अब भी देर थी Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अब भी देर थी

सुनसान बियाबान था। सायं - सायं हो रही थी। सड़क के दोनों ओर बड़े- बड़े पेड़ों के तरह - तरह के छोटे - बड़े पत्ते खड़खड़ा रहे थे। कोई भय से, कोई उन्माद से तो कोई हताशा से। दूर - दूर तक कहीं बिजली की रोशनी का नामोनिशान नहीं था। थोड़ी देर पहले बारिश होकर चुकी थी। कोई जंगली जानवर भी सड़क पार करता तो डर से जान का जोखिम उठाकर ही भागता। किसी को किसी का भरोसा न था। घना जंगल ठहरा।
कई किलोमीटर के ऊबड़- खाबड़ और टूटे- फूटे रास्ते में रोशनी के नाम पर एकमात्र उस मोपेड की धुंधली सी लाइट ही थी जो खड़- खड़ ज़्यादा और घर्र - घर्र कम करती हुई दौड़ी जा रही थी। उस पर सवार दोनों युवक अपने डीलडौल से इस निरीह वाहन पर ज्यादती सरीखे ही लगते थे, मगर चले जा रहे थे। कपड़े हवा में सर्र- सर्र फरफराते थे। एक दूसरे की बात तक सुनाई न पड़ती थी।
पीछे वाले के मुंह से आती बदबू का भभका हवा को मलिन करता, मगर आगे वाले के मुंह में दबे रजनीगंधा की तीखी गमक माहौल को कुछ राहत देती। न जाने कहां था गंतव्य। चले जा रहे थे दोनों। रास्ते में न कोई गांव - ढाणी आते, न कोई मनक मानुष। जाने कैसा इलाका था। रात, अंधेरा, खामोशी सब अपने- अपने पूरे ज़ुनून पर थे। आदमी भी पूरे उछाल पर। ज़रूर कहीं मनभावन मंज़िल की ओर भाग रही थी गाड़ी, तभी तो किसी को किसी तरह की थकान न होती।
पीछे बैठा आदमी ज्यादा आश्वस्त सा था। शायद वो जानता था कि वो कहां जा रहे हैं। वह वहां पहले भी आया रहा होगा। पर चलाने वाले आदमी को कुछ पता न था। वह पहली बार जा रहा था। उसका काम इतनाभर था कि मोपेड पर पीछे बैठे आदमी को ले जाकर वहां तक पहुंचा दे जहां वह जाना चाहता था। मगर दिखने में दोनों दोस्त जैसे ही थे। आगे वाला उतना मोटा भी नहीं था। वह ठीकठाक, स्वस्थ, गौरवर्ण युवक था। पीछे बैठा युवक ज़रा सांवले रंग का था। चलाने वाले युवक को इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा था कि यदि इतनी दूर जाना था तो वह अपनी जीप या कोई और गाड़ी क्यों नहीं ले आया। इस तरह मोपेड पर इतनी दूर आने की क्या ज़रूरत थी। फिर ठंड भी बहुत थी। रास्ता सुनसान, टूटा - फूटा। गाड़ी में कहीं ज़रा कुछ हो जाए तो यहां कहीं सिर छिपाने की जगह तो क्या पीने को घूंटभर पानी तक न मिले। क्या सूझी यहां आने की?
