अखबार Surjeet Singh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अखबार

- सुरजीत सिंह

आज मैंने सोच लिया था कि या तो उनकी देर से आने की आदत बदल दूंगा या फिर उन्हें ही। वे रोज देर से अखबार लाते हैं, इससे एक घंटे का इंतजार मेरी पूरी सुबह खराब कर देता है। इस छोटे से कस्बे में मेरी पोस्टिंग पिछले साल जुलाई में हुई थी। सुविधाओं से महरूम कस्बा, जिसमें कस्बाई योग्यता तो कुछ खास नहीं, किन्तु दुकानों की भरमार, पतली गलियां, टकराकर चलते लोग, गाडिय़ों की चिल्ल-पों, जाम जैसी स्थिति, उफनती नालियां, उनमें फंसी पड़ी प्लास्टिक की थैलियां, मुंह मारते सूअर और खाली पड़े प्लॉटों में दिन दहाड़े अधखुली अवस्था में मल-मूत्र विसर्जन करते लोगों को देखकर कोई भी आसानी से इसे कस्बा घोषित कर सकता है। स्कूल, कॉलेज, सार्वजनिक स्थलों पर पीक की चित्रकारी, मूत्र की मार से जर्जर दीवारें, जिन पर 'यहां थूकना मना है', 'मूत्र त्याग वर्जित है', 'यहां कचरा न डालें', 'धात एवं नामर्दी का शर्तिया इलाज-शीघ्रपतन के रोगी बुधवार एवं शुक्रवार को मिलें' जैसे इश्तिहार दो-चार जगह दिख जाते हैं। पिछले महीने ही गांव से राजधानी की ओर जाने वाली सडक़ पर नई कॉलोनी का श्रीगणेश हुआ है। यानी देश के कुल अनाज उत्पादन में एक और गिरावट! खेतों का टुकड़ा-टुकड़ा होने से ही किसी गांव के कस्बा और कस्बे के शहर बनने की प्रक्रिया में तेजी आती है।

इस कस्बे में साहित्यिक तथा साहित्येत्तर गतिविधियों के भी कोई चिन्ह नहीं मिलते हैं। सारी गतिविधियों का संबंध रोजमर्रा की जिंदगी से है। जीवन संघर्ष सारी गतिविधियों पर हावी है। लोगों की ऐसी कोई रुचि सामने नहीं आती, जो कस्बे की कोई खास पहचान स्थापित करे। यहां तक कि देश-दुनिया की खबरें जानने में भी लोगों की कोई उत्सुकता नहीं। गुलजार या तो वक्त-बेवक्त मोहल्लों में फैले दस-बारह मंदिर रहते हैं या फिर ताश के अड्डे, जिनमें आधी रात तक हलचल रहती है। ऐसे में इसे कस्बेनुमा गांव और गांवनुमा कस्बा कह देने में कोई हर्ज नहीं। यह गांव और कस्बे का वह संधिकाल भी है, जिसमें एक गांव कस्बे की काया ग्रहण करने की तैयारी करता है।

ऐसी तंग और बंद जगह एक अखबार ही है, जो आपके सामने पूरी दुनिया खोलता है। यदि वह भी देर से आए, तो झुंझलाहट होना स्वाभाविक है। फिर दस साल जिस महानगरीय जीवन से गुजरकर यहां आया हूं, वहां अखबार दिन की विधिवत शुरुआत होने के लिए मुर्गे की बांग और मंदिर की घंटियों से भी ज्यादा जरूरी चीज है।

एक बार अखबार से गुजर नहीं जाऊं, लगता ही नहीं कि दिन शुरू हो चुका है। जैसे भोर धरने पर बैठ गई है! इसी गर्ज से उन्हें कई दफा समय पर आने के लिए कहा, किन्तु उन्होंने सिवाय एक फीकी सी हंसी के कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हां, एकाध बार यह जरूर कहने की कोशिश की कि पीछे से गाड़ी ही लेट आती है, उन्हें कई बार कह भी चुके हैं, किन्तु...।

