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अथगूँगे गॉंव की कथा - 13

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 13

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

 

 

13

      उसी दिन शाम होंने से पहले ही गंगा को तेज बुखार आ गया। यह देखकर घर के सभी लोग अखल-वखल दिखाई देने लगे। मौजी बेचैन होते हुये बोला-‘जाय कोऊ लग तो नहीं बैठो?खारे कुआ नो से निकरी होयगी। पन्ना महाते की जनी बामें गिर कें मरी है। ससुरी वही होयगी। ओऽऽ जलिमा, जातो, तंत्रन -मंत्रन के जानकार कांशीराम कड़ेरे को बुला ला।’

       वह कांशीराम कड़ेरे बुलाने चला गया। गंगा जोर-जोर से रोने लगी।बोली-‘बाई मैं तो मत्तों।’

       सरजू ने उसे धीरज बँधाया-‘न मेरी पुतरिया, अभिहाल कडेरो बब्बा आओ जातो। चिन्ता जिन करै।’

       वह बुरी तरह कराहने लगी। रधिया मौसी पास आ गई।उसने एक लीतरा यानी फटा जूता ढूढ़ निकाला। उससे वह उसे झाड़ने लगी। कुन्ती मौसी ने आग में मिर्चीं झोंक दीं और बोली-‘जाय और कछू नाने, कारे नागन की नजर लगी है। नेक सुन्दर मत्ते। सो सब वामन-बनिया जाय देख-देख कें जलतयें।’

       मुल्ला की पत्नी लंगची उसके पास खड़े होते हुये बोली-‘इतैक मिर्ची बर गईं। बताऊ काऊये नेकउ ठस लगी।ऐसी बैसी नजर नाने। भारी नजर लगी है।’

        सम्पतिया नजर लगाने वालों को कोसने लगी-‘सबके इतैक बड़े-बड़े महल-अटारी हैं। हम काऊ की चीज पै नजर नहीं डात्त। मरे हमाई ज पुतरिया कों ऐसें घूरंगे जैसें ऐसी चीज काऊ ने देखी ही न होय।’

        जलिमा लौट आया था। वह काशीराम कड़ेरे को कोसते हुये बोला-‘बड़े-बड़िन के झाँ तो सौ चक्कर लगायगो। गरीबन के झाँ व काये कों आतो।’

        मौजी ने सलाह दी-‘अरे! जाय शहर लिवा जाओ। देखियो, कहूँ आलस-आलस में मोड़ी मर न भजे। ओऽऽ जलिमा।’

        जलिमा ने उत्तर दिया-‘काये दद्दा?’

        मौजी ने आदेश सुनाया-‘ऐसो कर ज मोड़ी कों पीठ पै डार के ले चल। सोनी बब्बा कें ले चलें।’

       जलिमा ने उसको पीठ पर डाल लिया। गंगा का पिता बसन्ता भी घर के सभी लोगों के साथ उनके पीछे-पीछे चलकर सोनी जी के घर पहुँच गया। सोनीजी घर पर ही थे। इन्हें देखा तो बोले-‘ऐसी दुपरिया में भज्जा जाय मात्तओ का।’

       मौजी खुशामद करते हुये बोला-‘सोनी भज्जा, तुम नेक हम तन कों देखें रहतओ। नहीं तो ज गाँव के लोग तो हमाई बिल्कुल नहीं सोचत। बस तुम्हाओ ही भरोसो है।’

       सोनी चरणदास मुस्कराते हुये बसन्ता से बोला-‘जा, एक नीम को झोंरा तो तोड़ ला।’

       बसन्ता जाकर एक नीम का झोंरा तोड़ लाया ।सोनी जी मंत्र पढ़-पढ़कर उसे झाड़ने लगे। सम्पतिया अपने हृदय में छिपी बात को उजागर किया-‘मोय तो जाय खारे कुआ की चूरेल लगते।’

       सोनी जी ने उत्तर दिया-‘चिन्ता मत करो, ठीक होजायगी। जाय तो लपट लगी है। एक काम करियो, तोलाभर प्याज को रस निकार के बाय मिसुरी में मिला कें चटात रहो। चना की सूखी भाजी काऊ के मिल जाय, ताय जाके हाथ-पाँव में मल दियो। फायदा न होय तो जाय शहर ले जइयो। फिर तो डाक्टर को दिखानो ही परैगो।’

