पिछली सदी की पोटली Prabodh Kumar Govil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पिछली सदी की पोटली

सल्तनत तेज़ी से कदम बढ़ाती हुई चल रही थी। उसे पांच बजकर नौ मिनट तक हर हालत में घर पहुंचना था, क्योंकि गजराज ठीक पांच दस पर उसे बधाई देने वाला था। बधाई दे, रोए, फातिहा पढ़े, अलबत्ता वह उससे बात करने वाला था।
त्रिवेणी के पीछे से लंबवत पूर्व की ओर जाने वाली सड़क पर नौ किलोमीटर दूर उसका फ्लैट था। सातवीं मंज़िल, सी साइड, अफसाना बिल्डिंग। पते से लगता था जैसे ये मुंबई शहर का कोई इलाका होगा, परन्तु अपनी नाम-गंध से इतर ये दिल्ली की ही बस्ती थी।
वह अपने इस घर से तकरीबन बावन किलोमीटर की दूरी पर कैनॉट प्लेस के बी ब्लॉक में थी और तेज़ी से चल रही थी।पांच बजकर एक मिनट हो चुका था।घड़ी पर सतत निगाह थी सल्तनत की।
ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे से कस्बे के चर्च पुजारी गजराज से हर वर्ष आज के दिन मिलने वाली ये बधाई वह किसी भी कीमत पर मिस नहीं करना चाहती थी। यों गजराज से वो कभी भी संवाद कर ले,पर आज के दिन की बधाई बहुत खास थी।उसके लिए भी और संभवतः गजराज के लिए भी। क्योंकि आज दोनों का ही जन्मदिन होता था।
घर पहुंचने की जल्दी में उसने पर्स से टिकट निकाल कर टॉवर हॉल के गेट पर लगी मशीन में डाला और लपक कर लिफ्ट में दाखिल हो ली।
लिफ्ट से ही उसने लिफ्ट कार्ड अपनी बेटी जागीर को फ्लाई किया कि वह उसे छत पर ही मिले।
वरना सातवीं मंज़िल से बिल्डिंग की छत अर्थात बाईस वीं मंज़िल पर बैलून मंगाने में लगने वाले चौंतीस सेकेंड्स बचाने का और कोई तरीका नहीं था।
जागीर को घर पर मैसेज मिल जाने का रसीद कार्ड उसे मिलते ही उसने पर्स बंद किया और लिफ्ट से बाहर आ गई।
शूट रेंज नंबर नौ लगभग खाली था।वह उसी ओर बढ़ गई।यहां भी उसका मनचाहा हो गया।
उसका तीसरा नंबर था,मगर उन आगे वाले दो में से भी एक ने चांस मिस करके लाइन से बाहर आने में रुचि दिखाई।
शायद वह दिल्ली में नया नया आया था और उसमें इस आकाशीय ऊंचाई से शहर देखने की ललक बाक़ी थी।शहर का पूरा जोबन यहां से उजागर जो था।
वह और आगे बढ़ गई।
उसने मन ही मन शुक्रिया कहा और चैन की सांस ली। लगभग पचहत्तर सेकेंड्स और बच गए उसके। 
अगले ही पल कर्ली पीले बालों वाली वेट्रेस उसकी पीठ पर कैप्सूल का अंतिम लॉक कर रही थी। उसने पैड शूज़ पर पांव रखे और लगभग झूलती हुई शूट प्वाइंट पर आ खड़ी हुई।
काउंट डाउन की हल्की मधुर धुन बजी तो उसे राहत का अहसास हुआ। शूट सायरन होते ही उसे गजराज का ख्याल एक बार फ़िर आया,किन्तु ये जल्दी ही तिरोहित भी हो गया,क्योंकि कैप्सूल अनलॉक करते ही उसने जागीर को बैलून में बैठे अपनी बिल्डिंग की छत पर पाया।
