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बीते रे युग

रविवार का दिन था, शाम की चाय पर आमंत्रित कर लिया पड़ौस में रहने वाले अशोक जी ने। रोज़ तो दफ़्तर के चक्कर में साथ उठने - बैठने की फुरसत मिल नहीं पाती।आज बाज़ार से लौटते हुए टकरा गए तो न्यौता दे डाला। जाते जाते ये भी कहना न भूले कि भाभी को भी साथ में लाना, कहीं अकेले ही चले आयें ।
अच्छा हुआ, घर जाकर  जैसे ही श्रीमती जी को बताया, उनकी बांछे खिल गईं। इतवार का दिन, और शाम की रसोई से छुटकारा मिल जाए, इससे बढ़िया क्या? चाहें चाय पर ही बुलाया हो, पर चाय का मतलब केवल चाय तो नहीं होता, आदमी चार चीजें चाय के साथ परोसता ही है। और अब चार बजे का समय हो,तो कोई चार का चार ही नहीं पहुंच जाता।चार के पांच तो आराम से बजते ही हैं। ये तो शिष्टाचार की बात है। अब किसी के घर मेहमान बन के पांच बजे पहुंचो, तो दो - तीन घंटा बैठना बतियाना भी होगा ही। वरना ऐसे मेल - मिलाप का मतलब भी क्या ! और आदमी रात आठ बजे अपने घर लौटे तो आते ही चूल्हे-चक्की पे चढ़ने से रहा। तो सौ बातों की एक बात ये, कि शाम के खाने से उन्हें छुटकारा मिला। श्रीमती जी दोपहर से ही इस उधेड़बुन में लग गईं कि उन्हें साड़ी कौन सी पहन जानी है, बाल खुले रहें कि चोटी बने, चप्पल कि सैंडल। अब चाहे मामला पड़ोस का ही क्यों न हो, मेहमान-मेज़बान के तौर- तरीकों पे तो चलना ही होगा।
दोपहर तीन बजे से ही पड़ोस से गंधों का आना-जाना शुरू हो गया। कभी पकौड़े तले जाने की खटपट तो कभी हलवे के लिए सूजी भूनने की गंध। इधर से भी परफ्यूम और पाउडर की महक। आखिर हवा तो बहती ही रहती है, उसका काम ही है इधर की उधर पहुंचाए। उसे इस बात से भला क्या मतलब, कि बात तो अशोक जी और अभिषेक जी के बीच हुई थी, ये उनकी बीवियों के बीच सुगंधों का बैडमिंटन क्यों शुरू हो गया? जिसने बुलाया, और जिसे बुलाया, वो तो अपने - अपने घर में टीवी के सामने जमे बैठे थे।
शाम की आवनी हुई भी न थी कि अभिषेक जी घर पर ताला लगा रहे थे। दोनों ही घरों में मियां बीवी रहते थे, बच्चे दोनों के बाहर। आखिर मेहमान बन कर अभिषेक जी सपत्नीक पहुंच गए अशोक जी के घर।
अच्छी खासी दावत की तैयारी कर ली थी अशोक जी की पत्नी ने।
औपचारिक दुआ सलाम के बाद शुरू हुआ हालचाल पूछने का सिलसिला, और बच्चों के समाचार लेने देने की होड़।
श्रीमती अशोक को चाय की तैयारी के लिए रसोई में जाते देख, बातचीत के विषय बदल गए। दोनों पुरुष सरकार, दफ़्तर, टैक्स और पी एफ जैसे विषयों पर उतर आए। अब श्रीमती अभिषेक के वहां बैठे रहने का कोई औचित्य न था। इधर-उधर देखती हुई वे चंद पलों में ही रसोई घर में चली आईं। सोचा, चलो थोड़ा बहुत काम में ही हाथ बंटाया जाए।
जब वे रसोई में घुसीं तो श्रीमती अशोक एक प्लेट में आलू बुखारे निकाल रही थीं। उनकी पीठ उस ओर थी।
लेकिन ये क्या? उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि श्रीमती अशोक एक - एक फल को मुंह से चख - चख कर प्लेट में रख रही थीं।
उन्होंने मन में सोचा, अजीब औरत है, मेहमानों को मुंह से जूठा कर कर के खाना परोस रही है?
श्रीमती अशोक उन्हें देखते ही जैसे सकते में अा गईं। दोनों मिल कर जैसे तैसे नाश्ता बाहर टेबल पर लेकर आईं। श्रीमती अभिषेक से तो एक टुकड़ा भी ढंग से नहीं खाया गया। फल तो उन्होंने छुए तक नहीं !
अब उन्हें घर लौटने की जल्दी थी। आखिर पतिदेव को पड़ोसन की कारस्तानी जो सुनानी थी।
घर लौट कर पति को सारा किस्सा सुनाया तो उन्हें जैसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा, चुपचाप रहे। श्रीमती जी को ये नागवार गुजरा। बार-बार किस्सा दोहरा कर पति को उकसाती रहीं कि उस बेलक्षणी औरत पर कुछ तो बोलें।
आखिर उनके पति ने मुंह खोला- धीरे से बुदबुदाए, अच्छा हुआ जो रामजी शबरी के घर जाते समय सीता को साथ में नहीं ले गए... वरना न जाने रामायण आज क्या होती?
श्रीमती जी सन्न रह गईं, उन्हें दाल में कुछ काला नज़र आने लगा, जबकि आज रसोई में न दाल बननी थी और न चावल ! -प्रबोध कुमार गोविल

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