आँख की किरकिरी - 18 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 18

(18)

रविवार महेंद्र के बड़े आग्रह का दिन होता। पिछली रात से ही उसकी कल्पना उद्दाम हो उठती - जो कि आज तक उसकी उम्मीद के अनुरूप हुआ कुछ भी न था। तो भी इतवार के सवेरे की आभा उसकी आँखों में अमृत बरसाने लगी। जागे हुए शहर की सारी हलचल अनोखे संगीत - जैसी उसके कानों में प्रवेश करने लगी।

 मगर माजरा क्या है? आज कोई व्रत है माँ का? और दिन जैसा करती रही हैं, आज तो वह घर के काम-काज का खास भार विनोदिनी पर सौंप कर निश्चिंत नहीं है। आज खुद भी बहुत व्यस्त हैं वे।

 इसी हंगामे में दस बज गए। इस बीच किसी भी बहाने महेंद्र एक पल के लिए भी विनोदिनी से न मिल सका। किताब में मन लगाना चाहा, बिलकुल न लगा। अखबार के एक विज्ञापन पर नाहक ही पन्द्रह मिनट तक नजर गड़ाए रहा। आखिर न रहा गया। नीचे गया। देखा, माँ खुद रसोई कर रही हैं और कमरे में आँचल बाँधे विनोदिनी उनकी मदद कर रही है।

 महेंद्र ने पूछा - बात क्या है आज? बड़ी धूम-धाम है।

 राजलक्ष्मी बोलीं- बहू ने बताया नहीं तुम्हें? आज बिहारी को खाने के लिए बुलाया है।

 बिहारी को निमंत्रण! महेंद्र को सुन कर बहुत खराब लगा। उसने तुरंत कहा - मैं घर पर नहीं रहूँगा, माँ।

 राजलक्ष्मी - क्यों?

 महेंद्र - मुझे बाहर जाना है।

 राजलक्ष्मी - खा-पी कर जाना। ज्यादा देर न होगी।

 महेंद्र - मुझे भोजन के लिए निमंत्रण है।

 कनखियों से उसे देख कर विनोदिनी बोली - दावत है, तो जाने दो, बुआ! न हो बिहारी बाबू अकेले ही खा लेंगे।

 लेकिन अपने हाथ से जतन से पकाएँ और महेंद्र न खाए, यह उन्हें कैसे बर्दाश्त हो! वह जितना भी आग्रह करने लगीं, महेंद्र उतना ही टालने लगा।

 इस तरह नाराज महेंद्र ने माँ को सजा देने की ठानी। राजलक्ष्मी की इच्छा हुई, रसोई छोड़ कर चल दें। विनोदिनी बोलीं- तुम फिक्र न करो, बुआ। भाई साहब यह सब बेकार की बातें कर रहे हैं - आज वह दावत पर हर्गिज नहीं जाएँगे।

 राजलक्ष्मी गर्दन हिला कर बोलीं, नहीं-नहीं बिटिया, तुम महेंद्र को नहीं जानतीं। वह एक बार जो तय कर लेता है, उससे नहीं डिगता।

 लेकिन साबित यही हुआ कि विनोदिनी महेंद्र को राजलक्ष्मी से कम नहीं जानती। महेंद्र ने समझा था कि बिहारी को विनोदिनी ने ही न्योता भिजवाया है। इससे उसका जी डाह से जितना जलने लगा, उतना ही उसके लिए बाहर जाना कठिन हो गया। बिहारी क्या करता है, विनोदिनी क्या करती है, यह देखे बिना वह भला जिए कैसे? देख कर जलना ही पड़ेगा, फिर भी देखना जरूरी था।

 आज बहुत दिनों के बाद एक निमंत्रित आत्मीय की तरह बिहारी महेंद्र के अंत:पुर में आया। छुटपन से ही जो घर उसका जाना-पहचाना रहा है, घर के लड़के ही तरह जहाँ उसने बचपन की शरारतें की हैं, उसी द्वार पर आ कर आज वह ठिठक गया। उसके अंतर के दरवाजे पर आँसू की एक लहर उमड़ उठने के लिए आघात करने लगी। उस चोट को पी कर होंठों में हँसी लिए अंदर गया और तुरंत नहा कर आई राजलक्ष्मी को प्रणाम करके उनके चरणों की धूल ली। जिन दिनों बिहारी हरदम वहाँ आया-जाया करता था, ऐसे प्रणाम की प्रथा न थी। आज मानो वह सुदूर प्रवास से घर लौटा हो। प्रणाम करके उठते ही स्नेह से राजलक्ष्मी ने उसके सिर पर स्पर्श किया।