      मौजी खुशामद करते हुये बोला-‘भज्जा तुम्हें छोड़कें, हमाओ कोऊ नाने। और तो सब खाबे फित्तयें। और तो और मजूरी के काजें चार-चार दिना फिरांगे। मन्दा महाते ने छै दिना के पइसा अभै नों नहीं दये।’

      ठाकुर लालसिंह को सपूत बलजीत तो मजूरन ने मजूरी को महिनन फिरातो।

पचास रुपइया हमाये अभैनों नहीं दये। तुम तो जानतओ बिनपै पइसा की कमी नाने, पर बिनकी देवे की नियत नाने।’ बसन्ता ने कहा।

       वे चलने के लिये उठ खड़े हुये। गंगा को अबकी वार बसन्ता ने अपनी पीठ पर लाद लिया। घर आकर गंगा को खटिया पर लिटा दिया गया। सोनीजी के परामर्श के अनुसार दवायें शुरु कर दीं। सम्पतिया पति को गाली देते हुये बोली-‘जे दवान से का होतो, जब तक जाकें एकाध सुई नहीं लगेगी तबतक ज ठीक होवे वारी नाने। अरे! न होय तो कड़ेरे कों बुलावे दुवारा चले जाओ।’

       उसके परामर्श को सुनकर मौजी बोला-‘ कड़ेरे का सोनी से हुसियार धरो। सोनी बब्बा को चेला है चेला।’

        सम्पतिया ने पति की बात का विरोध किया-‘चेला ऐन होय। बाके मायें अच्छे-अच्छे भूत भगतयें। जा बखत गाँव में जितैक कड़ेरे की पूछ है बितैक काऊ की नाने।’

       मौजी अपनी विवशता बतलाते हुये बोला-‘बिना पइसा के बाके ढ़िंगा जावे से का फायदा। जाऊ तो दस-पाँच रुपइया जेब में होनों चहियें।’

       सम्पतिया ने जिन्दगी भर से सहेजे अपने अनुभव को व्यक्त किया-‘ तुम्हें पइसा कों रोत-रोत सब जिन्दगी हो गई। मेई ज सोने सी मोड़ी है, जाय कछू भओ तो मैं अपओं जी और तुम्हाओ जी एक कद्दंगी।’

       मौजी ने उसे साँत्वना दी-‘तें चिन्ता मत करै। जे दवा असर तो करन दे। तेरी मोड़ी ठीक हो जायगी। बाहरी हवा-वैर होयगी तो मैं रामहंसा काछी से पानी और पढ़वायें लातों। ज पूरी तरह ठीक हो जायगी।’ यह कहते हुये वह घर से निकल गया।

       

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      गंगा दशहरे का अवसर आ गया। घर-घर सतुआ की बहार आ गई। आकाश में बादल मड़राने लगे। जिन बड़े किसानों के यहाँ कुओं की खेती थी,उन्होंने कुछ फसल कर ली थी। उनके खलियानों में गठुआ की दाँय चल रही थी। हरसी के बाँध में पानी समाप्त हो गया था। गन्ने की फसल सूख रही थी। किसान आकाश की ओर ताकने लगे थे।

      सुबह का बक्त था। गर्म लू अपना असर दिखा रही थी। डाकिये ने कुन्दन के घर में पत्र डाला। जयराज की पत्नी लता के लड़का हुआ है। पत्र पढ़कर कुन्दन का मन नाचने लगा। अपने भतीजे को देखने मन व्याकुल हो उठा। वह अपने भाई जयराज से बोला-‘जयराज ,तुम इसी समय ग्वालियर चले जाओ । तुम्हारा शहर जाना- आना बना रहता है पर इस समय तुम्हारा वहाँ जाना बहुत जरूरी है।’

        जयराज स्वयं ही जाने का मन कर रहा था। कुन्दन की बात सुनकर अम्मा जी बोलीं-‘तू शहर जा तो रहा है, वहाँ अपनी बहन के लिये लड़का देखना। वह तेइस साल की हो गई है, इतैक बड़े लड़के शहर में ही मिल पायेंगे। यहाँ गाँवों में इतने बड़े लड़के कहाँ रखे? तुम्हारी आँखें जाने कब खुलेंगीं?’

