(19)
आशा ने उनके चरणों की धूल ली। बोली - आशीर्वाद दो मौसी! ऐसा ही हो।
आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?
आशा बोली - और तुमने तो लिख दिया जैसे!
विनोदिनी - मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।
विनोदिनी के गले से लिपट कर आशा ने अपना कसूर मान लिया। बोली - जानती तो हो, मैं ठीक-ठीक लिख नहीं पाती। खास कर तुम-जैसी पंडिता को लिखने में शर्म आती है।
देखते-ही-देखते दोनों का विषाद मिट गया और प्रेम उमड़ आया। विनोदिनी ने कहा - आठों पहर साथ रह कर तुमने अपने पति देवता की आदत बिलकुल बिगाड़ रखी है। कोई हरदम पास न रहे, तो रहना मुश्किल।
आशा - तभी तो तुम पर जिम्मेदारी सौंप गई थी। और साथ कैसे दिया जाता है, यह तुम मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानती हो।
विनोदिनी - दिन को तो किसी तरह से कॉलेज भेज कर निश्चिंत हो जाती थी - मगर साँझ को किसी भी तरह से छुटकारा नहीं। किताब पढ़ कर सुनाओ, और-और न जाने क्या-क्या? पूछो मत, मचलने का तो अंत नहीं।
आशा - आई न काबू में! जब जी बहलाने में पटु हो, तो लोग छुट्टी क्यों दें?
विनोदिनी - मगर सावधान बहन, भाई साहब कभी-कभी तो ऐसी अति कर बैठते हैं कि धोखा होने लगता है, शायद मैं जादू-मंतर जानती हूँ।
आशा - जादू तुम नहीं जानतीं तो कौन जानता है! तुम्हारी विद्या जरा मुझे आ जाती, तो जी जाती मैं।
विनोदिनी - क्यों, किसके बंटाधार का इरादा है! जो सज्जन घर में है, उन पर रहम करके किसी और को मोहने की कोशिश भी न करना।
विनोदिनी को तर्जनी दिखा कर आशा बोली - चुप भी रह, क्या बक-बक करती है!
काशी से लौटने के बाद पहली बार आशा को देख कर महेंद्र ने कहा - तुम्हारी सेहत तो पहले से अच्छी हो गई है। काफी तंदुरुस्त हो कर लौटी हो।
आशा को बड़ी शर्म आई। उसकी सेहत अच्छी नहीं रहनी चाहिए थी- मगर उस गरीब का बस नहीं चलता।
आशा ने धीमे से पूछा - तुम कैसे रहे?
पहले की बात होती तो महेंद्र कुछ तो मजाक और कुछ मन से कहता - मरा-मरा। मगर अभी मजाक करते न बना - गले तक आ कर अटक गया। कहा - बेजा नहीं, अच्छा ही था।
आशा ने गौर किया, महेंद्र पहले से कुछ दुबला ही हो गया है। चेहरा पीला पड़ गया है, आँखों में कैसी एक तेज चमक है। कोई भीतरी भूख मानो आग की जीभ से उसे चाटे जा रही हो। आशा पीड़ित हो कर सोचने लगी - स्वामी अपने दुरुस्त नहीं रहे यहाँ, मैं क्यों काशी चली गई। पति दुबले हो गए और खुद वह तगड़ी हो गई - इसके लिए उसने अपनी सेहत को धिक्कारा।
महेंद्र देर तक सोचता रहा कि अब कौन-सी बात की जाए। बोला - चाची मजे में हैं?
उत्तर में कुशल-क्षेम पा कर पूछने को दूसरी बात मन में लाना उसके लिए मुहाल हो गया। पास ही एक फटा-पुराना अखबार पड़ा था, उसे उठा कर वह अनमना-सा पढ़ने लगा। आशा सिर झुकाए सोचने लगी, इतने दिनों के बाद भेंट हुई, लेकिन उन्होंने मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं की? बल्कि लगा, मेरी ओर उनसे ताकते भी न बना।
महेंद्र कॉलेज से लौटा। जल-पान करते समय राजलक्ष्मी थीं। आशा भी घूँघट निकाले पास ही दरवाज़ा पकड़े खड़ी थी - लेकिन और कोई न था।
राजलक्ष्मी ने परेशान-सी हो कर पूछा - आज तेरी तबीयत कुछ खराब है क्या, महेंद्र?
