मैं अपने कपडे को पैक कर रहा था | कल सुबह में ही ४ बजे के करीब मेरी ट्रैन के आने का टाइम था| मैं अपनी इंजीनियरिंग की पढाई के लिए दूसरे शहर को जाने वाला था | मुझे बहुत ख़ुशी थी की मैं कुछ दिनों बाद एक नए शहर में रहूँगा , नई चीजों को देखूंगा, नई जगहों पर जाऊंगा और नए लोगो से मिलूंगा | इंसान की फितरत ही ऐसी होती है की उसे नयी चीजें हमेशा से आकर्षित करती है | भले ही पुराने चीजों, रिश्तो, या जगहों का कोई मोल या तोड़ नहीं हो | और मैं भी एक इंसान हूँ और इस इंसानी फितरत का गुलाम भी |
मैं लगभग अपनी सारी चीजों को पैक कर चूका था | मैं अपने कमरे से बाहर निकलकर बाहर आया तो मेरी नजर माँ पर पड़ी | वो किचेन में अपने काम में मशरूफ थी | मैं उनके पास गया तो देखा उन्होंने अलग अलग तरह से पकवान बनाये हुए थे और कुछ और पकवान बनाने में लगी हुई थी | घर पर मेहमान आ रहे है क्या माँ ? ये सब देखते हुए मैंने पीछे से उनके कंधे पर अपने दोनों हाथ रखते हुए ये सवाल किया |
नहीं , ये सब तुम्हारे लिए है |
इतना | मैं आश्चर्यचकित था |
ज्यादा कहाँ है , अरे वंहा भी लोग मिलेंगे न तो कब खतम हो जायेगा पता भी नहीं चलेगा | ये बात कहते हुए माँ अपने काम में लगी रही |
माँ|
बोलो न |
पापा से बात किया क्या की मुझे लैपटॉप की जरुरत पड़ेगी स्टडी के लिए |
अभी नहीं | जल्द ही कर लुंगी | और तू खुद ही क्यों बात नहीं कर लेता अब तू छोटा बच्चा तो है नहीं की तेरी हर बात मैं उन तक पहुचाऊं , डाकिया वाला बना दिया है मुझे |
"फिर रहने दो अगर तुमको बात नहीं करनी है पापा से इस बारे में |"
बोला तो मैंने की शाम में बात करती हूँ पहले देखना पड़ेगा न उनका मूड़ कैसा है | वैसे भी तेरी एडमिशन के लिए हमें उधार लेना पड़ा है |
माँ की ये बात सुनने के बाद मेरे पास कहने को कुछ था नहीं तो मैं किचेन से बाहर आया और उसी वक़्त पापा घर के अंदर अपना कदम रखा और हम एक दूसरे के सामने थे | पापा को देखते ही मेरा दिमाग काम करना बंद क्र देता था | ऐसा नहीं था की वो हर बात पर डाँटते थे या कभी हमारी किसी गलती पर कभी हाथ उठाया हो | मगर बचपन से जबसे मैंने उन्हें देखा वो स्वभाव में बहुत ही गंभीर रहे | हमारे किसी गलती पर वो जो एक बार घूर के देख लेते थे वो हम लोगो की हालत ख़राब हो जाती थी | और यही वजह भी रही की बचपन से खुलकर मैं उनसे कुछ मांग नहीं पाया और मम्मी की हालत हम दोनों के बीच में डाकिये जैसी हो गयी थी |
सामान पैक कर लिया अपना | पापा ने पूछा |
मैंने कुछ कहा नहीं बस हाँ में अपना सर हिला दिया |
तैयार हो जाओ हमें एक घंटे में गावं जाना है मुझे थोड़ा काम है और तुम्हारे चाचा , चाची भी तुमने मिलना चाहते है तो तुम्हारी भी उनसे मुलाकात हो जाएगी | ये बात कहकर पापा बाथरूम की तरफ बढ़ गए|
मेरा जाने का मन तो बिलकुल भी नहीं था क्युकी मुझे पता था की अभी दोपहर में हम १२ बजे बस पकड़कर निकलेंगे २ बजे तक गावं पहुचंगे , कुछ देर मतलब कम से कम तीन से ४ घंटे वंहा रुकेंगे फिर वंहा से यंहा आएंगे , कुल मिलाके रात के ८ बज जाने है फिर यंहा भी सुबह में ४ बजे ट्रैन पकड़नी है तो पूरी रात भी नहीं सो पाउँगा |
मगर पापा को मना कर नहीं सकते थे इसलिए मन मारकर मैं तैयार हुआ और हम लोग ऑटो पकड़कर बस स्टैंड पहुंचे | वंहा पर अपने गावं जाने के लिए टिकट लिया और हम दोनों लोग बस में बैठ गए और बस गावं की तरफ चल पड़ी |
२ घंटे के बाद हम दोनों लोग गावं पर अपने घर पर थे | पापा, चाचा और चाची से मिले और गावं में किसी से मिलने निकल गए | मैंने भी चाचा और चाची को नमस्ते किया और और सीधे घर की छत पर चला गया | मैं छत पर खड़े होकर गावं का नजारा देखने लगा | थोड़ी देर बाद चाची मेरे पास चाय की कप लिए खड़ी हो गयी | मैंने उनसे चाय का कप लिया और चाय पीने लगा | फिर वो मुझसे मम्मी का हाल चाल पूछने लगी |
नीचे आप वाले कमरे में आपका एक बॉक्स पड़ा है उसमें आपके सामान पड़ा है देख लीजिये कुछ ले जाना हो तो लेते जाइये | चाची किस बॉक्स के बारे में बात कर रही थी मुझे ज्यादा कुछ याद नहीं आ रहा था मगर मेरे मन में उत्सुकता जागी तो मैंने वो बॉक्स देखने के लिए तैयार हो गया | और चाय ख़त्म करने के बाद मैं चाची के साथ नीचे वाले कमरे में आ गया | ये वो कमरा था जब हम गावं में रहते थे तो इसी कमरे में हम दोनों भाई सोते थे , पढ़ते थे, लड़ते थे , और झगड़ते थे | उस कमरे में प्रवेश करते ही पुराणी बातें जेहन में आने लगी | मैं उस लकड़ी के बॉक्स के पास पंहुचा| उस बॉक्स पर बहुत धूल जमा हुआ था जिसे मैंने पास में रखे हुए कपड़े से साफ किया और फिर उस बॉक्स को खोला | उसमें लूडो, चेस , और कुछ फटी हुई गेंदे और मेरे कुछ कॉपी थे जिनपे मैंने हर होमवर्क पर वैरी गुड पाया हुआ था वो थी | बचपन में जब जब स्कूल में टीचर हमें वैरी गुड देते थे उस पल जो खुशी मिलती थी उस खुशी के पल की कोई व्याख्या नहीं कर सकता है |मैं सभी चीजों को देख रहा था और निकल कर बाहर कर रहा था और फिर मेरे हाथ में आई गुल्लक |
याद है ये गुल्लक ! चाची ने पूछा |
हाँ चाची | बचपन में सिक्के जुटा जुटा कर इसी में तो डाला करते थे | बचपन में दादी कहती थी की इसमें सिक्के डालोगे तो धीरे धीरे ये हमें नोट देंगे हम लोग भी उनकी बातों में आकर गुल्लक में सिक्के डालना शुरू किये थे की बाद में हमें नोट मिलेगा | पुराणी बातों को याद करते हुए हलकी मुस्कराहट से साथ मैंने ये बात कही और गुल्लक को मैंने फोड़ फिया | गुल्लक में सिक्को के साथ काफी सारी दस, बीस, की नोटें थी |मैं अचंभित था | क्युकी इस गुल्लक में मैंने कभी नोट डाले ही नहीं थे तो फिर इस गुल्लक में ये नोट आये कैसे |
सिक्के लगता है सच में बड़े होने लगे और नोट देने लगे | चाची ने मुस्कुराते हुए कहा |
मैंने चाची की तरफ गौर से देखा और उनकी मुस्कराहट बता रही थी की उनको ये मालूम था की इस गुल्लक में ये दस, बीस के नोट आये कँहा से थे।
आपको पता है ना की ये नोट गुल्लक में आये कँहा से है ?
चाची कुछ देर शांत रही फिर मेरे जोर देने पर उन्होंने हाँ में अपना सर हिलाया।
फिर जो उन्होंने बताया वो वाक्या मेरे यादों की झरोखों में कंही दब के रह गयी थी। जो कुछ इस तरह से थी।
जब मै छोटा था और हम गावं में रहते थे तो दादी कहा करती थी की गुल्लक में सिक्के रखने से धीरे धीरे उसमे से नोट बनने लगते है और उसके पीछे उनका अभिप्राय सिर्फ इतना था की हम बच्चो को बचत करने की आदत बचपन से ही पड़ जाये। मगर उस वक़्त ये बातें समझ नहीं आती थी बस इतनी सी बात दिमाग में बैठी थी की गुल्लक में सिक्के रखने से वो नोट देने लगेंगे और नोट की कीमत सिक्को से ज्यादा होती थी इसलिए मम्मी के जरिये पापा से कहवाकर गुल्लक मंगवाया। धीरे-धीरे मैंने उसमे सिक्के इकठ्ठा करना शुरू किया।
एक दिन हम लोग सभी एक साथ बैठ कर ऐसे ही बातें कर रहे थे तो चाचा जी आये और कुछ बताने लगे की किसी काम के लिए कुछ पैसे काम पड़ रहे रहे तो पापा ने पास में रखी मेरी गुल्लक उठाकर बोले तो ठीक है इसको फोड़ देते है और इसमें से पैसे ले लेते है। ये शब्द उन्होंने उस वक़्त मुझे चिढ़ाने के लिए कहे होंगे मगर मैं अपनी जगह से उठा और तेजी से उनके हाथ से वो गुल्लक छीन लिया बिना ये सोचे की उन्हें कैसा लगा होगा।
ये मेरा गुल्लक है और अभी तो कुछ ही सिक्के हुए है अभी तो वो नोट भी नहीं बने होंगे। अपनी नासमझी में मैं ये बात कह गया।
पापा उस वक़्त बहुत खामोश थे। मेरा ये बर्ताव उनके दिल को चोट पंहुचा चूका था।
बाद में उन्होंने माँ से सिक्के से नोट हो जाने वाली बात के बारे में पूछा तो माँ ने पूरी बात बताई।
उसके बाद पापा जब भी वक़्त मिलता मेरे उस गुल्लक में बिना मुझे बताये दस बीस के नोट डालते रहे सिर्फ इसलिए की जब भी मैं इस गुल्लक को तोडूं मैंने जो उम्मीद लगाई है वो उम्मीद ना टूटे।
चाची ने ये पूरी बात बताई। मुझे समझ आया की पिता कभी कुछ कहते नहीं है मगर बच्चों की कोई उम्मीद या ख्वाब टूटने नहीं देते है |
बचपन की उस हरकत पर मैं आज बहुत शर्मिंदा था। मैंने उस सिक्के और नोट को अपने रुमाल में बांध लिया और अपने जेब में रख लिया क्युकी उनकी कीमत मेरे लिए लाखों रुपये से ज्यादा था।
मैं उस कमरे से निकल कर घर के बाहर आ चूका था ऐसे ही टहलना शुरू कर दिया। कुछ देर में पापा भी आ गए। मिल लिए सभी लोगों से , पापा ने पूछा।
जी। बस इतना ही बोल पाया मैं।
ठीक है चलो फिर बस स्टैंड की तरफ निकलते है थोड़ी देर में। कहकर पापा घर के अंदर चले गए।
कुछ देर बाद हम लोग बस स्टैंड की पर खड़े शहर की तरफ जाने वाली बस का इंतजार करने लगे और लगभव १० मिनट बाद बस हम्मरे पास आकर रुकी और हम बस के अंदर आकर बैठ गए। जब शहर से गावं आ रहे थे तो मुझे बिलकुल भी मन नहीं था आने का मगर अब लौटते हुए मुझे लगा कुछ चीजों को समझने के लिए मेरा गावं आना बहुत जरुरी था। मैंने अभी जेब से इयरफोन कान में लगाकर सांग प्ले किया और और कुछ पुराने गाने सुनने लगा। सफर कब कट गया और हम शहर कब पहुंच गए पता ही नहीं चला।
बस स्टैंड से घर पहुंचते पहुंचते ९ बज चुके थे। माँ ने रात का खाना बनाकर तैयार कर चुकी थी। हम लोग पहुंचे और हाथ मुँह धोकर खाना खाने बैठ गए। खाना खाकर मैं अपने कमरे में आ चूका था और वंहा मेरा छोटा भाई पढाई कर रहा था मुझे देखते हुए उसके चेहरे पर एक दबी हुई मुस्कराहट आ गयी।