        कुन्दन ने माँ की बात का समर्थन किया-‘जयराज, माँ ठीक कहती है। ध्यान रखना।’

       जयराज बोला-‘मम्मी जी मैं वहाँ जा तो रहा हूँ। कोई लड़का दिखा तो मैं सूचना दूँगा। पिताजी को शीध्र भेज देना ,समझीं।’

      कुन्दन की मम्मी बोलीं-‘जब तक लता पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं हो जाती तब तक भैंही रहना। इस गाँव में न बिजली है और न नल। मच्छरों का प्रकोप इन दिनों यहाँ भारी है। छोटा बच्चा है, यहाँ उसकी देख भाल अच्छी तरह न हो पायगी। वह भी शहरी लड़की है और हाँ ,पाँच किलो गाय का घी रखा है। उसे बहू के लिये लेता जा। क्यों कुन्दन ठीक है ना।’

     कुन्दन बोला-‘ऐसा घी शहर में कहाँ रखा?यह बात आपने ठीक सोची है। ऐसी छोटी-छोटी बातें बहुत महत्वपूर्ण होतीं हैं।’

     कुन्दन की म्म्मी पुनः बोलीं-‘हम जानते हैं,वह शहरी लड़की है, मन तोड़ने से टूटता है और जोड़ने से जुड़ता है। अभै लड़कपन है। कल जब भार पड़ेगा अपना घर सभी को दीखने लगता है।’

    कुन्दन ने मम्मी को सुनाते हुये जयराज को सलाह दी-‘मम्मी कुन्दन को अभी कुछ दिन वहीं रहना चाहिये। यहाँ बहन का ब्याह करना है, नहीं तो इसे दुकान खुलाने में पैसा अपन लगा देते।’

   जयराज बोला-‘भैया पहले बहन के ब्याह की चिन्ता है। न होगा तो मैं वहीं रहकर कोई नौकरी देखूँगा। दस बीस हजार की व्यवस्था इधर-उधर से करके पहले उसका ब्याह करना ठीक रहेगा। उसके मैके वालों को हमारी समस्या कहाँ दिखती है! वे तो अपनी लड़की की चिन्ता में हैं। उन्हें हमारी बेटी के ब्याह से क्या लेना-देना।  जयराज

      लालूराम तिवारी इन बातों को घ्यान से सुन रहे थे। बोले-‘बहूरानी की इसमें गल्ती बिल्कुल नहीं है। उसके काना तो उसके घर के लोग भरते रहते हैं। हमें अपनी बहू के कारण झुकना पड़ रहा है।’

      कुन्दन ने समझाया-‘शादी-ब्याह जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों की देने है। हमारी बहूरानी चाहती है कि जयराज शहर में ही रह कर वहीं कोई काम-धन्धा करें। आज नौकरी मिलना कितना कठिन काम है। उसके मन में और कोई बात होती तो वह जयराज के बच्चे की माँ बनना स्वीकार न करती।’

     जयराज ने स्वीकारा-‘भैया, ये शहरी लोग अपने मतलब की सोचते हैं। उन्हें तो अपनी सुख-सुविधायें ही अच्छी लगती है।’

     शहरी लोग वाली बात ने कुन्दन को सोचने के लिये विवश कर दिया। उसे शहर और गाँव के मध्य की दूरी साफ-साफ दिखाई देने लगी। शहरी सभ्यता में आदमी अपने लाभ की बात सोचता है। गाँव के सभी की भलाई की सोचकर चलते हैं। वहाँ बिजली की चमक-दमक है। यहाँ दीपक जलाकर अंधियारा भगाने का प्रयास है।

      शहर झूठी शान-शोकत, दिखावे का प्रतीक है। गाँव में दिखावा नहीं है। जो है, वह जैसा है बैसा ही है। आजकल धीरे-धीरे गाँव में शहरीपन दस्तक देने का प्रयास कर रहा है। लोगों की बोल-चाल की भाषा बदल रही है। शहरी लोग गाँव की बोली को धडल्ले से असम्यता की बानगी कह देते हैं।

