अध्याय 26
"अपने कमरे में जा रही हूं" कहती हुई सरोजिनी उठी। पुराना रिश्ता जो अभी तक बड़े अच्छी तरह से चल रहा था वह कट गया जैसे उसके मन में एक शून्यता फैल गई।
"अपने-अपने कर्तव्यों को खत्म करने के बाद फिर जाना ही है। इसमें दुखी होने के लिए कुछ भी नहीं है" इस तरह से बड़बड़ाते हुए अपने कमरे की तरफ जाने लगी।
अरुणा का उनके साथ उनकी सहेली जैसे चलकर जाना उनके मन को सकून दे रहा था।
"अभी आपने उन्हें देखा था। इसीलिए आपको अधिक सदमा लगा और दुख भी होगा" अरुणा धीरे से बोली।
सरोजिनी कोई जवाब नहीं दिया। यह मुझे नाप रही है क्या ऐसा उन्हें संदेह हुआ। अपने कमरे में जाकर आराम कुर्सी पर बैठकर उसने आंखें बंद कर ली।
"क्यों दादी, आपको क्या हो रहा है?" फिक्र से अरुणा ने पूछा।
"कुछ नहीं" हाथ से सरोजिनी ने इशारा किया।
"आज इस समाचार की उम्मीद ना होने के कारण थोड़ा अजीब सा लग रहा है" आंखों को बंद किए हुए ही बोली ।
"पीने के लिए कुछ लेकर आऊं?"
"नहीं, थोड़ी देर मुझे अकेले में ही छोड़ दो। कार्तिकेय के पास जा कर "दिनकर साहब का देहांत हो गया बोल दो।"
उसके चेहरे पर जो उदासी दिखाई दी वह कुछ सोचते हुए देख "ठीक" कहकर अरुणा बाहर आ गई।
सरोजिनी के चेहरे से धीरे से उदासी दूर हुई और एक शांति और सौम्यता आ गई।
होंठों पर एक मुस्कुराहट आई। "कार्तिकेय और मुझे एक बार देखने के लिए इतने दिनों अपने को जिंदा रखा आपने" अपने आप से बोली। "आपका मन भरा हुआ है उस दिन आपने बोला था ना, उसका कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता....." "सिर्फ एक दिन को याद रखकर 50 साल मैंने गवाया" आप विश्वास करोगे क्या साहब? मैं भी एक मनुष्य ही हूं इसे समझाने वाले उस दिन आप ही थे? नहीं साहब मुझे उस दिन के लिए कोई दुख नहीं है। कोई अपमान का एहसास भी नहीं....
मन बहुत हल्का हो गया जैसे तैर रहा था ऐसा हल्का-फुल्का लगा। पहले का जीवन और बाद का जीवन मिलकर गोल-गोल चकरघिन्नी जैसे घूम रहा था। उसकी सास उसे सरोजी बुलाती और अब वह सरोजिनी है दोनों बदल-बदल कर एक नियति के अंदर फंस गए जैसे आंखों में पट्टी बांधकर अंधेरा में गोल-गोल चक्कर घिन्नी जैसे घूमना ।
"अम्मा....!"
थोड़ी देर उसको सुनाई नहीं दिया।
कोई उसके कंधे को जोर से दबा कर "अम्मा!" बोला।
उसने आंखें खोली।
कार्तिकेय, मुरूगन उनके पीछे अरुणा और नलिनी खड़े थे। सब लोगों के चेहरों पर चिंता दिखाई दी।
कुछ भी याद नहीं आने से असमंजस में "क्या?" बोली
"आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या?"
"तबीयत को कुछ नहीं है?" कमजोर आवाज में बोली।
"थोड़ी थकावट लग रही है"
"बिस्तर पर लेट जाइए" कार्तिकेय बोले।
"ठीक है" कहकर उठी तो हल्का सा सिर घूमने लगा।
"उम्र हो गई ना मेरी" धीरे से कहती हुई नलिनी और अरुणा की सहायता से बिस्तर पर लेटी।
अचानक श्यामला के बोले समाचार की याद आई। परंतु दिनकर नाम याद नहीं आया। मुझे क्या हो गया उसे आश्चर्य हुआ। कार्तिकेय को सूचना नहीं देनी क्या?
हड़बड़ाहट और असमंजस में बोली "वे मर गए"
"मालूम है" कार्तिकेय बोला।
"वे कौन है पता है?" कुछ सोचते हुए बोली,
"मालूम है दिनकर साहब ही बोल रही हो ना?"
"हां वही" होश में आए जैसे परेशान हो आंखों को बंद कर लिया।
सबकी निगाहें उसके ऊपर जमी थी जिसे उसने महसूस किया।
"उन्हें जाने क्या-क्या बीमारियां और परेशानियां थी। उम्र हो गई। उनके मौत ने आपको क्यों इतना परेशान कर रहा है?" कुछ सोचते हुए कार्तिकेय बोला।
सरोजिनी संभल गई।
"जाने वाले चले जाएं तो थोड़ा दुख तो होता ही है।"
"उनसे हमारा संबंध भी कई दिनों से नहीं था...."