क्या हुआ अब तुमको ? मैंने उसको देखते हुए पूछा।
कुछ नहीं बस ये सोच रहा हूँ की कल से ये कमरा पूरा मेरा और बिस्तर पूरा मेरा होगा मैं इधर उधर कंही भी सो सकता हूँ।
सच ही तो कहा था उसने। मैंने कोई प्रतिकिया नहीं दी और उसी वक़्त माँ ने कमरे में प्रवेश किया।
माँ वो ! माँ को देखते ही मेरे जुबान से ये शब्द निकले।
हाँ , हाँ अभी जाती हूँ तुम्हारे पापा के पास तो बात करती हूँ तुम्हारे लैपटॉप के लिए। पहले ये दूध पी लो तुम दोनों।
नहीं , मैं ये कह रहा था की मुझे अभी फर्स्ट ईयर में लैपटॉप की जरुरत पड़ेगी नहीं तो आप अभी बात मत करना। मुझे जब जरुरत होगी तो मैं खुद पापा से बात कर लूंगा। माँ के हाथ से दूध का गिलास लेते हुए मैंने उनसे ये बात कही।
तुम बात कर लोगे। सुबह मेरी डाकिया वाली बात बुरी लग गयी क्या ? माँ ने सवाल किया।
क्या क्या सोचने लगती है आप भी , मैं बस इतना कह रहा था की मैं बात कर लूंगा जब जरुरत होगी बाकी आप तो मेरी डाकिया है ही।
मैंने ये बात थोड़ा हस्ते हुए कहा तब माँ को तसल्ली हुई की सब ठीक है। ये जो मायें होती है ना उन्हें छोटी छोटी बातों पर अपना ब्लड प्रेसर हाई और लो करने की आदत हो जाती है अगर वो बात उनके बच्चे से जुडी होती है तो।
हम दोनों भाईओं ने दूध का गिलास खतम किया और माँ दोनों गिलास लेकर कमरे से बाहर चली गयी। मैं उसके बाद बिस्तर पर आ गए। मैं सो नहीं सकता था क्युकी वैसे भी ११ बज चुके थे और ३ घण्टे बाद रेलवे स्टेशन के लिए निकलना था। छोटा भाई भी पढाई करके बिस्तर पर आ गया।
भैया , तुम चले जाओगे तो फिर मेरे जो डाउट रहेंगे वो कैसे मैं क्लियर करूँगा ?
मोबाइल नाम की चीज है इस दुनिया में मम्मी के नंबर से कॉल कर लेना।
हाँ ये भी सही है, मगर तुम फ्री रहोगे मेरे लिए।
बिलकुल, अपनों के लिए इंसान व्यस्तता के साथ भी वक़्त निकाल लेता है।
मैं मिस करूंगा आपको।
क्यों मिस करोगे ? अब तो पूरा कमरा तुम्हारा , कमरे का बिस्तर तुम्हारा, मेज, कुर्सी तुम्हारी।
पर इसको शेयर करने के लिए आप तो नहीं रहेंगे।
छोटे भाई के इस सवाल को कोई जबाब नहीं था मेरे पास।
कभी कभी दूर जाने का एहसास दो लोगो को बहुत पास ला देता है।
मेरी नजरें कमरे में तंगी घड़ी पर बार बार जा रही थी। जैसे जैसे वक़्त बढ़ रहा था मेरा मर भरी होते जाते जा रहा था अभी तो मैं सुबह में नई जगह जाने के लिए कितना उत्साहित था मगर जैसे जैसे जाने का वक़्त हो रहा था मेरे चेहरे पर उदासी का साया पड़ने लगा था। और फिर । ढाई बज गए। छोटा भाई सो चूका था मैं उठा बैग खोला और उसने अपने उस रुमाल को रखा जिसमें मैंने गुल्लक के सिक्के और नोट रखे थे। मैं बाहर आया तो माँ किचेन में थी और चाय बना रही थी।
अरे तुम जग गए। मैं तो चाय लेकर तुम्हारे ही कमरे में आ रही थी।
पापा भी मुँह धुलकर आ चुके थे। हम दोनों ने चाय पी।
रेलवे स्टेशन जाने का वक़्त हो चूका था। माँ की आँखों में आसूं पलकों पर आकर बस गिरने को तैयार थी।
चलता हूँ माँ। कहकर मैंने उनके चरण स्पर्श किये और माँ की पलकों पर रुके आंसूं मेरे हाथो पर आकर गिरे। बच्चों कप एक अनजान शहर भेजना जंहा उसे कोई नहीं जानता हो , हर माँ को इस बात की चिंता हमेशा होती है कि उसका बच्चा अपना ख्याल कैसे रखेगा और अगर कोई उसका ख्याल रखता भी है तो उसके जैसा नहीं रख पायेगा।