यह 'किन्तु' उनका आखिरी वाघा बॉर्डर था, जिससे आगे वे कभी नहीं बढ़े। बुजुर्ग थे, लिहाजा इससे ज्यादा कभी टोक भी नहीं पाया। किन्तु अब तो रोज ही मेरी सुबह खराब होने लगी। वे क्या जानें, बिना अखबार चाय जायका नहीं देती, पूरी तरह फ्रेश नहीं हो पाता, सुबह सुबह जैसी फीलिंग्स नहीं देती, यहां तक कि कहीं घूम आने का मन भी नहीं करता। अखबार के पन्नों से गुजरने के बाद ही दिन लगता है कि आज का दिन शुरू हो चुका है।

दिन-प्रतिदिन इंतजार वाली सुबहें बोझिल होने लगीं। फिर तो ऐसा भी होने लगा कि उन्हें देखते ही मेरे चेहरे के भाव परिवर्तित होने लगते। वे शायद इसे ताड़ गए थे, इसलिए अखबार देते समय सहमे से होते।

आज रात भर पानी गिरा। सुबह भी झड़ी लगी हुई थी। खूंटियों पर टंगे कपड़े तक आद्र्र थे। मैं बरामदे में बैठकर चाय की चुस्कियां लेने लगा। अभी तक दूध वाला भी नहीं आया था। गुस्सा तो आया, लेकिन रात को रखे गए दूध से चाय बन गई, सो वह कोपभाजन का शिकार होने से बच गया। लेकिन चाय का कप हाथ में आते ही अखबार की तलब जाग उठी, जो थोड़ी देर में ही किसी नशे की लत की तरह बेचैन करने लगी।

आठ बजने को आये। बेचैनी हद से और पानी आसमान से गुजर चुका था। फिर अचानक देखा, वे किसी तरह बरसाती लपेटे, अधभीगे, अखबारों को भीगने से बचाने के लिए बगल में दाबे हुए दरवाजे पर नमूदार हुए। उन्होंने दरवाजे से आवाज लगाई। मैं दौडक़र गया, कहीं अखबार भीग न जाएं। उनके हाथ से अखबार लेते समय मन किया, कुछ सुनाऊं, लेकिन न जाने क्यों चुप रह गया। शायद उनका अधभीगा बदन, अखबारों को बचाने की जद्दोजहद ने मुमकिन है कुछ कहने से बचा लिया हो। मेरे मन की खिन्नता को चेहरे पर भांप बिना टोके ही सफाई देने लगे कि आज गाड़ी बड़ी लेट आई...कह रहे थे राजधानी में बहुत पानी बरसा है, गाडिय़ां मुश्किल से निकल पाई हैं। वे आगे कुछ कहते, इससे पूर्व ही में अखबार लेकर तेजी से पलट गया। आज फिर उन्हें कुछ कहते-कहते रुक गया। उनके प्रति भीतर की खीज अखबार में दुर्घटना, मर्डर, रेप, जालसाजी, नेताओं के विवादित बयानों की खबरों के सैलाब में तिरोहित हो गई। मूड में अपराध की खबरों की कड़वाहट घुल गई।

इसके बाद बमुश्किल दो-चार रोज ठीक समय पर अखबार आ पाया होगा। इस बीच मैंने दूसरा हॉकर ढूंढऩे की कोशिश की, लेकिन लोगों से मालूम हुआ कि कस्बे में यही इकलौते हॉकर हैं। इस बीच मैंने यह भी महसूस किया कि लोगों को अखबार की इस लेटलतीफी का जरा भी मलाल नहीं था। न उन्हें खबरों से रूबरू होने की कोई व्यग्रता थी। लगता था कस्बा खबरों से और खबरें कस्बे से ऊब चुके थे। बस, अखबार बाकी रूटीन की चीजों की तरह ही उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में जबरन घुसा हुआ था...जिसे थोड़े से दृष्टिपात के बाद बासी हो जाना पड़ता था। इसलिए वह अलसुबह आए या फिर दिन चढ़े, उन पर तनिक भी असर नहीं पड़ता था।