उसने बिटिया का दिया पेस्ट्री का टुकड़ा मुंह में डाला और बैलून सीट पर टिक गई। पांच बजकर आठ मिनट हो चुके थे।वह शीशे के सामने से इठलाती हुई अपने कमरे में पहुंची जहां अब से पौन मिनट बाद गजराज उसके तकिए के करीब लगे स्क्रीन पर दिखने वाला था। उत्तेजना, उद्वेग और उद्रेक का पौन मिनट बहुत लंबा होता है। पूरे पैंतालीस सेकेंड्स।
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में यह सुविधा अा गई थी कि कनॉट प्लेस पर लगे टॉवर की छत से एक विशेष कैप्सूल पहन कर वहां रखी तोपों से आप कुछ रुपए देकर आप सीधे अपने घर की छत पर शूट हो सकते थे। अपनी छत का रजिस्ट्रेशन करवा कर एक विशेष नंबर कार्ड आपको बनवाना पड़ता था। कुछ लाख रुपए खर्च करके। शाम के समय हवाई जहाज से ऊपर से देखने पर रंग बिरंगे पतंगों से लगते थे ये कैप्सूल।
कोलकाता, मुंबई और दिल्ली के बीच पिछले साल जब से नॉन स्टॉप ट्रेन शुरू हुई थी,एक निजी कंपनी ने इस टॉवर स्कीम पर भी काम शुरू किया था, और ये सेवा शुरू हो गई थी।
तीन महा नगरों के बीच चलने वाली ये नॉन स्टॉप ट्रेन रास्ते में कहीं भी रुकती नहीं थी।परन्तु इससे बीच के बड़े स्टेशनों पर उतरा जा सकता था।जब स्टेशन आने वाला होता था, यात्रियों को एक विशेष प्रकार का बॉडी हेलमेट पहनना पड़ता था। सामने से लाइट सिग्नल मिलते ही डिब्बे के दरवाज़े पर खड़े होने से तमंचा नुमा एक मशीन आपको बॉडी हेलमेट सहित स्टेशन पर फ़ेंक देती थी।
एक जगह उतरने वाले सभी मुसाफिरों के ये हेलमेट एक ड्रम में एक साथ होते, जिसे प्लेटफॉर्म पर जमा करा के आप अपने घर जा सकते थे, ट्रेन के बिना रुके।
इसी ट्रेन के बाद से दिल्ली की ये शूट सर्विस काफ़ी लोकप्रिय होती जा रही थी।और शहर की हर बस्ती की सैकड़ों इमारतें अपनी छतों के रजिस्ट्रेशन नंबर ले चुकी थीं।
सल्तनत अब इत्मीनान से अपने बिस्तर पर आ लेटी थी और उसने आंखें सामने लगे स्क्रीन पर टिका दी थीं।उसे एक पल में ही करेंट का राहत भरा हल्का झटका लगा जब सामने स्क्रीन पर गजराज की अंगुलियों का चित्र आने लगा, उसका नंबर मिलाते हुए।
उसने पहलू बदला और अगले ही पल गजराज उसके सामने था।
गजराज उसका संचार मित्र था।गजराज से उसकी पहचान हो जाना भी कम दिलचस्प नहीं था।
वह वर्षों पहले एक दिन वेब साइट पर उन लोगों के नाम खोज रही थी जो ठीक उसी वर्ष, उसी दिन, उसी पल पैदा हुए थे जब उसका जन्म हुआ।
उसे दुनिया भर के ग्यारह लोग ऐसे मिले जिनका जन्म ठीक उसी पल हुआ था। उनकी उम्र बिल्कुल उसके बराबर थी, न एक सेकंड भी कम और न ज़्यादा।
इन लोगों के हॉरोस्कोप पढ़ते हुए इसी नाम, गजराज पर आकर उसके मन में एक अनोखा स्पंदन हुआ। लगभग सारी बातें उससे मिलती हुई।