जैसे ऊब गया हो, महेंद्र बोला - नहीं, ठीक है।
राजलक्ष्मी - फिर तू कुछ खा क्यों नहीं रहा है?
महेंद्र फिर खीझे हुए स्वर में बोला - खा तो रहा हूँ - और कैसे खाते हैं?
गर्मी की साँझ। बदन पर एक हल्की चादर डाल महेंद्र छत पर इधर-उधर घूमने लगा। बड़ी उम्मीद थी कि इधर जो पढ़ाई नियम से चल रही थी, वह वैसी ही चलेगी। आनंदमठ लगभग खत्म हो चला है। गिने-चुने कुछ अध्याय रह गए थे। यों जितनी भी निर्दयी हो विनोदिनी, ये बाकी अध्याय वह जरूर पढ़ कर सुनाएगी। लेकिन शाम हो गई और महेंद्र को कुछ हासिल न हुआ तो वह सोने चला गया।
सजी-सँवरी शरमाई आशा धीरे-धीरे कमरे में आई। देखा, महेंद्र बिस्तर पर सोया है। वह यह न सोच पाई कि किस तरह से आगे बढ़े। जुदाई के बाद जरा देर के लिए एक नई लज्जा होती है - जहाँ पर से जुदा होते हैं, दोनों, ठीक वहाँ पर मिलने से पहले एक-दूसरे को नए संभाषण की उम्मीद होती है। अपनी उस चिर-परिचिता सेज पर आशा आज बे-बुलाए कैसे जाए? दरवाजे के पास देर तक खड़ी रही। महेंद्र की कोई आहट न मिली। धीमे-धीमे पग-पग बढ़ी। अचानक किसी गहने की आवाज हो उठती तो मारे शर्म के मर-सी जाती। धड़कते हृदय से वह मच्छरदानी के पास जा खड़ी हुई। लगा, महेंद्र सो गया है। उसका सारा साज-शृंगार उसे सर्वांग के बंधन-सा लगा। उसकी यह इच्छा होने लगी कि बिजली की गति से भाग जाए और जा कर और कहीं सो रहे।
अपने जानते भरसक चुपचाप संकुचित हो कर आशा बिस्तर पर गई। फिर भी इतनी आवाज जरूर हुई कि महेंद्र अगर सचमुच ही सोया होता, तो जग पड़ता। लेकिन आज उसकी आँखें न खुलीं, क्योंकि दरअसल वह सो नहीं रहा था। वह पलँग के एक किनारे करवट लिए पड़ा था। लिहाजा आशा उसके पीछे लेट गई। पड़ी-पड़ी आशा आँसू बहा रही थी। उधर मुँह करके सोने के बावजूद महेंद्र को इसका साफ पता चल रहा था। अपनी बेरहमी से वह चक्की की तरह कलेजे को पीस कर दुखा रहा था। लेकिन वह क्या कहे, कैसे स्नेह जताए - यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था।
लेकिन आशा ने खुद ही उसकी यह मुसीबत भगा दी। वह तड़के ही अपमानित साज-शृंगार लिए उठ कर चली गई। वह भी महेंद्र को अपना मुँह न दिखा सकी।
आशा सोचने लगी - लेकिन ऐसा क्यों हुआ है? मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उसे कुछ थे नहीं। उसके सिवा विवाह के कुछ ही दिन बाद से महेंद्र को जैसा समझ लिया था, वह उसके सिवा भी कुछ हो सकता है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।
महेंद्र आज कुछ पहले ही कॉलेज गया। कॉलेज जाते वक्त आशा सदा खिड़की के पास आ खड़ी होती और महेंद्र गाड़ी में से एक बार झाँक लेता - यह उसका सदा का नियम था। इसी आदत के मुताबिक यंत्रवत वह खिड़की के सामने आ खड़ी हुई। अभ्यासवश महेंद्र ने भी एक बार निगाह उठा कर ताका। देखा, आशा खिड़की पर खड़ी है - देखते ही महेंद्र नजर झुका कर अपनी गोद में रखी किताबें देखने लगा। आँखों में वह नीरव भाषा कहाँ थी, कहाँ थी वह बोलती हुई मुस्कान!
