उन्होंने लड़ाई होते देखी,वे फिर कैसे चुप रहते?’गाँव के दलित-सवर्ण सभी जो पुलिस के सामने पड़े, पिटते गये।
पुलिस दस्तनदाजी का केस बना। पुलिस ने दोनों पक्षों पर मुकद्दमे लाद दिये। दोनों पक्षों को अपनी-अपनी जमानत करवाना पड़ी। जमानत होते-होते भाग-दौड़ में चार-पाँच दिन टूट गये तब तक नहर बन्द हो गई।
अब दोनों ही पक्ष पश्चाताप कर रहे हैं-क्यों व्यर्थ झूठी शान में व्यर्थ लड़ पड़े। इससे तो मिलजुल कर पानी दे लेते तो फसल का नुक्सान तो न होता। कुछ चतुर लोगों ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपने दूसरे मजदूर भेजकर अपने खेतों में पानी लगवा लिया। उनके गन्ने हरिया उठे थे। सूख रहे थे तो छोटे किसानों के खेत। वे तो अभी भी जमानत के चक्कर में कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे थे।
लू तेज चलने लगी थी। किसान की दृष्टि बार-बार आकाश की ओर जाने लगी। एक जेठ दोंगरा होजाये तो गन्ने की फसल बच सकती है। खेतों में बखर चलना शुरू हो गये थे। दोपहर बाद ढाई-तीन बजे से बखर निकलने लगते। उनके निकलने पर खर-खर की आवाज से भरी दोपहरी संगीत मय हो जाती। उसकी आवाज सुनकर सोने वाले जाग जाते। लगता है, कोई गा रहा है-‘सोने वालो जागो।’ इस आवाज को सुनकर खेती का काम करने वाले जाग जाते और अपने-अपने काम में लग जाते।
चार बजे का समय होगया। मौजी के डेरे से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी। लोग आवाजें सुनकर घरों से निकल पड़े। जिधर से आवाजें आ रहीं थी , सभी की उधर दृष्टि गई। तेज आग की लपटें आसमान को दूने का प्रयास कर रही थी। धुआँ ने सारे आकाश को घेर लिया था। लोग अपनी-अपनी बाल्टियाँ लेकर उस ओर दौड़े चले जा रहे थे। कुन्दन भी वहाँ पहुँच गया। आग किसी को अपने पास न आने दे रही थी। लोग कुए से पानी खीच-खीच कर आग पर दूर से फेंकने लगे। कुछों ने अपनी-अपनी झोली में धूल भरी और मुटिठयाँ भर भर कर आग पर फेंकने लगे। उसी समय मौजी का रोना-चिल्लाना सुनाई पड़ा-‘हाय राम बचइयो, माहुली होंगई। आगबारी मड़रिया में बछिया बँधी है। हाय,बचइयो। ओऽऽ भज्जा ज का होगओ।’
बत सुनकर कुन्दन दौड़कर अपने घर गया और उधर से कथरी को भिगाकर ओड़े हुये दौडा़ चला आया। उसने आव-देखा न ताव और जलती हुई मड़रिया में घुस गया।
बछिया अधजली हो गई थी। वह उसे बाहर निकाल लाया। बछिया अन्तिम साँसें ले रही थी। मौजी कुन्दन की वीरता देखकर कह रहा था-‘ऐसो वीर आदमी तो ज गाँव में बस एक जही है। जाने बछिया के प्रान बचावे में अपने प्रानन की हू चिन्ता नहीं करी।’
मौजी की बात सुनकर एक बोला-‘ मौजी, ऐसे कथई लपेट के तो चाहें कोऊ आग में घुस जातो। जामें कुन्दन की का वीरता है?’