ग्रह नक्षत्र का बिल्कुल वही नक्शा,एक मीठी जिज्ञासा सी हुई और दोस्ती हो गई।
कई वर्ष से चल रहा था ये सिलसिला।
गजराज उसका असली नाम नहीं था, बल्कि गजराज तो उसके द्वारा दिया गया कोड था।
उसका वास्तविक नाम था स्मिथ शहज़ाद। स्मिथ शहज़ाद मुस्लिम मां और ऑस्ट्रेलियन पिता की संतान था।वह उन्नीस वर्ष से भी कम उम्र में संन्यास लेकर चर्च की सेवा में आ गया था।
वह विधिवत पुजारी नहीं बना था, न ही उसने कोई दीक्षा ली थी।पर लंबे समय तक उसकी सेवा भावना और निष्ठा के कारण उसे उस छोटे से कस्बे के सामान्य से चर्च की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी।वह अपने मन मुताबिक पद्धति से अर्चना करवाने के लिए लोकप्रिय था। वहां नज़दीक ही कोई बड़ा पर्यटक स्थल होने के कारण गाहे बगाहे भटक कर लोग उस खंडहर चर्च नुमा इमारत में आ जाते थे।
वहां शहज़ाद उन्हें भक्ति भाव में डुबोकर वांछित उपासना करवाने में मदद करता था। चर्च का वह अहाता छोटी मोटी सराय का काम भी करता था।और वही अब शहज़ाद उर्फ़ गजराज की शरण स्थली था।
उसका नाम था सल्तनत।उसे प्यारा सा रोमांच हुआ था आस्ट्रेलिया के इस हम नामराशि युवक से संवाद कर।
शहज़ाद ने सल्तनत को बताया कि संन्यास से उसके जुड़ने की भी एक अजीबो गरीब कहानी थी।
संन्यास जुड़ना होता है या विलगना? सल्तनत ने उससे पूछा था। और फ़िर डूब गई उस कहानी में, जो हज़ारों किलो मीटर दूर बैठा शहज़ाद उसकी भाषा में पर्दे पर लिख कर उसे सुना रहा था।
सल्तनत के जन्मदिन पर उसके इस विदेशी संचार मित्र गजराज उर्फ़ शहज़ाद की ओर से सबसे बड़ा तोहफ़ा यही था कि उसने सल्तनत की नज़रों के सामने रहने के लिए पूरे पचास मिनट बुक करवाए थे।
इतना खर्च तो शायद उस पार्टी पर भी नहीं आने वाला था,जो अब से कुछ घंटे बाद सल्तनत के घर होने वाली थी। जिसमें कुल तीस लोग शरीक होने वाले थे।
जिसकी तैयारी सल्तनत की बिटिया जागीर सुबह से ही कर रही थी।
दरअसल शहज़ाद का संन्यास संसार से उपजा कोई वीतराग नहीं था, बल्कि वह एक प्रकार की सज़ा काट रहा था।
वह खुदको सज़ा दे रहा था, कोई प्रायश्चित कर रहा था, अथवा किसी की दी हुई सजा काटने को अभिशप्त था, ये सब किसी धुंध में ही था।
पर सल्तनत को ये सब किसी तिलिस्मी दास्तान जैसा ही लगा था। सौंधा, नाज़ुक, शीशे सा पारदर्शी, पत्थर सा ठोस, दही सा खट्टा, रुई सा नरम और मिश्री सा मीठा...
शहज़ाद की एक प्रेमिका थी राहत!
छोटी सी,प्यारी सी, बला की खूबसूरत!
एक दिन अपने कोटेज़ के पिछवाड़े वह उसे चूम रहा था।
उन दोनों ने शर्त लगाई थी कि देखें, शहज़ाद राहत का कितना लंबा चुम्बन ले सकता है?