अब कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। सोचा न था, अखबार इस कस्बे में मेरे लिए इस कदर सिरदर्द बन जाएगा। महानगर की याद आती थी, जब तडक़े ही अखबार पंख कटे परिन्दे की तरह बालकनी में आ गिरता था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उठने से पहले अखबार नहीं मिला हो। आंख मलते हुए सीधे बालकनी पहुंचता, फिर खबरों पर ही आंख खुलती थी...या कहिए खबरें ही आंखें खोलती थीं।

एक दिन जब वे पैसे लेने आए, तो मैंने उन्हें कुरेदते हुए किसी भी तरह अखबार जल्दी देने की अनुनय-विनय की। अखबार क्यों जरूरी है इस पर थोड़ी दार्शनिक सी व्याख्या पेश कर उन्हें प्रभावित करने की भरपूर कोशिश की। वे कुछ देर चुप रहे। मुझे उम्मीद जगी कि शायद वे कहेंगे कि कल से आपको ठीक समय पर अखबार मिल जाएगा। उन्होंने बताया कि उनका घर यहां से करीबन डेढ़ किलोमीटर दूर कस्बे के मुख्य बस स्टैंड पर पड़ता है। गाड़ी अखबार वहीं डालकर जाती है। वहीं से अखबार बांटना शुरू करते-करते मुख्य बाजार की दुकानें, आस-पास के घरों में देते हुए सबसे आखिर में कस्बे के इस आखिरी छोर तक पहुंचते हैं।

मैंने हल पेश किया...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहले इस छोर से अखबार बांटते हुए मुख्य स्टैंड की ओर चले जाओ!

वे मेरे चेहरे की ओर देखने लगे, मुझे नहीं मालूम वे क्या सोच रहे थे, लेकिन उन्होंने कातर सी आवाज में इतना ही कहा कि अखबारों का बंडल भारी होता है, यहां तक लाना मुश्किल पड़ता है...जब यहां तक पहुंचता हूं तब बोझ हल्का होता है।

उफ्...मैं उनकी मजबूरी समझ तो गया, लेकिन मुझे मेरी विवशता ज्यादा बड़ी लग रही थी, इसलिए समझते हुए भी उनसे सहमत नहीं हुआ। वे चले गए, लेकिन मन के किसी कोने में यह खयाल दबा ही रह गया कि काश, इधर से अखबार बंटना शुरू हो जाए, तो एक-सवा घंटे पहले अखबार मिल सकता है।

इस दौरान मेरे व्यवहार में अजीब से परिवर्तन आने लगे। सुबह बच्चों के साथ ढंग से पेश नहीं आता। पत्नी कहती, यह तुम्हें सुबह-सुबह क्या हो जाता है। खिन्न से रहते हो...चाय भी बेमन से पीते हो...बच्चे स्कूल वैन से बाय बोलते हैं, तब भी तुम फीकी सी प्रतिक्रिया देते हो। मैं कैसे व्याख्या करता कि इस समय एक अखबार ने मेरी मुकम्मल मानसिकता को किस कदर घायल रखा है। नाना पाटेकर का एक फिल्म में बोला गया डायलॉग बार-बार मेरे जहन में कौंधता...एक मच्छर आदमी को हिंजड़ा बना देता है। इस समय कुछ ऐसी ही हालत एक अखबार ने मेरी कर रखी थी।

आज तो घड़ी का कांटा आठ को पार कर चुका था। स्कूली वैन बच्चों को कब का ले जा चुकी। दुनिया अपने काम में मशगूल हो गई। लेकिन अखबार ने अभी तक दस्तक नहीं दी। मैं बार-बार व्यग्रता से दरवाजे तक जाता, किन्तु वे आते नहीं दिखते। खीजता, कुढ़ता, झुंझलाता वापस लौट आता। गर्मी के दिन थे। सूरज चढ़ आया। धूप तीक्ष्ण हो उठी। साथ ही मेरा पारा भी। जब धैर्य जवाब दे चुका, तो मैं इरादा कर उनके घर की ओर निकल पड़ा।

छोटा सा कस्बा था, सो उनका मोहल्ला ढूंढऩे में न ज्यादा देर लगी और न कोई दिक्कत हुई। पतली गली में सिकुड़े से घर थे। गली के छोर पर लोगों का जमघट सा लगा था। इतने लोगों की मौजूदगी के बावजूद अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। अंदर गली में फैले हुए लोगों को देखकर यह अंदाज लगाना भी मुश्किल था कि इन लोगों को किस घर के सामने होना चाहिए और अभी किस घर के सामने होंगे!