पर पीछे वाला युवक इन सब चिंताओं में नहीं था। उसका ध्यान कहीं और था। उसने सर्दी से बचने के लिए कुर्ते की जेब से रुमाल निकाल कर उसे सिर पर बांध लिया था। उसकी आंखों में खासी चमक थी और वह जैसे- जैसे यात्रा पूरी होती जाती, खुश व खिला हुआ दिखता जा रहा था।
आख़िर मंजिल का पता ठिकाना नज़र आने लगा। काफी दूर से एक मोड़ पर पीछे वाले युवक ने बताया कि घुमावदार रास्ते के पार थोड़ा कच्चे में चलकर जो बुर्ज दिख रहा है, बस वहीं जाना है। गाड़ी चलाने वाले को राहत मिली।
बुर्ज़ जिस इमारत पर था वहां हल्की सी रोशनी भी दिख रही थी। लगता था कि पूरे भवन में न सही परंतु कुछ - एक कमरों में अवश्य ही वहां कोई है।
रात के दो बज रहे थे जब वो दोनों वहां जाकर पहुंचे। उस इमारत के पास पहुंचने पर वहां थोड़ी बहुत हलचल दिखाई दी। कुछ लोग यहां- वहां आते- जाते दिखाई दे रहे थे। सामने एक बड़े से मैदान में कई ट्रक व ट्रैक्टर्स खड़े थे।
मोपेड चलाने वाला युवक वहां पहुंचते ही निढाल सा हो गया। वह शायद नींद का भारी दबाव झेल रहा था। पहुंचते ही उसने गाड़ी को एक ओर खड़ा किया और पास ही खड़ी ट्रैक्टर की एक ट्रॉली पर चढ़ गया। उसने कमीज़- पायजामा उतार कर एक तरफ़ टांग दिया और बांह का सहारा सिरहाने लगाकर चड्डी पहने लेट गया।
दूसरे युवक के उत्साह का पारावार न था।
वह भीतर पहुंचा ही था कि उसे तीन - चार लोगों ने घेर लिया। यहां - वहां से निकल कर और भी लोग आने लगे। किसी से हाथ मिलाता, किसी के पांव छूता, किसी से गले मिलता वह भीतर बड़े कक्ष की ओर बढ़ने लगा, जहां दरी बिछी थी।
बरामदे में बीसियों खोखे, कपड़े के गट्ठर और गत्ते के कार्टन बिखरे पड़े थे। सबमें न जाने क्या - क्या था। पास के छोटे कमरे से बर्तनों के खनकने की आवाज़ें आ रही थीं। पत्तलों के ढेर के पास तीन- चार कुत्ते रात के इस पहर भी अठखेलियां कर रहे थे।
युवक के वहां जाकर बैठते ही दो- चार के झुंड में बाकी लोग भी आकर बैठने लगे। जगह- जगह वार्तालाप और गुफ्तगू चल रहे थे। युवक को लोगों ने ऐसे घेर रखा था जैसे गुड़ को मक्खियां घेरे रहती हैं।
युवक के चेहरे पर शाश्वत मुस्कान थी।
वह कभी किसी की ओर देख कर बात करता, कभी किसी ओर। बीच- बीच में कुछ लोगों को लेकर उठकर बरामदे में भी आ जाता। कभी फुसफुसा कर,कभी ठहाके लगा कर, कभी इशारे से मुखातिब होकर वह लोगों से तरह- तरह से पेश आ रहा था।
बातों के जैसे अनार फूट रहे थे।
- छब्बीस तारीख की परेड में पत्थर फिंकवा दो तुम लोग। डीएसपी को सब मालूम है, कोई नहीं आने वाला।
- कॉलेज में लड्डू जायेंगे। घासीराम के यहां से हफ्ते भर पुरानी सड़ी मिठाई बंटवा दो, सालों की अक्ल ठिकाने आ जायेगी। वो परधान वहीं होगा, जूते पड़ जायेंगे उसके!
- ओए, क्रेट उतरवा लिए? रखवा ले गाड़ी में। साल भर ठर्रा पीते हैं अबकी बार माल मिले तो साले चौड़े हो जायेंगे।
- समझ गया न, पूरे एक ट्रक गुलाब लगेंगे। बंदोबस्त करके रखना। पिछली बार की तरह दांत दिखाए तो तुझे ऐसी जगह पहुंचाऊंगा कि पचास हजार में भी वापस नहीं आने का। वेलफेयर वालों की कितनी ही चमचागिरी करले तू।
- वो स्कूल वाला, पिछली बार बढ़िया रिजल्ट देकर सिर पर चढ़ गया था, करा दो अबकी बार उसकी धोती ढीली...
ये सब बोधवाक्य रश्मियों की भांति टूट कर फिज़ा में बिखर रहे थे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि जंगल में आधी रात को मोपेड पर दौड़ता हुआ ये युवक यहां पहुंचते ही इतना मुखर, इतना जीवंत हो जायेगा। रास्ते की थकान तो क्या, शाम के खानपान की कोई खुमारी तक बाकी नहीं थी। रात ढल रही थी। काम बहुत थे। वह मुस्तैदी से काम में लग गया। अभी "महिला विंग" से तो बात ही नहीं हुई थी।
एक बुजुर्गवार से सज्जन उसकी ओर बढ़े, बोले - "मां साहब के दर्शन नहीं हुए!"
- अम्मा तो दिल्ली में हैं, टिकिट लेकर ही लौटेंगी।
बाहर चार- पांच ट्रैक्टर शायद एक साथ स्टार्ट हो गए थे। कुत्ते वहां से इधर - उधर हटने लगे थे। इसलिए नहीं, कि ट्रैक्टरों की आवाज़ से डर गए थे, बल्कि इसलिए कि पत्तलों में अब कुछ बाकी नहीं था। रोशनियां एक- एक करके अलग- अलग दिशाओं में मुड़ गईं।
अंधेरा फ़िर फैल गया। सूरज निकलने में अब भी देर थी! कौन जाने, निकले या न निकले!
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल