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आशा पाण्डेय का गीत संग्रह बाबा के गाँव में

 आशा पाण्डेय का गीत संग्रह बाबा के गाँव में

                                 रामगोपाल भावुक

 

जब जब गाँव की बात सामने आती है , मुझे मेरा गाँव, वहाँ की संस्कृति, वहाँ के लोक गीत , वहाँ का अपनापन और परिवेश आँखों के सामने आकर पसर जाता है। आशा पाण्डेय का गीत संग्रह ‘बाबा के गाँव’ सामने आते ही गाँव की स्मृतियों को हरा कर जातीं हैं।

      आमुख में वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश तोमर जी के आलेख में-‘बाबा के गाँव’ में गाँव बड़ी सजीवता से चित्रित हुआ है। सावन के महीने की धूप, चक्की की तुक तान, खेत बलखाती मेडे़, पनघट, मन्दिर, पुराना कुआं और पीपल जैसी तमाम चीजें उसमें बड़े सहज रूप से रूपायित हुई हैं। शुभाशीष में डॉ. भगवत भट्ट ने अपने दोहों में-  जीवन की अनुभूतियां, अनुभव औ आचार। की मुक्त कण्ठ से सराहना की है।

           मनकी बात में रचनाकार से गांव की बातें सुनना चहता था लेकिन वे तो उसमें क्रोंचवध की चर्चा करते हुए कहती हैं कि जो कुछ भी मेरे अन्तःकरण से फूटा मैंने उसे संगीत माना, गीत माना। वे मानतीं है कि मैं विशुद्ध गीतकार नहीं । अन्त में वे अपने एक गीत के माध्यम से अपने गीतों को परिभाषित करने में लगीं रहीं।

      संग्रह में छयासठ गीत संकलित हैं। अधिकांश कवियों की तरह वंदना और गीत वीणा के में वीणापाणि से काव्य रचना में सहयोग की याचना की है।

       तम का डेरा में-   पीड़ा पीकर घिर नींदों में

                       सो जाने का हक मेरा है।

                        मेरे तट पर तम का डेरा

                        देखो उस पार सबेरा है।

और आवृतमन गीत में- अब सुधा सुरभि की क्षुधा नहीं,

                    मैंने तो बस मकरन्द चक्खा।

 गीत बदली में-गले लगाकर नंगों से फिर

                      अकेली  ही बरसती हैं।

 और निराली हूं में-झर गये आँखों से सारे,

           अश्रु अब बहते नहीं,

           पत्थरों पर जम चुका,

          पानी पुराना हो गया। हूं निराली मैं......

और छलकते रस की तलाश में डुबकी लगाते हुए ‘प्याली अपनी’ में-

            जो चला गया उसे जाने दो,

             जो आयेगा उसे आने दो,

             अन्तर में केवल आज बिठा,

              बस ढाई आखर पढ़ने दो।

              बस बूंद बूंद ही झरने दो।

              पर अपनी प्याली भरने दो।

वे प्रीति पुरुष की तलाश करते हुए ‘तुम्हारी यादें’ में खो जातीं हैं-

             मानों बेरंग पानी की लकीर में,

             इन्द्रधनुषी रंगों का भर जाना,

             या फिर पतझड के ठूंठ में,

             बसन्त का आ जाना,

अलसाई भोर हो, चाहे गीत बसन्ती हो,उस पार जाने पर तो ईशगीत ही याद रह जाते हैंैं-निराकारी पकड़ लो कर दिखो ना भरम बनकर

  कभी मन में उतर जाओं मुरली मोहन की बन बन कर

वे बरखा के गीत गाते गाते पहली बारिश की याद करने लगतीं हैं-

       मन के बियावान बीहड़ में,

 एक गांव का मिलना था। पहली बारिश  बूंदों का....

