हर सहरा के नखलिस्तान जरूर हैं Prabodh Kumar Govil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हर सहरा के नखलिस्तान जरूर हैं

हर सहरा के नखलिस्तान जरूर हैं

-प्रबोध कुमार गोविल

कई फिल्मवालों ने रेगिस्तान को अपनी फिल्मों में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया है। पीले-नारंगी रंग की यह नयनाभिराम रेत देखने में जितनी मनोरम लगती है, वहां के जीवन को उतना ही उजाड़ और बेबस बना देती है। वहां गर्मी-सर्दी आप चैन से रह नहीं सकते। हां, हर सहरा के कुछ नखलिस्तान जरूर हैं, जिनके चलते लोग वहां जाते भी हैं और रहते भी हैं। राजस्थान प्रदेश तो लगभग आधा इस रेत की चपेट में ही है। बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर जैसे कई जिले तो अन्यान्य कारणों से प्रसिद्ध हैं और वहां लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है।

रेत के टीलों की एक खासियत है। तेज हवा के चलने से रेत उड़ने लगती है और कभी-कभी देखते ही देखते पूरा का पूरा टीला अपनी जगह बदल लेता है। आंधी चलती है, धूल उड़ती है और सब दिखाई देना बंद हो जाता है। फिर हवा थमती है, वातावरण साफ होता है और आप अचरज से देखने लगते हैं कि सामने का पूरा रेत का समन्दर खिसककर दूसरी दिशा में पलट जाता है। किसी को भी दिशा-भ्रम हो सकता है यहां। पयर्टन विभाग यहां डूबते सूरज के मनोहारी दृश्य को अपने प्रचार पोस्टरों में चाहे जितना ही खुशगवार दिखाये, सच ये है कि ऊंट पर बैठकर डाक बांटने वाले सरकारी बाशिंदे यहां गांव-दर गांव घूमते बेदम हो जाते हैं। इनका उगता सूरज सुखकारी है, ढलता सूरज। यही नियति है यहां के लोगों की। पानी की कमी से भी जूझते हैं ये।

एक बार बीकानेर शहर में किसी काम के सिलसिले में जाते हुए मुझे यह अहसास ट्रेन में ही हो गया था कि रेत बस देखने में ही खूबसूरत है। रात को रेल के बंद डिब्बे में भी उड़कर इतनी मिट्टी आई कि सुबह जब आंख खुली तो सीट पर, नीचे कम्पार्टमेंट में रेत की मोटी परत जमी मिली। रेत के कणों के किरकिरे अहसास हफ्तों तक दांतों और आंखों की कोरों से नहीं गये। लेकिन यह यात्रा मैंने जिस प्रयोजन से की थी उसके आगे ये छोटे-मोटे कष्ट कुछ थे। दरअसल मैं दो दिन के लिए वहां एक ऐसे नामी साहित्यकार से मिलने जा रहा था, जिनसे मिलने की इच्छा वर्षों से मेरे मन में थी। अब यह सुनहरा अवसर मुझे मध्यप्रदेश की एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के सौजन्य से मिल गया था। मुझे पूरा दिन उनके साथ रहकर उन पर ज्यादा से ज्यादा जानकारी लानी थी।

