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फागुन वाली धूप रामलखन शर्मा

समीक्षा   

 

 

               फागन वाली धूप की संवेदना

                                     रामगोपाल भावुक  

       दोहे लिखने की परम्परा हिन्दी साहित्य में हिन्दी के विकास के साथ ही आ धमकी थी। भक्तिकाल में आकर तो यह परम्परा पूर्णरूप से पल्लवित हुई है। भक्ति काल में जायसी,कबीर जैसे कवियों ने तो दोहों की ऐसी छाप छोड़ी है कि जन जन में समाहित हो गई है। रीतिकाल में भी बिहारी ने सतसई लिखकर सतसई परम्परा का चलन शुरू किया था। रामचरित मानस में तो अधिकतर दोहे और चैपाइयाँ ही हैं। आज लोग मुहावरों और लोकोक्तियों में मानस के दोहों का प्रयोग करते देखे जा सकते हैं ,यह चलन आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। भाई राम लखन शर्मा ‘अंकित’ने इसी परम्परा को और अधिक पल्लवित करने का प्रयास किया है।

        राम लखन शर्मा ‘अंकित’ की कृति फागन वाली धूप की भूमिका में डॉ राजरानी शर्मा ने गहारी दृष्टि डाली है। वे लिखतीं हैं- दोहा गेय छन्द है। सहज सम्प्रेष्य है और समस्त मंत्रात्मक शक्ति के साथ अपनी बात रख सकता है।

       वन्दना में परम्परा के रूप में मां बाणी की वन्दना प्रस्तुत की है। दोहों में उपदेशात्म परम्परा का प्रचलन चलता चला आ रहा है। आज के कवियों का दृष्टि कोण बदल रहा है। वे उपदेशात्म शैली का त्याग कर वे व्यंग्य की धरा पर उनका उपयोग करने लगे हैं।           

           अब बरगद की आँख भी, बहा रही है नीर।

           गाँव नहीं समझा मगर, इस बूढ़े की पीर।।

राम लखन शर्मा अंकित मानते है कि-

              यात्रा लम्बी है पथिक, पथ पर भी अवरोध।

              खड़े हुए कुछ लोग भी, लेने को प्रतिशोध ।।

         वे अपने दोहों में कहानी कविता की तरह चित्रात्मक विम्ब उपस्थिति करने में माहिर हैं। जिससे वह दोहा पाठक के चित्त में उतर जाता हैं। वह उसे आसानी से ग्रहण भी कर लेता है-

               देवों ने मिलकर किये, बहुत कठिन जब यत्न।

               सागर ने हमको दिए, तब ये चैदह  रत्न।

पृष्ठ 29 के इस दोहे को पढ़ते हुए-

 

         सबसे पहले कीजिये, कविवर एक उपाय।

         पक्षी बिन पानी नहीं,गर्मी से अकुलाय।।

      छमा करें इस दोहे के भाव को मैं आत्मसात नहीं कर पाया। किस पक्षी के बिना पानी नहीं है। प्रसंग स्पष्ट करना चाहिए था।

    दोहों में निराशा वादी दृष्टिकोण की झलक देखने को मिली है। जो नहीं होनी चाहिए थी-तू तो केवल पात्र है, रे   मूरख  नादान।

                जाने फिर किस बात का, करता है अभिमान।।

दूसरी ओर आशावादी दृष्टि के दोहे भी बहुत हैं-

 दूर किनारा है बहुत, नाव बीच मझधार।

 बल्ली जिसके हाथ है, वही करेगा पार।।

पतवार के लिये बल्ली शब्द उतना सार्थक अर्थ नहीं दे रहा है।

कुछ दोहे सार्वभौमिक सत्य को व्यक्त करते हैं वे काव्य संकलन में जीवटता पैदा करने वाले हैं- चाहे कितना नित्य तू, करले अविष्कार।

                        सार एक संसार का, केवल सच्चा प्यार।।            

आपने अपने दोहा संकलन में लोकोक्तियों और कहावतों का भरपूर उपयोग किया है यथा-

सारा जग है जानता, सर्व विदित ये बात।

करती है किसका भला, नीच दुष्ट की बात।।

इसी तरह-‘ करते भ्रष्टाचार से, यदि धन संग्रह आप।

          ले डूबेगा आपको, वही एक दिन पाप।

    अधिकांश दोहे इस परिधि  के पसरे हुए दिखाई देते हैं।

रचनाकार ने कई लोकोक्तियों को जन्म भी देने का प्रयास किया है-

   जब से बिन पानी हुई, आँखें ये कंगाल।

   तब से ही पैदा हुये, सचमुच कई सवाल।।

और भी देखें-नेता जी को जब लगा, आया पास चुनाव।

           लेकर मरहम आ गये, भरने गहरे घाव।।

 इसी तरह -अगर चाहते हो भला, तो खिलने दो फूल।

           आप कभी करना नहीं, काम प्रकृति प्रतिकूल।।

 

          मैंने अधिकांश यह मससूस किया है कि अधिक लेखन भावों की पुनरावृति का कारण बन जाता है। इस तरह के पुनरावृति दोष से रचनाकार को बचने का प्रयास करना चाहिए।

         आपकी फागुन वाली धूप की भाषा सहज सरल है। पाठक इन्हें आसानी से आत्मसात करता चला जाता है। ऐसे सुन्दर दोहों के लिये रामलखन शर्मा ‘अंकित’ जी बधाई स्वीकार करें।

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कृति का नाम- फागुन वाली धूप

कृतिकार- रामलखन शर्मा ‘अंकित’

वर्ष- 2021

प्रकाशक-समदर्शी प्रकाशन, 335,देवनगर,मोदी नगर, मेरठ, उ. प्र. 250001

समीक्षक- राम गोपाल भावुक

 

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