किशोर वय शहज़ाद की गर्म सांस एक तूफ़ान की तरह राहत के गिर्द चक्कर काट रही थी।
बीच बीच में राहत हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी में समय देखती थी।
दूसरे हाथ से उसे शहज़ाद के हाथ पर भी नियंत्रण रखना पड़ता था,जो उसके बदन पर बेलगाम घूम कर चुम्बन को और आग की तपिश दे रहा था।
इस झंझावात से चुम्बन से उत्तेजित होकर शहज़ाद कभी उसके स्नात शहतीरों से गोरे पांवों को अपने घुटनों से सहलाता,तो कभी तेज़ी से उसकी छाती से नीचे फिसलती अंगुलियों को नीचे लाकर पेट के निचले हिस्से के सद्य पल्लवित नवांकुरों को छू देता।
प्रेमिका राहत मीठा, खुशबूदार, गुलाबी ज़ोर लगा कर अपने कोमल नाखूनों की बंदिश से उसका हाथ रोकने की कोशिश करती और फ़िर दूसरे हाथ में बंधी कलाई घड़ी में समय देखती।
ऐसा लगता था कि शहज़ाद की ये गर्म आंधी कभी खत्म नहीं होगी और उसके बहाव में राहत की हस्ती उससे एकाकार होकर ही रहेगी।
पौने दो घंटे बाद जाकर रुका था ये जवां तूफ़ान।
हांफ रहा था शहज़ाद। कांप रही थी राहत।
तमाम दुनिया के शब्द कोषों में इस तूफ़ान का कोई मुकम्मल अर्थ दर्ज़ नहीं था।
अपने कपड़े व्यवस्थित करके राहत और शहज़ाद जब अगले दरवाज़े की ओर आए तो सकते में आ गए।
शहज़ाद के घर के सामने एक बेदम बूढ़ा बेहोशी की सी हालत में खड़ा था। दीवार का सहारा लिए हुए।
कहता था कि उसे बहुत ज़ोर की प्यास लगी है और वह बीमार भी था। आसपास कोई और घर न पाकर वह इसी दरवाजे पर एक घंटे से खड़ा पानी की गुहार लगा रहा था।
वह इस इंतजार में था कि दरवाज़ा खुले और कोई उसे दो घूंट पानी पिलाए।
शहज़ाद ने सारी बात सुनने के बाद उसे पानी की दो बोतलें देकर बिदा किया।
राहत शर्मसार हो गई।
उसे न जाने क्या सूझा, कि शहज़ाद की आंखों पर अपनी कोमल हथेली टिका कर बोली - मैं जा रही हूं।
जाते जाते वो मासूम सी लड़की न जाने कौन सी भावना के वशीभूत उससे कह कर चली गई कि अब जब शहज़ाद एक हज़ार प्यासे लोगों को पानी पिला देगा, तभी वह उससे मिलेगी। ऐसा कह कर वह एकाएक ओझल हो गई।
शहज़ाद ग्लानि, चुनौती और खिन्नता के अहसास से भर गया।
दिन बीतने लगे। उसने इस पुराने खंडहर नुमा चर्च के अहाते में आकर मुसाफिरों को पानी पिलाना शुरू कर दिया।
सुबह,दोपहर,शाम एक सनक सी सवार हो गई उसपर।
चंद दिनों के बाद उसे पता चला कि राहत और उसका परिवार वह शहर छोड़ कर हमेशा के लिए कहीं चले गए। राहत शहज़ाद से फ़िर कभी नहीं मिली।
कहानी सुनकर सल्तनत के भीतर पानी की कोई लकीर सी बहने लगी।वर्षों पूर्व उसका अपने पति से अलगाव हो चुका था। अपनी बेटी जागीर को अब वह अकेली ही पाल रही थी।
खुद सल्तनत भी तो जागीर के पिता से अलग होते समय यही कह आई थी कि अब जब वे एक हज़ार बार लिख कर उससे माफ़ी मांग लेंगे, तभी वह उनके पास लौटेगी। वरना...
गजराज उर्फ़ शहज़ाद ने जब अपनी कहानी ख़त्म की तो निर्धारित समय बीतने में कुछ मिनट बाक़ी थे।
सल्तनत का चेहरा मुलाक़ात से तरोताजा मगर आंसुओं से तर था।
उसने लिख कर शहज़ाद को छोटा सा जवाब दे डाला - "राहत को ज़रूर तलाश करना शहज़ाद! वह कहीं न कहीं तुम्हारे इंतजार में अवश्य होगी। तन मन के पहले स्पंदन की परिभाषाएं सदियां, संस्कृतियां और संचार तंत्र कभी नहीं बदल पाएंगे !"
पटाक्षेप हो गया था और पर्दे से शहज़ाद की छवि ओझल हो चुकी थी।
अतीत का पन्ना हवा के झोंके से पलट गया। सामने बिटिया जागीर खड़ी थी। पिछली सदी की पोटली से उड़ी गंध छितराई हुई थी। शाम तन गई थी।
नोट : इस काल्पनिक कहानी का आरंभ लगभग तीन दशक पहले  उस समय किया गया था जब मोबाइल फोन अस्तित्व में नहीं आए थे, और आज की भांति संपर्क सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। - प्रबोध कुमार गोविल