पुरस्कार लौटाने की कला Surjeet Singh द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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पुरस्कार लौटाने की कला

व्यंग्य

पुरस्कार लौटाने की कला

- सुरजीत सिंह

आजकल जिस तरह पुरस्कार लौटाने की घोषणाएं हो रही हैं, उससे तो अब कोई उबासी के लिए भी मुंह खोलता है, तो चैनलों के माइक इस उम्मीद में खुले मुंह में घुसड़ जाते हैं कि बंदा अभी पुरस्कार लौटाने की घोषणा करेगा और वे न्यूज ब्रेक करने में कहीं पीछे न रह जाएं। हां, चैनलों पर अब हर खबर ब्रेकिंग न्यूज है, इसके अलावा कोई खबर नहीं है। टीआरपी की मारामारी है। ऐसी आपाधापी में, जिनका इरादा न हो, वे तक पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर डालें। माहौल ऐसा ही बन गया है कि इस समय जितने भी मुंह खुले हुए हैं, वे या तो पुरस्कार लौटाने की घोषणा के लिए खुले हैं या फिर उन्हें दोयम दर्जे का लेखक साबित करने के लिए गालियों के मुंह खुले हैं। इसके अलावा जो शेष मुंह हैं, वे महज दर्शक की तरह मुंह बाए हैं और वे हमेशा इसी अवस्था में रहते हैं।

इस समय किसी की गंभीर मुद्रा देखकर ही अंदाजा हो जाता है कि बंदा जरूर लेखक टाइप आदमी है। मुंह खुलते ही अंदाजा यकीन में बदल जाता है। फिर यह अहसास होते देर नहीं लगती कि अभी यह पुरस्कार लौटाने की घोषणा करेगा। धीर-गंभीर मुद्रा बनाए तेजी से किसी ओर जाता आदमी शक्ल से पुरस्कार लौटानोन्मुखी नजर आता है। वह तेजी से इसलिए जा रहा है, ताकि पुरस्कार लौटाने में देर न हो जाए। जहां पुरस्कार पाना राजनीति होता है, वहां लौटाना सर्वोच्च कला हो जाती है। कुछ लोग इस कला में गजब के महारथी हैं। कुछ कैमरों के आगे लौटाकर लोट-पोट हो रहे हैं, तो कुछ राजनीति के घाट पर खड़े होकर ऐलान कर रहे हैं। कुछ अखबार की सुर्खियों में लौटा रहे हैं, तो कुछ अभी लौटाने का शास्त्रीय अध्ययन कर रहे हैं, ताकि लौटाना कला के साथ-साथ हासिल करने का सबब बन जाए। लौटाकर कुछ हासिल करने की इस अदा पर तो देवता भी मुग्ध होकर पुष्पवर्षा करने को मजबूर हो जाएंगे।

लौटाने वालों की फेहरिस्त शेयर सूचकांक की तरह बढ़ती जा रही है। इस समय पतीले में दाल और छौंक में प्याज के न होने का इतना मलाल नहीं है, जितना इस समय अलमारी में पुरस्कार के न होने का है। अलमारी में पुरस्कार का न होना ऐसा है, जैसे देह में आत्मा का न होना। हालांकि आत्मा और पुरस्कार का छत्तीस का आंकड़ा है। जहां आत्मा, वहां पुरस्कार नहीं और जहां पुरस्कार, वहां आत्मा एक पल नहीं ठहर सकती। कोई पुरस्कार तभी ग्राह्य होता है, जब आत्मा देह बदर हो जाती है। इस समय दूर खड़ी वही आत्मा लगातार उन्हें इशारों में झकझोर रही है, उकसा रही है कि अभी तक निर्लज्ज की तरह यहीं बैठे हो, जबकि बाहर कितने ही पुरस्कार लौटाकर सुर्खियों की लहरों में छपाक छई कर रहे हैं! वे एकाएक आक्रोशित होते हैं, मगर मन मसोसकर रह जाते हैं। शून्य निगाहों से उस दीवार को तकते हैं, जहां प्रशस्ति पत्र टंगा होना चाहिए था। उस अलमारी की ओर देखते हैं, जिसमें इस समय एक पुरस्कार होना कितना जरूरी था। उसमें ताम्र पत्र, शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र के न होने से वह अलमारी ही नहीं लगती है। फिर भी दिल को तसल्ली देने के लिए अलमारी तक तक जाते हैं, पर हाय! उसमें एक अदद पुरस्कार न पाकर विषाद से भर जाते हैं। लौटाने की मंशा से जाते हैं, बैरंग लौटकर आ जाते हैं। आत्मा विद्रोह पर उतारू है, मगर वे कुर्सी से नीचे नहीं उतर रहे हैं। घर की दहलीज से बाहर रखते हुए पैर कांप रहे हैं।