उसकी बात सुनकर तो मौजी कसमसा कर रह गया। वह जान गया मेरी बात को तो सभी गलत सिद्ध करेंगे ही। इस समय तो गाँव के सभी लोग आग बुझाने में मेरी मदद कर रहे हैं। मुझे तो इन सभी का अहसान मानना चाहिये।
धूल और पानी से अग्नि पर काबू पा लिया।जलने वाली मड़रिया से सटे छपपर का सम्पर्क लोगों ने काट दिया तो भी उसे बचाया नहीं जा सका। दो-तीन घन्टे के अथक प्रयास से अग्नि उस समय शान्त हुई जब उसने सब कुछ भस्म कर डाला। कुन्दन देख रहा था, गाँव के कुछ बड़े-बड़े लोग हाथ मटका-मटका कर आग बुझाने के लिये निर्देशन मात्र दे रहे हैं। आग बुझाने में सक्रिय मदद करने वाले गरीब तपके के लोग ही अधिक थे। उनमें से अधिकाशं बछिया को बचाने के प्रयास के लिये कुन्दन की सराहना कर रहे थे।
मौजी के नुकसान का जायजा लिया जाने लगा। कुछ कह रहे थे-‘ धरा क्या था ,उसके पास जो नुकसान होता?’
कुछ कह रहे थे-‘ अरे! अधिक से अधिक उसका नुकसान एक हजार रुपये का हुआ होगा। धास-फूस ड़ालकर फिर मड़रिया छा लेगा।’
कुछ बोले-‘और घर का सामान?’
उनमें से कुछ बोले-‘घर में क्या रखा था जो जलता? कल के लिये अनाज तो ठाकुर साहब के यहाँ से लेकर आया था।’गाँव के लोग इस तरह उसका जायजा लेकर चले गये। सभी के मन में बछिया के मरने का अफसोस अधिक था।
रात के दस बजे होंगे, सुम्मेरा और मायाराम जाटव मौजी को बुलाने के लिये उसके यहाँ पहुँचे। मौजी अपने घर के लोगों के साथ बाहर जली मड़रिया के चबूतरे पर बैठा था। घर के सभी लोग सलाह मसबरा कर रहे थे-अब क्या करैं?क्या न करैं? घर के सभी लोग एक मत थे कल किसी के नाम से नामजद रिपोट न की जाये। फिर पता भी तो नहीं है कि आग कैसे लग गई?व्यर्थ किसी के सिर पर दोष मढ़ना उचित नहीं लग रहा था।
सामने दो लोगों को आया हुआ देखकर मौजी खड़े होते हुये बोला-‘काये भज्जा, इतैक रात आवे को कष्ट कैसें करो?’
मायाराम बोला-‘तुम्हें जाटव मोहल्ला में पंच बुला रहे हैं।’
सम्पतिया ने पूछा-‘काये?’
सुम्मेरा ने जबाव दिया-‘सब बैठे हैं, हमसे तो ज कही कै, मोजी कों बुला लाओ।तुम्हाये हित की बातें चल रहीं हैं।’
आज मौजी उनका आदेश पाकर नंगे बदन ही चल दिया। उसके पास आने-जाने के लिये एक रामवाये जी से एक नेता जी की दई कमीज हती सो वई आज जल गई। अब तो हनुमान बाब्बा जैसे पार लगायेंगे वैसे लगनों है। यह सोचते हुये वह जाटव मोहल्ले में पहुँच गया।
पंचों की बैठक अर्जुन की बैठका में जमी थी। मौजी को आया हुआ देखकर एक बोला-‘लो, मौजी कक्का तो आगया।’
मौजी सहमा-सहमा सा एक कोने में सिमिट कर बैठ गया। रामदयाल बोला-‘मौजी हमें तो जों लग रही है कै ज आग ब्राह्मनन ने जानबूझ कें लगाई है।’
उसकी बात पर अर्जुन झट से बोला-‘लग रही है कै साफ-साफ दिख रही है कै बिन्हें ही लगाई है। अरे!ज मोहल्ला के आग बुझावे न जातये तो आग ही नहीं बुझती।’
लालहंस बोला-‘वे लोग अपुन से दुश्मनी राखतयें, कै जे आगें काये कों बढ़ रहे हैं।पहले की तरह बेगार काये नहीं कत्त।’
अर्जुन ने अपना आक्रोश व्यक्त किया-‘दबत-दबत जमाने बीत गये। अब काये कों दबें। रही मजदूरी की बात सो दस रुपइया को काम लंगे तब एक रुपइया दंगे।’
लालहंस ने अपनी सलाह पेश की-‘मैं तो जों जान्तों कै गाँव के बड़े-बड़िन के नाम से ठोक कें रिपोट कद्दे। तोय सब मनावे में रुपइया देत फिरंगे। पहलें तो एक जेबरा में सबरे बँधे चले जांगे। मजा आजायगो।’
मौजी रिरियाते हुये बोला-‘तोनों पतो न चले कै कौन की ज करामात है, काउये झूठो कैसे फसा दऊँ!’