 आज गहरी संवेदनाओं के साथ राजलक्ष्मी ने बिहारी के प्रति पहले से ज्यादा स्नेह जताया। कहा - बिहारी, तू इतने दिनों से यहाँ क्यों नहीं आया? मैं रोज ही सोचती थी, आज जरूर आएगा, मगर तेरा पता नहीं?

 बिहारी ने हँस कर कहा - रोज आता होता, तो माँ रोज तुम अपने बिहारी को याद नहीं करतीं। कहाँ हैं महेंद्र भैया?

 राजलक्ष्मी उदास हो कर बोलीं - जाने कहाँ आज दावत है उसकी, रुक न सका।

 सुन कर बिहारी का मन परेशान हो गया। छुटपन की मैत्री का आखिर यह अंजाम? एक लंबा नि:श्वास छोड़ कर मन से सारे विषाद को हटा देने की कोशिश करता हुआ बोला - अच्छा, क्या-क्या बना है।

 और वह अपने प्रिय व्यंजनों की बात पूछने लगा।

 इतने में महेंद्र ने आ कर सूखे स्वर में पूछा - बिहारी, कैसे हो?

 राजलक्ष्मी बोलीं - दावत में नहीं गए?

 शर्म छिपाते हुए महेंद्र बोला - नहीं, गया।

 विनोदिनी नहा कर आई, तो पहले तो बिहारी कुछ बोल ही न सका। विनोदिनी और महेंद्र को जिस रूप में वह देख गया था, वह हृदय में अंकित ही था।

 विनोदिनी उसके करीब आ कर बोली - क्यों भाई साहब, मुझे भूल गए हैं क्या?

 बिहारी बोला - सबको पहचाना जा सकता है क्या?

 विनोदिनी ने कहा - अगर थोड़ा-सा विचार हो तो जा सकता है।

 और उसने बुआ को पुकार कर कहा - बुआ, खाना तैयार है।

 महेंद्र और बिहारी खाने बैठ गए। राजलक्ष्मी पास बैठ कर देखने लगीं।

 महेंद्र का ध्यान खाने पर न था। वह परोसने के पक्षपात पर गौर कर रहा था। उसे लगा, बिहारी को भोजन परोसते हुए विनोदिनी को मानो एक खास आनंद मिल रहा है। बिहारी की पत्तल पर ही दही की मलाई और रोहू मछली का सिर डाला गया। पर चूँकि वह मेजबान था इसलिए शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं थी। मौसम न होने पर भी तपसी मछली मिल गई थी। उनमें से एक थी अण्डे वाली। विनोदिनी उसे बिहारी की पत्तल पर परोसने जा रही थी कि उसने कहा - महेंद्र भैया को दो, उन्हें बड़ी प्रिय है यह।

 महेंद्र तीखी दबी खीझ से बोल उठा - नहीं-नहीं, मुझे नहीं चाहिए।

 विनोदिनी ने दूसरी बार उससे अनुरोध नहीं किया और उसे बिहारी की पत्तल पर डाल दिया।

 खाना खत्म हुआ। दोनों दोस्त बाहर निकले। विनोदिनी आ कर बोली, बिहारी बाबू चले मत जाना, चलिए, ऊपर के कमरे में बैठिए जरा देर।

 बिहारी ने पूछा - और तुम नहीं खाओगी।

 विनोदिनी बोली - आज मेरा एकादशी का व्रत है।

 तीखे व्यंग्य की एक हल्की हास्य-रेखा बिहारी के होंठों के किनारों पर खेल गई।

 हँसी की यह लकीर विनोदिनी की निगाह से छिपी न रही, लेकिन जिस तरह वह हाथ के जख्म को सह गई थी - इसे भी पी गई। निहोरा करती हुई बोली - मेरे सिर की कसम, चलो, बैठो!