उनसे मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं था। और सच कहूं तो प्रत्यक्ष रूप से उनसे मिलना तो हुआ ही नहीं था। लगभग सन् उन्नीस सौ अस्सी-इक्यासी मेंसारिका ने एक आधुनिकता विशेषांक निकला था। इसमें मेरी एक कहानी छपी थीअंतर और इसी अंक में श्री यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र की भी एक कहानी छपी थी, जो मैंने पढ़ी थी। बस, यहीं से उनके लेखन पर बारीकी से ध्यान जाने की शुरूआत थी। आधुनिकता के तत्कालीन परिवेश में शर्मा जी की कहानी को प्रभाव यह पड़ा कि तब से मुझे यादव, शर्मा, इन्द्र जैसे क्लासिकल, पुराने परम्परावादी शब्द भी आधुनिकता से जुड़े-से दिखने लगे। मुझे जाने क्यों, ऐसा लगने लगा कि यह कोईसान्ताक्लॉज जैसा आदमी होगा, जो सफेद हिमधवल केश और दाढ़ी बढ़ाये लाल कपड़ों में सुनहरी रेत पर घूमता रहता होगा। शर्मा जी बीकानेर के रहने वाले हैं। बाद में पता चला कि इस शख्स की कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं और मुंबई की फिल्मीनगरी में उनका गमनागमन संपर्क है। वे कई बार वहां आये-गये भी हैं। मगर यह जानकर और मजा गया कि मुंबई से बार-बार लौट आने के बावजूद उन्होंने नीरज या शहरयार की तरह फिल्मी दुनिया छोड़ी होगी। सचमुच मुझे लगने लगा कि इस आदमी के कपडे़ लाल नहीं, रंग-बिरंगे होंगे। और इसने उस मायूस शायर की तर्ज पर फिल्मी दुनिया कई बार छोड़ी होगी, जिसने शराब कई बार छोड़ी। बहरहाल शराब छोड़ना जिसके लिए कोई मुश्किल काम था, दसियों बार छोड़ी। कई बार, किसी को बताए बिना उसके यहां पहुंचने का भी अपना ही एक आनंद है। इसमें कभी आपसरप्राइज देते हैं तो कभी आपको सरप्राइज मिलता है। मेरे साथ ऐसा ही हुआ। स्टेशन पहुंचकर मैंने फोन से शर्मा जी की खैर-खबर लेनी चाही, तो मुझे पता चला कि वे शहर में हैं ही नहीं। एक शुरूआती झटका जरूर लगा, पर तुरंत ही यह ख्याल कौंध गया कि वे सही, उनका शहर तो है। वैसे भी वे होते तो मैं सीधे उनके घर जाने वाला नहीं था, ठहरना मुझे किसी होटल में ही था। मैंने वही किया। मन-ही-मन फैसला भी किया कि मैं दो दिन इस शहर में ठहरकर उनकी प्रतीक्षा करूंगा और यदि वे आए तो वापस चला जाऊंगा।

जिस होटल में मैं ठहरा था वह एक वीरान-सा होटल था। किसी वजह से सुनसान लग रहा था या वहां बस्ती ऐसी ही थी, पता नहीं। अलबत्ता बड़े शहरों के मध्यम होटलों जैसी भी गहमा-गहमी वहां थी। मुझे कमरा भी एक तंग गलियारे के अंतिम सिरे पर जाकर मिला।

सुबह एक कप चाय पीकर मैं देर तक नहाया और फिर मैंने रात भर के रेल के सफर के बाद थोड़ा आराम करने का मन बनाया। कमरे की झाड़ पौंछ करने के लिए एक छोटा लड़का आया। उसे मैंने जाते समय दरवाजा बंद कर जाने का निर्देश दिया और चादर तानने लगा। तभी वही लड़का झाडू हाथ में लेकर दयनीय सी दृष्टि से खड़ा हो गया। बोलासाहब, मुझे बीस रूपये दे दो, मेरी मां बीमार है अभी ड्यूटी के बाद मैं उसके लिए दवा ले के घर जाऊंगा। मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। दिल्ली मुंबई में ऐसे याचक और ऐसे कारण देख-सुन कर कान पक जाते हैं। पर छोटे शहर में भी यह बीमारी? नहीं-नहीं। हम महानगरवासी हर बात के कलुष को सूंघने के आदी हो जाते हैं। हो सकता है, इसे सचमुच पैसे की जरूरत हो। होटल में छोटा-मोटा काम करने वालों को मिलता ही कितना है? होटल मालिक तो देने से रहा, वह तो पगार ही समय पर दे दे, तो बहुत है। इस पेशे में पगार दबाकर रखना ही तो नियोक्ता की कर्मचारी के लिए जमानत है। इसी लालच में वे टिकते हैं।

मैंने जेब से बीस का एक नोट निकालकर उसे थमा दिया। बाद में, पूरे दिन मुझे लगता रहा कि मेरा बीस का नोट कृष्ण की लुटिया के उस दूध की मानिंद है जो कभी बीतता नहीं। बीस रूपये के अहसान तले वो लड़का सारा दिन दबा रहा। बिना पूछे ही मेरे जूते पालिश कर दिये। नहाकर जो गंदे कपड़े मैंने ऐसे ही टंगे छोड़ दिये थे उन्हें धो डाला, और बीच-बीच में जब-जब उसे समय मिला, वह मुझे चाय पानी के आकर पूछ गया। मैं आश्चर्य से यही सोचता रहा कि शायद यहां बेकारी बहुत है। गरीबी बहुत है। बीस रूपये में भी अहसानों की दुनिया खरीदी जा सकती है।