राम दयाल ने कहा-‘ ज तो पतो लगाऊ, कै आग कैसें लगी?’
लालहंस ने अपने आक्रोश को दबाते हुये कहा-‘मोय तो जों लगते कै जे खपरा बारिन के अबा लगे हैं, उन्से ही आग लगी है।’
रामदयाल ने मौजी से पूछा-‘काये मौजी जे अबा कौन-कौन के लगे हैं? तेंने अबा लगात में रोके नहीं?’
मौजी रिरियाते हुये पुनः बोला-‘एन रोके, भज्जा हो ससुर मुजिया चमार की को सुनतो।’
लालहंस ने उसमें उत्साह भरने के लिये ललकारा-‘तें चिन्ता मत करै, अब तेई सब सुनंगे। तेरो पूरो हर्जा जिनकी तोंद फाड़ के निकरेगो।’
मौजी ने उत्तर दिया-‘एक अबा काशीराम तेली को है। एक मुन्नी धोबी ने लगा लओ है। बाने तो आज ही आग डारी है। हाँ...एक अबा सरपंच को सोऊ लगो है।’
लालहंस ने उसमें और अधिक साहस भरते हुये कहा-‘तें डरपै जिन। हम तो हैं तेरे संगें हैं। समझ नहीं आ रही फिरू तेरी काये फट रही है।’
बात सुनकर मौजी में जोश आ गया। वह बोला-‘तुम सब संगे हो, सो डरपवे की कछू बात नाने,पर मोय तो जों लगते कै अबन में से आग नहीं लगी।’
लालहंस ने मजाक किया-‘नहीं ,अबन में से काये कों लगी होयगी। ऊपर से भगवान आ कें लगा गये होंगे।’
मौजी ने अपने अन्दर के सच को स्वीकारा-‘भगवान काये कों लगातये आग, ज तो गाँव किन की ही करामात है।’
लालहंस ने प्रश्न दाग दिया-‘ करामात को कर सकतो, अरे! ताके पइसा देवे में तेंने आना-कानी करी होयगी, बइने आग लगाई है। मौजी ताको कर्जदार है ,वेई जाके दुश्मन हैं।’
रामदयाल पूरे मनोयोग से इनकी बातें सुन रहा था। उसने उनकी बात में अपनी बात मिलाई-‘काये मौजी तेंऊँ तो बता आग कैसें लगी होयगी?’
मौजी गम्भीर होगया। उसने सोचते हुये उत्तर दिया-‘आग कैसें लगी! का पतो हमाये घर किननै ही रोटी करकें आग न बुझाई होय। बामें से ही आग लग गई होयगी।’
यह सुन कर सभी को लगा-यह किसी का नाम लेने वाला नहीं है। ज तो बुजदिल हो गओ है। जामें नहीं कछू बचो। अरे! जब तक एक होकें नहीं लड़ेंगे तब तक सब जोईं मत्त रहेंगे।’
सभी को सोचता देखकर मौजी पुनः बोला-‘जामें काऊ को दोष नाने ,सब मेई किस्मत को है। समुद्र में रह कै मगरन से बैर करिवों ठीक नाने।’
लालहंस ने उसे फिर से समझाना चाहा-‘मगरन से बैर एन मत करै , बिनकी दोस्ती सोऊ काऊ से नाने। अरे! सब जिन्दगी तेरो जिन्हें खून चूसो है। रोज मारिवे-पीटिवे ठाडे़ रहतयें। तेनें रिपोट कद्दई फिर तो तन कौ आँख उठाकें हू नहीं देख पाँगे।’
अर्जुन बोला-‘तोय हम इतैक मना रहे हैं पर तेरी समझ में कछू नहीं आ रहो।’
मौजी समझ गया कै जे मोसे नामजद रिपोट कराकें मोय दुश्मन बनायें बनायें चाहतयें।’यह सोचकर बोला-‘मैं भज्जा काऊ को झूठो नाम तो ले नहीं सकत।’
मौजी की यह बात सुनकर पंचायत समाप्त हो गई। एक बोला-‘अब मौजी कों लगे ही काये हो। वतो नेकऊ नहीं सटपटा रहो।’