 महेंद्र अचानक अजीब ढंग से गर्म हो उठा। बोला - अक्ल से तो कोई वास्ता ही नहीं - काम-धाम पड़ा रहे, ख्वाहिश हो या न हो, बैठना ही पड़ेगा। इतनी ज्यादा खातिरदारी का मतलब मेरी समझ में नहीं आया।

 विनोदिनी ठठा कर हँस पड़ी। बोली - भाई साहब, खातिरदारी शब्द का कोश में दूसरा कोई मतलब नहीं।

 फिर महेंद्र से कहा - कहने को चाहे जो कहो भाई साहब, खातिरदारी का मतलब छुटपन से जितना तुम समझते हो, शायद ही कोई समझता हो।

 बिहारी बोला - महेंद्र भैया, एक बात है, सुन जाओ जरा!

 बिहारी ने विनोदिनी से विदा न माँगी और महेंद्र के साथ बाहर चला गया। बरामदे पर खड़ी विनोदिनी चुपचाप सूने आँगन को ताकती रही।

 बाहर जा कर बिहारी ने कहा - भैया, एक बात का मैं खुलासा करना चाहता हूँ, हमारी दोस्ती क्या यहीं खत्म हो गई?

 उस समय महेंद्र के कलेजे में आग लग रही थी। विनोदिनी का व्यंग्य बिजली की लपट-सा उसके दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपकता हुआ बार-बार उसे वेध रहा था। वह बोला - इस बात के फैसले से शायद ही तुम्हें कुछ लाभ हो, पर मेरे लिए यह काम्य नहीं। अपनी दुनिया में मैं किसी बाहरी आदमी का प्रवेश नहीं चाहता। अंत:पुर को मैं अंत:पुर रखना चाहता हूँ।

 बिहारी ने कुछ नहीं कहा। चला गया।

 ईर्ष्या के दाह से जर्जर महेंद्र ने एक बार प्रतिज्ञा की - विनोदिनी से मैं नहीं मिलूँगा। और फिर उससे मिलने की उम्मीद में वह घर-बाहर, ऊपर-नीचे छटपटाता हुआ चक्कर काटता रहा।

 आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?

 अन्नपूर्णा बोलीं - महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।

 आशा ने पूछा - फिर तुम किसकी बात सोचती हो?

 अन्नपूर्णास हँस कर बोलीं - अब मैं उन भगवान की याद करती हूँ जिनमें मेरे पति हैं।

 आशा ने पूछा - इससे तृप्ति होती है?

 स्नेह से आशा के माथे पर हाथ फेरते हुए अन्नपूर्णा ने कहा - मेरे मन की तू क्या समझेगी, बिटिया!

 आशा अपने मन में सोचने लगी - और मैं जिनकी बात आठों पहर सोचा करती हूँ, वे क्या मेरे मन की नहीं जानते! मैं ठीक से चिट्ठी नहीं लिख सकती, इसीलिए उन्होंने मुझे पत्र लिखना बंद क्यों कर दिया?

 इधर कुछ दिनों से उसे महेंद्र की चिट्ठी नहीं मिली। एक उसाँस ले कर आशा ने मन में सोचा - इस वक्त मेरी आँख की किरकिरी पास रही होती, तो मेरे मन की बात चिट्ठी में ठीक-ठीक लिख देती।

 अच्छी तरह से न लिखी गई चिट्ठी का कोई मोल पति के लिए न होगा, यह सोच कर आशा ने चिट्ठी नहीं लिखी। जितना ही जतन से लिखना चाहती, उतना ही चिट्ठी बिगड़ जाती। मन की बातों को जितना ही सुलझा-सहेज कर लिखना चाहती, उसकी पंक्तियाँ पूरी न पड़तीं। अगर सिर्फ एक शब्द मेरे देवता लिखने से ही अंतर्यामी की नाईं महेंद्र सब कुछ समझ सकता, तो आशा का पत्र लिखना सार्थक हो सकता था। ईश्वर ने प्रेम दिया है, थोड़ी-सी भाषा क्यों न दी?