सरोजिनी बिना जवाब दिए रही। मन में जो असमंजस था उसमें कुछ बक तो नहीं दिया सोच परेशान हुई।
"आपको अपनी तबीयत को खराब करने लायक कोई समाचार नहीं है यह"
कार्तिकेय के आवाज में एक कठोरता है ऐसा उसे लगा। अनजाने में ही उसके आंखों से आंसू बहने लगे। पास में जो खड़े थे उनके कान खड़े हो गए।
अरुणा घबराकर पास में आकर उनकी आंखों को पोंछा।
"क्या है अप्पा आप!" कहकर वह परेशान हुई। "किसी की मृत्यु हो गई वह इतने दिन बाद मिला उसके लिए कितना दुख मनाना चाहिए ऐसा लिमिट लगा सकते हैं क्या ? वह दादा, दादी के उन दिनों के समय के लोग थे । उनके लिए दादी का थोड़ा दुखी होना गलत है क्या ?"
"गलत है मैंने नहीं बोला, अम्मा की तबीयत के बारे में सोचा" संकोच के साथ कार्तिकेय खड़े थे। "वे कितने नजदीक थे मुझे नहीं पता।"
"हमारी अम्मा बोलती थी, पहले वह साहब अपने घर के लिए बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। बड़े साहब और ये बड़े भाई छोटे भाई जैसे रहते थे। एक ही शहर होता तो मौत पर जाना चाहिए। बड़ी अम्मा को तृप्ति होती" मुरूगन बोला।
थोड़ी देर सोचने के बाद, "अब भी जा सकते हैं" कार्तिकेय अचानक ही बोले। "यहां से 30 किलोमीटर ही हैं वहां एक गांव में रहते हैं बताया, उनका पता भी है।"
"चलें" अरुणा बोली |
"अभी क्यों?" नलिनी खींचने लगी।
"तो क्या हो गया जाकर आते हैं! उन्हें कोई मदद की जरूरत होगी करके आ जाएंगे" कार्तिकेय बोले।
सरोजिनी को कुछ देर आश्चर्य हुआ। कार्तिकेय को रवाना होने की सोचेंगे इसकी उसे उम्मीद नहीं थी। उसके अंदर लहरों जैसे भावनाएं उफनते हुए आकर गले को दबाने लगे।
"अम्मा क्या कह रहे हो?" कार्तिकेय ने कहा।
"जैसे तुम्हारी सहूलियत हो बेटा। जाकर के आना एक सम्मानजनक बात है" एक नई शक्ति से वह बोली।
कार्तिकेय उसके पास आकर उनकी हाथों को धीरे से पकड़ा।
"अपने से जो होगा वह प्रायश्चित हम करेंगे" वह धीरे से बोला।
सरोजिनी ने आश्चर्य से उन्हें देखा।
"किसलिए प्रायश्चित?"
"अप्पा ने उनसे जो शत्रुता की...."
उसने सिर झुका लिया।
"वह भी ठीक है" वह बोली। अरुणा की निगाहें उसी पर जमी थी।
"मैं और मुरूगन जाकर शाम तक वापस आ जाएंगे, और किसी को आने की जरूरत नहीं।"
नलिनी को इस बात से सहमति नहीं है ऐसा सरोजिनी ने महसूस किया। कार्तिकेय जाने के लिए स्वयं ने निर्णय किया तो उसे बीच में बोलने की जरूरत नहीं है इसलिए चुप रही।
कार्तिकेय के पीछे जा रही नलिनी,
"क्यों जी, आपको अभी क्यों जाना है?" उसका धीरे से पूछना उसे भी सुनाई दिया।
"पता नहीं जाना चाहिए ऐसा लगा, जा रहा हूं। इसमें कोई नुकसान नहीं है। जाऊं तो अम्मा को संतुष्टि होगी।
"उन्होंने तो मुंह खोल के कुछ नहीं कहा।"
"इसीलिए तो जाकर आना है!"
अरुणा सरोजिनी को देखकर धीरे से मुस्कुराई।
सरोजिनी बिस्तर से उठ कर बैठी। अचानक उनका मन बहुत हल्का हो गया ऐसे लगा। प्रकृति ही अपने जैसे की स्थिति को संभाल लेती है उसे ऐसे लगा।
वह अरुणा के हाथ को पकड़ कर, "यह देखो, मेरे लिए बेकार में बैठकर परेशान मत हो। तुम भी नहीं जाओगी तो मल्लिका दुखी होगी। तुम जाकर आ जाओ" बोली।
"नहीं दादी मैं नहीं जा रही"
"जाकर आ.... मुझे कुछ देर अकेला रहना है"
"फिर ठीक है" कहकर अरुणा उठी। कार्तिकेय और मुरूगन के रवाना होने के बाद नलिनी अंदर आकर खाना खाने के लिए उन्हें बुलाया।
"आज मुझे खाना नहीं चाहिए। पेट कुछ खराब सा लग रहा है" सरोजिनी बोली। सरोजिनी ने जिद्द ना करके वहीं कुछ देर संकोच के साथ खड़ी रही।
"अम्मा.... आपकी तबीयत को वैसे तो कुछ नहीं हुआ ना? कुछ अलग लग रहा हो तो कहिएगा। डॉक्टर को बुलाती हूं।"
"ऐसा कुछ नहीं है। तबीयत में कुछ खराबी नहीं है। वह साहब बहुत ही नजदीक के थे। उनका स्वभाव बहुत ही बढ़िया था। कुछ खराब समय के कारण तुम्हारे ससुर जी से उनका विरोध हो गया और उन्होंने अपने प्रभाव से उनके कुटुम्ब को ही नष्ट कर दिया। वह साहब बिना कुछ बोले उस प्रदेश को छोड़कर ही चले गए...."