वे उतरें और कोई पूछ बैठे, लौटा आए आप! तो क्या जवाब दें। ना कह दें, तो कैसे लेखक हो, जो अवार्ड को दबोचकर बैठे हो और हां, कह दें तो इससे पहले क्यों नहीं लौटाया जनाब! इस सवाल पर तो लेने के देने पड़ जाएं। यह भी मुमकिन है कि वे बाहर कदम रखें और जो भीड़ घर के आगे से लौटाने के मकसद से जा रही है, वह जबरन साथ ही घसीट ले जाए। वहां जाकर पता चले कि इसके पास तो लौटाने को कुछ है ही नहीं, ऊपर से कोई ताना कस दे कि इस नंगे को क्यों घसीट लाए, तो अच्छी खासी फजीहत झेलनी पड़ जाए!

इतनी निराशा तो उन्हें तब भी नहीं हुई थी, जब तमाम जोड़-तोड़ के बाद भी पुरस्कार उनका नहीं हुआ था। आज रह-रहकर विचार आ रहे हैं, काश उनके पास भी एक होता पुरस्कार, तो काहे झेलते इतना तिरस्कार! हालांकि इस लौटाने की वेला में वे अकेले नहीं हैं। बहुतेरे हैं, जो आज पुरस्कार को पाने से ज्यादा लौटाने की मंशा से याद कर रहे हैं। जो आत्माएं दाल, प्याज, तेल को लेकर कभी नहीं कलपी, आज बड़ी विकल हैं। जार-जार रो रही हैं। आज शेल्फ में सजी सारी किताबें व्यर्थ नजर आ रही हैं। सारा लिखा बेमकसद जान पड़ रहा है। कैसा समय है, लौटाना लिखने से बड़ा हो गया है। जिस तेजी से पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं, उससे खुद पुरस्कार सकते में हैं। यदि भविष्य में किसी ने पुरस्कार गलियों की तरफ आना ही छोड़ दिया, तो साहित्यिक मंडियों का क्या होगा! उन मठों का क्या होगा, जिनका मकसद ही पुरस्कारों की राजनीति है। उन तनी हुई छतरियों का क्या होगा, जो पुरस्कार इच्छुकों को आश्रय देने का शर्तिया नीम-हकीकी दावा करती हैं। साहित्य अकादमियों के सामने भी भविष्य का संकट है। आगे किसी को पुरस्कार देते समय यह मंशा भी भांपनी होगी कि बंदा कहीं लौटाने के मकसद से तो नहीं ले रहा! उसकी पृष्ठभूमि जानना जरूरी हो जाएगा कि अतीत में आत्मा के इशारे पर लौटाने का इतिहास कितना रहा है! मुमकिन है अकादमी पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित करते समय नियम और शर्तें भी लागू करनी पड़ें। शर्तों में लिखा हो-पुरस्कार के लिए वही लोग आवेदन करें, जिनकी आत्मा फुल काबू में रहती हो। कुंभकरण की तरह अधिकतर शांत लेटी रहती हो। जगाने पर भी जिसकी तंद्रा नहीं टूटती हो। यदि उपरोक्त शर्तें पूरी करने में सक्षम हैं, तो शपथ पत्र के साथ तुरंत आवेदन करें!

या इस पुरस्कार के लिए तलाश है, साहित्य से जुड़े ऐसे बंदों की, जो निस्संकोच पुरस्कार ग्रहण कर सकें और किसी भी सूरत में लौटा ना सकें। एक बार जिन्हें पुरस्कार दे दिया गया, फिर दिया गया पुरस्कार वापस नहीं होगा अर्थात् अकादमी किसी भी रूप में जिम्मेदार नहीं होगी।

अब इसमें कोई हैरत नहीं! अजी पुरस्कार हैं, पुरस्कार तो होते ही ऐसे हैं! मिलें तो राजनीति और लौटें तो राजनीति!

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- सुरजीत सिंह,

36, रूप नगर प्रथम, हरियाणा मैरिज लॉन के पीछे,

महेश नगर, जयपुर -302015

(मो. 09680409246, मेल आईडी-surjeet.sur@gmail.com