 संध्या की आरती के बाद अन्नपूर्णा मन्दिर से लौटीं, तो आशा धीरे-धीरे उनके पैर सहलाने लगी। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। उसके बाद आशा बोली - अच्छा मौसी, तुम तो कहती हो कि देवता के समान पति की सेवा करना स्त्री का धर्म है, लेकिन जो स्त्री मूर्ख हो, जिसे बुद्धि न हो, जिसे यह न मालूम हो कि पति की सेवा कैसे करनी चाहिए, वह क्या करे?

 अन्नपूर्णा देर तक आशा की ओर देखती रहीं। एक लंबी साँस छोड़ कर बोलीं - मूर्ख तो मैं भी हूँ बिटिया, मगर फिर भी तो भगवान की सेवा करती हूँ।

 आशा ने कहा - भगवान तो तुम्हारे मन को समझते हैं, तभी वे खुश होते हैं। लेकिन यों समझो, स्वामी अगर मूर्ख स्त्री की सेवा से संतुष्ट न हो?

 अन्नपूर्णा ने कहा - सबको खुश करने की शक्ति सबमें नहीं होती, बेटी। लेकिन स्त्री अगर तहेदिल से श्रद्धा और भक्तिपूर्वक पति की सेवा और गृहस्थी के काम करती है, तो पति चाहे नाचीज समझ कर उसे ठुकरा दे, स्वयं जगदीश्वर जतन से उसे चुन लेते हैं।

 जवाब में आशा चुप रही। मौसी द्वारा दी गई सांत्वना को उसने अपनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह बात उसके दिमाग में हर्गिज न बैठ सकी कि पति जिसे नाचीज समझ कर ठुकरा देंगे, उसे जगदीश्वर सार्थक कर सकेंगे। वह सिर झुकाए मौसी के पाँव सहलाती रही।

 अन्नपूर्णा ने इस पर आशा को अपने और करीब खींच लिया। उसके माथे को चूमा। रुँधे कंठ को बलपूर्वक खोल कर बोली - चुन्नी, तकलीफ झेल कर जीवन में जो सबक सीखा जा सकता है, केवल सुन कर वह संभव नहीं। तेरी इस मौसी ने भी तेरी उम्र में संसार से लेन-देन का बहुत बड़ा नाता जोड़ लिया था। उस समय मेरे भी जी में तेरी ही तरह होता था कि जिसकी मैं सेवा करूँगी, वह आखिर संतुष्ट क्यों न होगा। जिसकी पूजा करूँगी, उसका प्रसाद भला क्यों न मिलेगा? जिसके भले की करूँगी, वह मेरी चेष्टा को भली क्यों न समझेगा? लेकिन हर कदम पर देखा, वैसा होता नहीं है। और अंत में एक दिन दुनिया को छोड़ कर चली आई। और आज यह पा रही हूँ कि मेरा कुछ भी बेकार नहीं हुआ। असल में बिटिया जिससे लेन-देन का सही संबंध है, जो संसार की इस पैठ के असली महाजन हैं, वही मेरा सब कुछ स्वीकार कर रहे हैं, आज मेरे अंतर में बैठ कर उन्होंने यह बात कबूल की है। काश! तब यह जानती होती! अगर संसार के कर्म को उनका समझ कर करती, उन्हीं को दे रही हूँ - यह समझ कर संसार को अपना हृदय देती तो फिर कौन था जो मुझे दु:ख दे सकता है!

 बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आशा बड़ी रात तक बहुत बातें सोचती रही। लेकिन तो भी ठीक-ठीक कुछ न समझ सकी।

 आशा के बड़े चाचा के लौट जाने का दिन आया। जाने के पहले दिन शाम को अन्नपूर्णा ने आशा को अपनी गोदी में बिठा कर कहा - चुन्नी, मेरी बिटिया, संसार के शोक-दु:ख से सदा तुझे बचाते रहने की शक्ति मुझमें नहीं है। मेरा इतना ही कहना है कि जहाँ भी, जितना भी कष्ट क्यों न मिले, अपने विश्वास, अपनी भक्ति को दृढ़ रखना, तेरा धर्म जिससे अटूट रहे।