व्यंग्य
दाल, रोटी और प्रभु
- सुरजीत सिंह
दाल-रोटी और प्रभु का संबंध उतना ही पुराना है, जितना दाल-रोटी और मनुष्य का है। जहां प्रभु, वहां दाल-रोटी और जहां दाल-रोटी, वहां प्रभु। फिर यह मुहावरा ही चल निकला कि दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। प्रभु भक्तों की ऐसी भक्ति देख निहाल हो जाते। लेकिन बहुत दिन हुए पृथ्वी से यह मुहावरा प्रभु के कानों में नहीं पड़ा। मन में संदेह हुआ, कहीं सरकार ने भक्तों को इत्ता आत्मनिर्भर तो नहीं बना दिया कि वे प्रभु के गुण गाना ही भूल गए। जरूर बहुप्रचारित-बहुप्रतीक्षित अच्छे दिनों की आमद के मद में प्रभु को बिसरा बैठे हैं। आदमी की फितरत बदलने में कित्ती सी देर लगती है भला! वैसे भी प्रभु तो संकट में ही याद आते हैं। या फिर लोगों को फास्टफूड का ऐसा चस्का लग गया कि दाल-रोटी से नाता ही तोड़ बैठे हों! दाल-रोटी के बिना प्रभु कायको याद आएंगे। उन्हें अपना अस्तित्व डगमगाता नजर आया। यह सोचकर उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई। वे 'सीआईडीÓ के एसीपी प्रद्यूमन सिंह की तरह पेशानी पर बल लाते हुए बुदबुदाए, कुछ तो गड़बड़ है...चलकर देखना चाहिए। इस बहाने पृथ्वी का भी एक राउंड हो जाएगा।
हो सकता है उन्हें मिल रहा ओपिनियन चैनलों के चुनावी सर्वे जैसा हो या कोई जानबूझकर उन्हें गुमराह कर रहा हो! आशंकित प्रभु ने वस्तुस्थिति जानने के उद्देश्य से भेष बदला और निकल पड़े। सब जगह घूमे-घामे। इधर-उधर की खाक छानी। चार दिन में ही सच्चाई जान होश-फाख्ता हो गए। बाजार में दालों को सोने की तरह छुपाकर रखा गया था। लोग भाव पूछते और मन मसोसकर निकल जाते। किसी घर से कोई भूला-भटका व्यक्ति भी प्रभु के गुण गाते नहीं दिखा। दाल-रोटी का जिक्र सुनने के लिए प्रभु के कान तरस गए। मुहावरे में कहें तो प्रभु को आटे-दाल का भाव मालूम हो गया।
हर तरफ बीफ-बीफ था। वे एक जगह खड़े सोच ही रहे थे कि उन्होंने देखा एक गरीब झोला लिए डरा-सहमा सा बाजार की तरफ जा रहा था। उसकी हालत उस बकरे जैसी थी, जिसे जबरन घसीटकर कसाई खाने की ओर ले जाया जा रहा हो! जोर-जोर से प्रभु स्मरण कर रहा था, मदद करना प्रभु...तू तो सबको संबल प्रदान करता है, इतनी शक्ति देना कि बाजार में ठीक से खड़ा रह भावों का सामना कर सकूं। अपने नाम का उच्चारण सुन प्रभु निहाल हो गए और उसके पीछे लग लिए। लेकिन नजदीक पहुंच जब उसकी मर्मान्तक अपील सुनी तो द्रवित हो उठे। उन्होंने ऐसे परम भक्त की मदद करने की ठानी। अचानक प्रकट होकर बोले- तेरे स्मरण से हम प्रसन्न हुए भक्त, मांग, क्या मांगता है?
भक्त दाल-रोटी के जुगाड़ की धुन में था, उसी रौ में बोल पड़ा- अगर तुम प्रभु हो, तो एक बोरी दाल और प्याज का जुगाड़ जमा दो...सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। जिन्दगी भर दाल-रोटी मजे से चलती रहे।
प्रभु आवाज में नरमाई लाते हुए बोले, कुछ और मांग भक्त, बोरी का जुगाड़ जमाना दुष्कर कार्य है, फिर फूड डिमार्टमेंट वालों का भी डर है। धर लेंगे कि यह आदमी पृथ्वी पर दाल स्मगल कर रहा है। मेरे पास राशन की दुकान का लाइसेंस भी नहीं है। सीधा अन्दर जाऊंगा।
आदमी ने प्रभु पर ऊपर से नीचे तक उपेक्षित सी दृष्टि डाली, बोला कुछ नहीं।
कुछ और मांग ले, अब तक भक्त सोना-चादीं मांगते रहे हैं, तू भी सोना मांग ले, चांदी ले ले, बंगला ले ले?
नहीं प्रभु, सोने-चांदी से पेट नहीं भरता, उल्टे चोरी-डकैती का खतरा रहता है। पहले ही जीना दूभर है, सोना लेकर उसकी हिफाजत के चक्कर में सचमुच मर जाऊंगा या मार दिया जाऊंगा।
तो, किसी चढ़ती कम्पनी के शेयर मांग ले? प्रभु ने विकल्प दिया।
चढऩे के मामले में आजकल शीला की जवानी ही चढ़ती है, बाकी जवानियां दाल-रोटी के चक्कर में घिस रही हैं। शेयरों का भरोसा नहीं कब नेता के कैरेक्टर की तरह गिर जाएं। गिरे हुए शेयर कई बार आदमी को ही उठा देते हैं।
चल आजकल के हिसाब से किसी पार्टी का टिकट मांग ले। एमएलए, एमपी बन जाएगा, तो मजे से कट जाएगी।
मुझे शैतान समझा है क्या, जो टिकट मांगूगा। उसने आग्नेय नेत्रों से प्रभु की ओर देखा।
प्रभु उसके तेवर देख सहम गए। भक्त पूरा अडिय़ल किस्म का था। शायद हालात ने उसे ऐसा रूखा और शुष्क बना दिया था।
प्रभु ने हौले से कहा, अरे तो कुछ और मांग ले, बहुत कुछ है मांगने को, दाल की जिद पर ही क्यूं अड़ा है मेरे भाई?
तो चलिए, एक बोरी आलू, टमाटर, प्याज का जुगाड़ जमा दो। उसने फाइनली कह दिया।
प्रभु ने हिसाब लगाया तो पसीने छूट गया। यह उनके बजट से बाहर का मामला था। धीमे से बोले, क्यों मजाक करते हो भक्त, किसी और चीज से काम नहीं चलेगा तेरा?
मजाक की पहले शुरुआत किसने की थी! भक्त तपाक से बोला। मैं पहले ही समझा कि कोई बहुरूपिया है। प्रभु होता तो अवश्य दाल का जुगाड़ जमा देता।
प्रभु उसकी चालाकी समझ गए, मन ही मन बुदबुदाए...अच्छा बेटा उकसा रहा है, मेरा नाम भी प्रभु है।
चलो, बोरी न सही आज की दाल-रोटी का ही बंदोबस्त कर दो, दोनों मिलकर मजे से उड़ाएंगे।
यार, मैं खुद चार दिनों से दाल-रोटी को तरस गया हूं, कहीं किसी घर से आवाज नहीं आई।
तो ठीक है, हम दोनों प्रभु स्मरण करते हुए बाजार चलें और मिलकर भावों का सामना करते हैं। कहते हैं न एक से भले दो।
...बाजार का नाम सुनना था कि प्रभु अन्तध्र्यान हो गए।
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- सुरजीत सिंह,
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महेश नगर, जयपुर -302015
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