शाम को बाजार का एक चक्कर लगाकर मैंने फोन से शर्मा जी का समाचार लेना चाहा तो मुझे पता चला कि वे शायद चार-पांच दिन आएं या शायद इससे भी ज्यादा।

अब रूकना बेकार था। मैंने स्टेशन जाकर अगले दिन शाम की गाड़ी का वापसी का टिकट खरीद लिया। खा-पीकर मैं होटल लौट आया। देर हो जाने पर भी वह लड़का मुझे इंतजार करता ही मिला। कमरे में घुसते ही उसने फिर मुस्तैदी से बिस्तर झाड़ा, टीवी ऑन किया। मेज पर रखा पानी बदला और चाय के लिए पूछा। और अब कपड़े बदलकर इत्मीनान से बिस्तर पर मैं बैठा तो वह एक बार फिर उसी दयनीय मुद्रा में आकर किसी जन्म के याचक की भांति खड़ा हो गया। मैंने मन ही मन सोचा कि ये या तो फिर रूपये मांगेगा या फिर सुबह लिये रूपयों के संदर्भ में कोई कोई बहाना गढ़कर सुनाएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

लड़के ने जो कहा, उसे सुनकर मैं दंग रह गया। लड़का उसी दीन-हीन मुद्रा में मुझसे कह रहा था कि मैं उसे थोड़ी देर अंग्रेजी पढ़ा दूं। मैंने लगभग आधा घंटा उसकी लाई एक किताब में से उसे अंग्रेजी पढ़ाई। वास्तव में वह लड़का अंग्रेजी इसलिए सीखना चाहता था कि उस तरफ कई विदेशी पर्यटक भी आया करते थे और वे दर्शनीय स्थलों को देखने जाते समय अपने संग होटल के इन कर्मचारियों को ले जाते थे। विदेशी पर्यटक इन लोगों को बहुत-सा पैसा दे डालते थे। और इसी लालच में होटलों में काम करने वाले ऐसे लड़के अपने खाली समय में अंग्रेजी सीखा करते थे।

तो यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के शहर का वह छोटा-सा देहाती लड़का आधुनिकता बोध के प्रति इतना आकर्षित था। हिन्दी कोई हमारी चमड़ी का भाग नहीं है। अंग्रेजी कोई जहर का घूंट नहीं है। सनक या पागलपन कभी किसी भाषा के पक्ष या विपक्ष में होते भी नहीं हैं। यह तो केवल मन की त्ता की बात है। यदि कोई व्यवहार किसी मन को किसी अधिनायकत्व की जद में धकेलता है तो वह निन्दनीय ही है, चाहे वह पूजा-पाठ का कोई तरीका ही क्यों हो। इस तरह यदि कोई जरूरत हमें हमसे उखाड़ कर किसी और के परिवेश में स्थापित करती है तो वह जरूरत अभद्र ही नहीं, असहनीय भी है। इसकी इजाजत तो नहीं ही दी जानी चाहिए। और सामने वाले की आर्थिक विपन्नता का लाभ उठाने वाला तो बहेलिया ही है। और बहेलिये का कृत्य आखेट है।

मुझे कुछ वर्ष पहले का आगरा छावनी का एक किस्सा याद गया जिस पर मैं एक कहानीकाले जंगल की गुफा लिख चुका हूँ।मंथन में छपी इस कहानी में, हो सकता है मैंने जगह और लोगों के नाम बदल दिये हों। वहां एक रिक्शेवाले को एक विदेशी युवती को सैर करवाते समय उसके बैग से एक बेशकीमती कैमरानुमा दूरबीन चुराने का अवसर मिल गया था और एक दिन बैठे-बैठे वही कैमरा-दूरबीन उस युवक की आय का साधन बन गयी। वह युवक यमुना के किनारे बसी बस्ती में अपने मकान की छत से लोगों को नदी किनारे दृश्य का अवलोकन करवाता था और उनसे पैसे वसूलता था। उसका नसीब अच्छा था कि उसकी बस्ती के पिछवाडे़ का घाट जनाना घाट था। जहां आस-पास की औरतें स्नान के लिए रोजाना आती थीं।

तो कैमरा दूरबीन की भांति अंग्रेजी हमारे देश में खूब फल-फूल रही है। उसकी कीमत बढ़ती ही जा रही है, कैमरा काला, नजर काली, कमाई काली.....

कौन शिकायत करे, किससे करे..... और क्यों करे?

-बी 301 मंगलम जाग्रति रेजिडेंसी,

447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर

जयपुर. 302004 (राजस्थान)

मो. 9414028938