व्यंग्य
दाल-बाटी-चूरमा, रजाई वाला सूरमा
- सुरजीत सिंह
मौसम ने चारों ओर अपनी ठंड से भरी मिसाइलें तैनात कर दी हैं। आक्रमण से तन-मन को भेदने की तैयारी है। जर्रे-जर्रे ने ठंड को फैलाने की, मुझे गलाने की साजिश की है। मैं निहत्था, घबराकर बंकर में घुस जाना चाहता हूं। इस समय रजाई से बेहतरीन, सुरक्षित, मजबूत बंकर कोई नहीं। मुझे एक अदद रजाई चाहिए! इस समय सब चीजें भुलाकर मैं एक अदद रजाई का तलबगार हूं। सारी कायनात एक तरफ, रजाई की करामात एक तरफ। सारी सक्रियता को ठंड लगी पड़ी है। दिमाग दही सा जम रहा है। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है। छातियां बूझे चूल्हों की तरह ठंडी पडऩे लगी हैं, जिन्हें सुलगाए रखने के लिए 'आग' चाहिए। कहीं से बीड़ी जलाऊ आह्वान भी नहीं कि 'जिगरवा में बड़ी आग' है। दांत गिटार। मुंह इंजन। भाप का उत्सर्जन। नाक सदानीरा। हड्डियों में हलचल नहीं। खून का खुद को खून बनाए रखना इस समय सबसे बड़ी चुनौती होता है। उसे ऑक्सीजन से ज्यादा गर्माहट की सप्लाई चाहिए। ऐसे में रजाई का आविष्कार बड़ी क्रांतिकारी घटना लगता है।
ऐसे माहौल में जिसके पास एक अदद रजाई हो और बंदा उसमें घुसा पड़ा हो, दुनिया में उससे बड़ा सूरमा कौन होगा! मुझे तो ऐसे सूरमा के लिए नारा भी सूझ रहा है- दाल, बाटी, चूरमा-रजाई वाला सूरमा। सूरमा ही होगा, क्योंकि रजाई में घुसा हुआ व्यक्ति किस्मत का धनी होता है। जिसे गर्माहट नसीब हो जाए, वह किसी का मोहताज नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी की नहीं सुनता। अपने आप की भी नहीं। जिनके पास रजाई नहीं, वे सबकी सुनते हैं। सुनने को विवश हैं, अभिशप्त हैं। उन्हें हर कोई सुनाता है, वे सुनते हैं। कांपते बदन में इतनी भी हरकत नहीं होती कि वे खुद को सुनने से मुक्त करने की चेष्टा कर सकें।
उनके लिए यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग क्यों जेड सुरक्षा के लिए हाय-तौबा मचाते हैं। इस समय जिसे रजाई मिल जाए, उसे और कौनसी सुरक्षा चाहिए। उनकी नजर में ए से जेड तक हर किस्म की सिक्योरिटी पर रजाई वाली सुरक्षा भारी है। सरकार चाहे तो रजाई विहीनों को यह जेडनुमा सिक्योरिटी देने का ऐलान कर संवेदनशील होने का नमूना पेश कर सकती है। इसे अच्छे दिनों की डिलीवरी भी करार दिया जा सकता है। बिना रजाई के सारी बहादुरी बर्फ की तरह जमती है, जरा से ताप से रूई के फाहों की तरह उड़ जाती है। इसलिए लोगों को इस समय सब कुछ मुल्तवी कर रजाई पर फोकस करना चाहिए। सस्ताई का ध्यान छोड़ पुरजोर तरीके से रजाई की मांग करनी चाहिए। जरूरत पड़े तो एक 'रजाई संघ' भी बनाया जा सकता है। जिसका काम रजाई विहीन लोगों को चिन्हित करना, उनकी मांगों को उचित मंचों पर उठाना और उन्हें रजाई सम्पन्न बनाना हो सकता है। हालांकि अंदेशा यह भी है कि ऐसे संघ को रजाइयां प्राप्त होते ही वे उसमें घुस जाएंगे और गर्माहट हासिल होते ही अपनी मांगों की धार खो देंगे। गर्माहट भरे चंद दिन ठंड से मुक्ति के आह्वान को पिघला देंगे। फिर धीरे-धीरे नैतिक बल भी जाता रहेगा। वैसे सोचने वाली बात यह है कि जिनको अभी तक गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकाला जा सका, उन्हें रजाई के भीतर धकेलना सरकार की प्राथमिकता क्यों नहीं होना चाहिए! इस कार्य को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की तरह सम्पन्न किया जा सकता है। कंपकंपाती ठंड में ठिठुरते आदमी को बाहर खुले में निकाला जाए, उसे ठंड में कांपने दिया जाए, ताकि सरकार की रजाई उपलब्ध कराने की महान उपयोगिता साबित हो सके, फिर कैमरों के सामने उन्हें रजाई में धकेल दिया जाए। फिर, अब तक लंगोटी को संभाले रखने की जुगत में जूझता आदमी भी जरा सा मुंह बाहर निकालकर कह सकेगा- मेरे पास भी रजाई है!
यदि जीवन कविता की एक किताब हो, तो सारी कविताई एक तरफ, इस समय उसका शीर्षक यही होगा- मुझे रजाई चाहिए! जिनके पास रजाई नहीं, उनको 'यह दुनिया गर मिल भी जाए तो क्या...!!! '
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- सुरजीत सिंह,
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