ख्याल रखना अपना। माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
भैया।
मैंने कमरे के तरफ देखा छोटा भाई सामने से आ रहा था।
ये कमरा हमेशा आपका रहेगा।
मेरा नहीं हमारा।
उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।
मैं और पापा बाहर मैं रोड पर आ गए और रात होने कि वजह से ऑटो को बुक किया और रेलवे स्टेशन पहुंचे। ३ बजकर ३० मिनट हो चुके थे। आधे घंटे में ट्रैन आने वाली थी। मैं और पापा बेंच पर बैठ गए।
सॉरी पापा।
सॉरी , किस लिए , पापा ने मेरी तरफ देखकर पूछा।
बचपन में उस गुल्लक वाले बात कि वजह से जो मैंने आपके हाथ से छीन लिया था।
अरे वो बहुत पुरानी बात है बेटा और तुम छोटे भी तो थे।
मुझे वो नोट मिले जो अपने उस गुल्लक में डाले थे । मेरी एक ऐसी उम्मीद पूरा करने के लिए जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है।
एक पिता अपने जिंदगी को तभी सार्थक मानता है जब वो अपने बच्चे कि इच्छाओ, उमीदों, और ख्वाबों को पूरा करता है। पापा ने ये बात मुझसे समझायी।
पहली बार था कि मैं और पापा खुलकर एक दूसरे से बातें कर रहे थे और उस वक़्त समझ आया कि इस सख्त चेहरे के पीछे एक ऐसा इंसान है जो अपने बच्चे कि खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार था।
अच्छा हाँ ! ये एटीएम पकड़ो , अपने जेब से एटीएम निकालते हुए पापा ने मुझे एटीएम दिया।
एटीएम तो है मेरे पास।
हाँ, ये मेरा है वो तुम्हे लैपटॉप लेना है ना तो वंहा जाकर पैसे निकाल लेना और खरीद लेना। क्युकी कुछ दिन मैं भी काम में व्यस्त रहूँगा और ज्यादा पैसे लेकर सफर करना सही नहीं है तो इसलिए ये एटीएम रखो।
पापा , मम्मी से मैंने कहा तो था कि अभी जरुरत नहीं है।
उसने मुझसे कोई जिक्र नहीं किया लैपटॉप का वो तो कुछ दिन पहले मैंने सुना था तुम्हे तुम्हारे किसी दोस्त से बात करते हुए कि स्टडी के लिए तुम्हे जरुरत पड़ेगी लैपटॉप कि इसलिए तो आज गाव
कहते हुए रुक गए थे पापा।
क्या हुआ? क्या बात है। मैंने पूछा।
कुछ नहीं , छोडो ये सब , तुम्हे सच में अभी जरुरत नहीं है।
हाँ पापा। जब होगा तब मैं सीधे आपसे आकर कहूंगा।
पक्का।
मतलब।
मतलब, अभी तक तो अपने माँ के जरिये मुझ तक अपनी बात पहुंचाते थे। इसलिए पूछ रहा हूँ।
नहीं, आगे से मुझे जो भी जरुरत होगी आपसे ही कहूंगा मैं।
ट्रेन आ चुकी थी। मैं पापा के चरण स्पर्श करने जा ही रहा था कि उन्होंने मुझे गले लगा लिया। माँ के गले तो हम कभी भी लग जाते है मगर पिता के लगे लगना एक अलग ही सकूँ देता है जैसे कि कड़ी धुप में बरगद का पेड़ इंसान को छांव देकर एक सकूं कि नींद देता है। हम दोनों के आँखों में आंसू थे जिसे हम एक दूसरे से छुपाने कि कोशिश कर रहे थे।
सब रख लिया था न। कुछ छूट तो नहीं रहा है। पापा ने पूछा।
छूट तो रहा था , एक परिवार , जंहा एक पिता अपने बच्चे के खुशी के लिए कुछ भी कर सकता था , एक माँ जिसकी दुनियाँ ही उसका बच्चा था और एक भाई जो लाख लड़ाई के बाद भी अपना था।
मैंने ना में सर हिला दिया और ट्रेन के अंदर अपनी बोगी में बैठ गया। कुछ देर बाद ट्रेन चल पड़ी । और मैं सोचने लगा कि
"दादी कि गुल्लक वाली बात परिवार पे सटीक बैठ रही थी।
परिवार एक गुल्लक कि तरह होता है , बच्चे उस गुल्लक के सिक्के और माता पिता उस गुल्लक के बड़े वाले नोट । "
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