गांव की तलाश में भटकते हुए, इस रचना में गांव की प्यारी सी झलक  से रू-ब-रू हो पाया हूं।

  वे प्रण करतीं है कि तुम मुझे शिलाओं में धर दो तो मैं वहीं खिल जाऊँगी किन्तु अतीत की यादें उन्हें पीड़ा देती चलती हैं। सब समझते रहे मौन की बोली में, इस भाव का अनुभव करते हुए वे शक्ति की तलाश में रम जातीं हैं-

               थीं मैं देवालय में नारी, तुम ना बन पाये पुजारी

                रण में उतरूंगी अकेली, चेतना की ले कटारी

वे ‘पाती एक प्रश्न’ लिखती हैं तो तरुणाई में माखन चोर से कहतीं हैं- जब जब हमने तुम्हारा पंथ बुहारा, प्राय: तुम रास्त भूल गये।

     ‘मैं चुनी गई’ रचना के पड़ाव पर आ गये हैं- इसमें नारी जीवन की व्यथा- कथा समाहित है-

            आंगन को रोज बुहारा है

            शिवलिंग को रोज ढहारा है

            तुलसी पर कितने दीप धरे

            फिर भी नरकों में धुनी गई। मैं चुनी गई बस चुनी गई।

मेरे चित्त को ‘करुण कहानी’ पर आकर तो पूरी तरह से विराम मिला हैं। इसमें नदिया के माध्यम से नारी की करुण कथा कहने में वे पूरी तरह सफल रहीं हैं-

              देख लिया मैंने नदिया की करुण कहानी बनकर

              देख लिया मैंने इस जग में इक परछाईं बनकर।

 यों तो आपकी अधिकांश रचनायें आशावादी दृष्टिकोण की हैं लेकिन आंगन तक आते आते वे - मैं हूं आशा औ आशा को जीने दिया

         अपनी आंखों से पानी न झरने दिया।

आपने अपने नाम की सार्थकता को हर रचना में पुष्ट करने का प्रयास किया है। जब वे तपस्वनी बनकर सामने आतीं हैं तो-

     बाती का तन जल गया, तो क्या उजाले तो दिये

                 इन अंधेरों ने लिपटकर,भोर के कलरव दिये।

       वे जीवन के अनुभावों को पाठकों से सांझा करती हुई फागुनी फुहार, फागुन पिया और दरबार फागुन का आनन्द लेने से भी नहीं चूकतीं।

     मैं गांव की तलाश करते हुए बाबा के गांव आगया हूं। इस रचना का मैंने अनेक वार पाठ किया है। हर वार नये नये भावों सें सराबोर होता रहा हूं-

        वो बामन का टीला वो ठाकुर का कोना

        वो हरिया का गाना औ छेदी को टोना

        वो खटिया खड़हरी पे बैठी कचहरी

        रस की चैपाले सब मिल खिल खिलायें वो बाबा के गांव

‘जी नहीं लगता’ में भी आपने गांव की कहानी कह डाली है-

चलो किसी गांव में ठहरें झटक लें घूप जीवन की

या फिर पुलिया पै जा बैठें हवायें नम नहर की हों।

 हमारा जी नहीं लगता.......

 ‘शब्द क्षितिज के रचना में वे-मन्दिर मन्दिर बजा के घंटा

                           अपना नाद सुनाते हैं

                           अपनी तान महान बताकर

                            राग बेसुरा गाते हैं।

उनकी यह बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी, नाद के आनन्द के वाद राग बेसुरा कैसे हो गया? आपने आतंक, निरीहता,वक्त और उम्र के साथ आरती देश की उतारी है।शहीदों की पुकार के माध्यम से शहीदों की भावना से हमें परिचय कराया हैं। माँ भरती की चिन्ता में हिन्दी गीत भी गनगुनाईं हैं।

        आपकी भाषा सहज सरल है। सारी रचनाओं में जीवन में अनुभव किये भावों को ही रचनाओं में समाहित किया गया है। इस समय गाँव की झरबेरी के बेर पान करने की इच्छा बढ़ गई है। निश्चय ही आगे की रचनाओं में हमारी यह इच्छा भी पूरी हो सकेगी। इसी आशा में आशा पाण्डेय जी के साथ।

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कृति का नाम- ‘बाबा के गाँव’ कविता संग्रह    

कृतिकार- आशा पाण्डेय

प्रकाशक-गायत्री-सावित्री प्रकाशन दीनदयाल नगर ग्वालियर म.प्र.

वर्ष-2015

मूल्य-165 रु. मात्र

समीक्षक-राम गोपाल भावुक, कमलेश्वर कॉलोनी डबरा, भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो-9425715707

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