किस नाम से पूछूं? मैंने उनका नाम याद करने की कोशिश की...फिर याद आया कभी उनका नाम तो जाना ही नहीं! बीड़ी फूंक रहे एक व्यक्ति से थोड़ा झिझकते हुए पूछा, वो अखबार वाले बुजुर्ग क्या यहीं रहते हैं?

उसने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर धुएं को एक तरफ गोले की तरह छोड़ते हुए बोला, बुजुर्ग रहते थे!

रहते थे...मतलब? मैंने अचकचाकर पूछा।

मतलब यह कि थोड़ी देर पहले नहीं रहे...रामरतन जी तडक़े साइकिल पर दूध देने निकले थे, लेकिन मुंह अंधेरे एक जीप टक्कर मार गई। रामरतन जी मौके पर ही भगवान को प्यारे हो गए...अभी खबर आई है कि पोस्टमार्टम के बाद बॉडी दोपहर तक ही आ पाएगी।

मुझे लगा कहीं ये किसी और व्यक्ति की बात तो नहीं कर रहे, सो मैंने व्यग्रता से कहा- मगर वे तो अखबार बांटते थे...दूध नहीं?

हां, अखबार भी बांटते थे! फिर मुझे एकदम ही अनभिज्ञ जान वे बताने लगे...वे अपने तीन बेटों के साथ रहते थे। बेटे एक ही घर में अलग-अलग दीवारों के बीच बंटे हुए थे...बस, उनके बीच कुछ साझा था तो सिर्फ रामरतन जी ही थे। पत्नी दो साल पहले गुजर चुकी थी। बड़े बेटे के लिए तडक़े दूध देने जाते थे, फिर मझले बेटे के लिए अखबार बांटते थे, इसके बाद सबसे छोटे बेटे के साथ दिन भर चाय की दुकान पर बैठते थे।

व्हाट! जैसे मुझे किसी ने आसमान से बिना पैराशूट के धक्का दे दिया हो। यह कैसे हो सकता है? मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला।

कल ही तो अखबार देकर गए थे, ठीक ही लग रहे थे। नहीं, नहीं...खबर ही झूठी होगी! लेकिन इतने लोगों की मौजदूगी और गमगीन माहौल सारा किस्सा बयां करने के लिए काफी था। लोग अलग-अलग समूहों में इसी घटनाक्रम पर बातें कर रहे थे। मैं किंकत्तव्र्यविमूढ़ सा न जाने कितनी देर भीड़ में खड़ा किन खयालों में डूबा रहा, कुछ याद नहीं।

फिर एकाएक लोगों के कोलाहल से तंद्रा टूटी। लोग उधर लपके, जिधर एम्बुलेंस आकर रुकी थी। दिल धडक़ उठा। लाख चेष्टा के बाद भी मेरी उधर देखने की हिम्मत नहीं हुई। खिन्न मन और भारी पांवों से लौट पड़ा। मन क्षोभ से भर गया था। मुझे आज अपने आप पर ही शर्म आ रही थी। उफ्...मैंने अभी तक उनका जान तक जानने की कोशिश नहीं की! मेरी नजर में वे अंत तक एक बुजुर्ग...एक अखबार वाला की हैसियत से ही रहे!

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सुरजीत सिंह,

36, रूप नगर प्रथम, हरियाणा मैरिज लॉन के पीछे,

महेश नगर, जयपुर -302015

(मो. 09680409246, मेल आईडी-surjeet.sur@gmail.com