नलिनी थोड़ी दुखी दिखाई दी। "इन सब को भूलकर अपने को देखना है ऐसी उनकी इच्छा हुई तो आश्चर्य होता है, नहीं?"
सरोजिनी ने कोई जवाब न देकर सिर को नीचे कर लेती है।
"मेरे अंदर हमेशा एक दोषी की भावना रहते आ रही है। तुम्हारे ससुर ने जो काम किया.... उसके कारण यह समाचार सुनते ही मैं हड़बड़ा गई।"
"फिर इनका रवाना होकर जाना सही है। पहले ही पता नहीं था। उनके रहने की जगह का पता होता तो आना जाना रहता।"
सरोजिनी ने प्यार से उसे देखा। नकली भेष बनाकर बैठने से ही कितना गौरव मिलता है उसे सोच हंसी आई।
"आप आराम करिए। थोड़ी देर के बाद मैं फल का जूस लाकर देती हूं। अरुणा क्या करने वाली है देखती हूं।"
"उसे मल्लिका के घर जाने दो। फिर नलिनी तुम अरुणा के बारे में फिक्र मत करो। शंकर और उसके बीच मित्रता है। परंतु तुम सोच रही हो ऐसा नहीं। ऐसा सोचना बहुत पुराने समय का सोच है। वह पढ़ी-लिखी लड़कियां अरुणा जैसे जो हैं बड़ी होशियार है उन्हें बहुत सारी बातों में इंटरेस्ट होता है। मेरे समय और तुम्हारे समय में आदमियों का साथ एक जरूरत नहीं थी। बाहर के बातें अधिक इंपॉर्टेंट हो गया है। अब अमेरिका पढ़ने जाने के लिए वह कितनी उत्सुक है! वह अपने जिंदगी को सही ढंग से चलाएगी। तुम फिकर मत करो। तलाक का हो जाना उसके लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं, जिसकी वजह से सिर झुक गया ऐसा कुछ भी नहीं है। उसके लाइफ में कोई दिखावटी पन नहीं है इसका यही अर्थ है। बाद में वह अपने पसंद के लड़के से शादी कर लेगी। उस पर तुम भरोसा रखो।"
मुंह बंद करके सुन रही नलिनी के चेहरे पर शांति दिखी।
"आपका कहना ठीक है ऐसा मुझे सुबह से ही लग रहा है" वह बोली।
अरुणा के अमेरिका जाने की बात उसे सांत्वना दे रही है सोच कर सरोजिनी को थोड़ा दुख हुआ। शाम का अंधेरा होना शुरू हो गया।
"अभी तक भी नहीं लौटे?" कहते हुए अरुणा, मल्लिका और शंकर के घर से वापस आकर सरोजा के साथ बाहर के बरामदे में बैठ गई।
"दादी ने कुछ भी नहीं खाया" कहती हुई नलिनी आई।
कार्तिकेय और मुरुगन के आने में 7:30 बज गए।
बगीचे के नल पर दोनों ने हाथ पैर धोकर सरोजिनी के पास आए।
"इतनी देर क्यों?" नलिनी के प्रश्न का कार्तिकेय सरोजिनी को देखकर हल्का सा मुस्कुराते हुए बोले "उनका दोहिते ने इसी समय पेड़ से गिरकर अपना हाथ तोड़ लिया। दामाद उसे लेकर हॉस्पिटल चले गए। उनका दाह संस्कार करने के लिए कोई भी आदमी नहीं था। मैं कर दूंगा बोला।"
एकदम सकपका कर सरोजिनी ने उसे देखा। मन के अंदर कुछ प्रभाहित होता हुआ गले में आकर फंसा और आंखों में भर गया।
"मैंने जो किया वह सही है ना अम्मा?"
सरोजिनी ने उनके हाथों को पकड़ लिया।
"बहुत ही अच्छा काम किया।" बड़े प्यार से बोली।
अरुणा ने उसके कंधे को पकड़कर दबाया। उस दबाने में एक इशारा भी और आंतरिक प्रज्ञा भी दिखाई दी।
तुरंत सरोजिनी ने अपने मन की खिड़कियों के पट को जोर से बंद कर दिया।
समाप्त