यह बात सुनते हुये मौजी घर के लिये निकल पड़ा था। उसकी आत्मा उनके सहयोग और साथ देने के लिये धन्यवाद दे रही थी और मन सहयोग लेने से भाग रहा था। अब वह भागकर बसाना चाहता है किसी दूसरे ही गाँव में।
जब वह घर पहुँचा, घर के सभी लोग उसकी बाट चाह रहे थे। मौजी हाँफते हुये चौक में पड़ी, जलने से बची झोंगदेदार खटिया में जा गिरा। वह डर रहा था कहीं घर के लोग उस पर प्रश्नों की बौछार न कर दें। उधर घर के लोग मनों में वर्षाती नाले की तरह प्रश्न संजोये बैठे थे। मुल्ला ने खटिया पर पसरते ही पूछ लिया-‘काये दादा पंचायत का बात की हती।’
मौजी ने सभी को प्यार से समझाया-‘पंचायत का हती, वे सब कह रहे थे कै मैं ब्राह्मनन के नाम से रिपोट लिखा दऊँ।’
मुल्ला झट से बोला-‘तो लिखा दे। वे मारें तो मार डारें। तें चिन्ता मत करें। अरे! अमीन की भैंस मर गई, वे बाय उठावै कों टेरिवे आये। अपुन ने मना कर दई । का पतो बिन्ने ही आग लगवा दई होय।’
मौजी ने उसे डाँटतो हुये उत्तर दिया-‘अरे हट! अमीन जैसो आदमी ज काम नहीं कर सकत।’
मुल्ला ने पुनःअपनी बात रखी-‘ तोय तो दादा सबको पूरो विश्वास है। तेनें बिनकीं लाल-पीरी आँखें नहीं देखीं। बिन्नें ही दुपरिया में आग लगा दई होयगी।’
मौजी ने उसे पुनः समझाना चाहा-‘बिना देखें ,काऊ को नाम नहीं ले सकत। ताने ज करो होयगो, गरीब की हाय बाय ऐसी लगेगी कै ससुर के अपये करमन से मरै दिखांगे।’
मुल्ला ने दादा की बात का प्यार भरा विरोध प्रगट करते हुये कहा-‘दादा ऐसे कोऊ नहीं मत्त। ऐसें मरन लगे तो कउअन के कोसें से फिर तो पट्ठा-पट्ठा डोर मर जातये।’
मौजी ने उसे समझाने के लिये और गहरा प्रयास किया-‘देखो, तुम्हाई जे बातें मेरी समझ में नहीं आत। अरे ! ता हड़िया में खाओ है वामें छेद करिवों ठीक नाने।’
सम्पतिया ने लड़के का पक्ष लिया-‘जे तो सफाँ गरिया पर गये हैं। जिन्हें वे बातिन में दे लेतयें और दो के चार लिख कै अंगूठा लगवा लेतयें।’
मौजी ने पत्नी की बात काटते हुये कहा-‘वे राजा बने रहें। हमाये भाग में जई बदो है, नहीं हम काऊ राजा के झाँ पैदा काये नहीं भये।’
जलिमा बड़ी देर से चुपचाप बैठा इनकी बातों को सुन रहा था। उसके मन में भी बात उठी, बोला-‘भाग तो दादा बेईमानन के चमक रहे हैं।’
मुल्ला ने आक्रोश व्यक्त किया-‘अरे ! दादा ब्राह्मनन ने आग नहीं लगाई होय तोऊ तें नाम बिनको ही लिखा दे। सब झें आकें दे जाँगे और खुशामद करंगे। हमें तो ज दादा की ईमानदारी खायें लेते। वे जाके सामू तो जाय ईमानदार बतातयें और पीठ पीछें बेईमान कहतयें। जाके मौ पै वे चुपरी-चुपरी बातें कद्देतयें।,साई ज उल्लू बन जातो।’
मौजी समझ गया, बात बढ़ गई है। अब इसे दबाना कठिन है। यह सोचकर बोला-‘चलो अभै सब सो जाऊ, सबेरें जैसी होयगी देखी जायगी।’ सभी समझ गये,दादा के एकाधिकार के आगे किसी की नहीं चलने की।
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