        कुन्दन का लड़का आदित्य उर्फ अदिया भी गाँव की बोली में शब्दों को बोलने का प्रयास करने लगा है। लता बहू ब्याह के समय जब घर आई थी। चाची जी शब्द सुनकर लता बोली-‘बेटे, चाची जी नहीं आन्टी जी कहते हैं।’

      दोनों की बातें कुन्दन की पत्नी आनन्दी सुन रही थी। चाची वाली बात उसने ही कहलवाई थी। उसे अपने विवके पर पश्चाताप हुआ, बोली-‘लता, तुम पढ़ी-लिखी हो। अब तो तुम्हीं इसे पढा़ओ-लिखाओ। हमारे साथ तो यह गँवार ही रहेगा तुम्हारे जेठ जी इस पर ध्यान देते नहीं हैं।मैं ठहरी अपढ़।’

     लता ने बड़ी सहजता से उत्तर दे दिया-‘भाभी जी, माँ बच्चे को जितना शिखला सकती है, उतना दूसरा कोई नहीं।’

    आनन्दी मन ही मन पश्चाताप करते हुये सोचने लगी- मैंने इससे यह क्यों कह दिया। यह इसे पढ़ाने-लिखाने वाली नहीं है। एक दिन यही बात उसने पति कुन्दन से कही। कुन्दन सोचते हुये बोला-‘शब्द ज्ञान से कुछ नहीं होता। आदमी के अपने संस्कार बच्चों पर प्रभाव डालते हैं। माँ जैसा चाहे बच्चे को बैसा बना सकती है। दया-ममता,स्नेह-सौहार्द की बातें आदमी अनुभव से सीखता है।’

   आनन्दी बात को समझने का प्रयास करते हुये बोली-‘माँ जहाँ अपने को अक्षम अनुभव करती है वह इधर-उधर से उसे सिखाने का प्रयास करती है।’

      कुन्दन ने उसे समझाया-‘माँ, की अक्षमता का परिणाम बच्चे को झेलना पड़ता है।’

     आनन्दी झुझलाहट प्रदर्शित करते हुये बोली-‘ज तो आप सारा दोष माँ की शक्ति को दे रहे हैं। अरे! पिता भी उतना ही जुम्मेदार है। यदि माँ किसी काम में असमर्थ है तो दायित्व पिता को पूरा करना चाहिये कि नहीं?’

     कुन्दन दायित्व महसूस करते हुये बोला-‘तुम चिन्ता मत करो। आदिया को पढ़ाने- लिखाने का दायित्व मेरा है।’

     आनन्दी बोली-‘ आप भी चिन्ता न करैं। इसकी प्रगति में आप जैसा कहेंगे, मैं साथ दूँगी। बस मेरा अदिया पढ़-लिख जाये। आज मुझे मेरा पढ़ा -लिखा न होना खटक रहा है। मन करता है मैं भी पढ़ना-लिखना शुरू कर दूँ। आप पढ़ायेंगे मुझे कि नहीं।’

     कुन्दन बोला-‘कैसी बात करती हो? यदि तुम पढ़ना चाहती हो तो मैं पढ़ाउँगा तुम्हें। बोलो, डाँट सहना पड़ेगी।’

     आनन्दी ने उत्तर दिया-‘मैं ड़ाँट सहने तैयार हूँ। आप मुझे पढ़ाये।क्या समझती है लता कि मैं अपढ़ हूँ!’

       कुन्दन सोचने लगा-आदमी निश्चय करले फिर उसके लिये कोई काम कठिन नहीं है। आनन्दी पढ़ी-लिखी नहीं है किन्तु उसमें समझ गहरी है। वह बात की गहराई समझती है। इसी कारण उसका पढ़ा-लिखा न होना ,मुझे भी खटकता नहीं है।

 

     इसी समय पता चला कि कुढ़ेरा के लड़के लड़ पड़े हैं। यह सुनकर कुन्दन बाहर निकल आया।लोग कुड़ेरा के लड़कों की आपस की लड़ाई निपटाकर लौट रहे थे।

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