गाड़ी निकल गई। आशा वहीं जमीन पर बैठ गई। यह दुनिया, यह गिरस्ती - सबका स्वाद फीका पड़ गया। अचानक आशा को लगा - हाँ, समझी। बिहारी बाबू काशी गए थे, यही सुन कर शायद वे नाराज हैं। इसके सिवा और तो कोई अप्रिय घटना इस बीच नहीं घटी। मगर इसमें मेरा क्या कसूर!
सोचते-सोचते एक बार अचानक मानो उसके दिल की धड़कन बंद हो गई। उसे संदेह हुआ, शायद महेंद्र को यह शंका हो गई कि बिहारी के काशी जाने में उसकी भी साँठ-गाँठ थी। राम-राम! ऐसी शंका! शर्म की हद!
महेंद्र अचानक गाड़ी से झाँक कर आशा का जो मलिन करुण मुखड़ा देख गया, उसे वह दिन भर अपने मन से न मेट सका। कॉलेज के लेक्चरों, छात्रों की कतारों में वह खिड़की, आशा का वह सूखा-रूखा चेहरा, बिखरे बाल, मैली धोती और वह आकुल-व्याकुल दृष्टि बार-बार साफ लकीरों में खिंच-खिंच आने लगी।
कॉलेज का काम खत्म करके वह गोलदिग्घी के किनारे टहलने लगा। शाम हो गई। वह फिर भी तय न कर सका कि आशा से कैसा बर्ताव किया जाए - दयापूर्ण छल या कपटरहित निष्ठुरता, कौन-सा उचित है? विनोदिनी का वह त्याग करे, या न करे यह बात ही मन में न आई। दया और प्रेम - दोनों का दावा वह कैसे करे?
आखिर उसने यह कह कर अपने मन को समझाया कि आज भी आशा के प्रति उसका जो प्रेम है, वह बहुत ही कम स्त्रियों को नसीब होता है। वह स्नेह, वह प्रेम मिलता रहे, तो आशा संतुष्ट क्यों न रहेगी? विनोदिनी और आशा, दोनों को जगह देने की योग्यता महेंद्र के प्रशस्त हृदय में है। विनोदिनी से उसका संबंध जिस पवित्र प्रेम का है, उससे दांपत्य में किसी तरह की आँच न आएगी।
मन को इस तरह समझा कर उसने एक भार उतार फेंका। दोनों में से किसी को छोड़े बिना दो चंद्रमा वाले ग्रह की तरह वह मजे में जीवन के दिन काट लेगा, यह सोच कर उसका जी खिल उठा। यह सोच कर वह तेजी से कदम बढ़ाता हुआ घर की ओर चल पड़ा कि आज जरा पहले ही वह बिस्तर पर जा लेटेगा और स्नेह-जतन से, मीठे वचन से आशा के मन की सारी वेदना धो देगा।
उसके खाने के समय आशा मौजूद न थी - लेकिन सोने तो आएगी ही, यह सोच कर महेंद्र बिस्तर पर लेट गया। लेकिन उस सन्नाटे में सूनी सेज पर किस स्मृति ने महेंद्र के मन को छा लिया? विषवृष के लिए विनोदिनी से उस दिन की छीना-झपटी याद आई। साँझ के बाद विनोदिनी कपालकुण्डला पढ़ कर सुनाना शुरू करती - धीरे-धीरे रात हो आती, घर के सारे लोग सो जाते, सूने कमरे की स्तब्ध निर्जनता विनोदिनी की आवाज आवेश से मानो धीमी हो आती, रुँध-सी जाती; अचानक वह अपने को जब्त करके उठ खड़ी होती, किताब रख देती - महेंद्र कहता, चलो, मैं तुम्हें सीढ़ी तक छोड़ आऊँ। ये बातें याद आने लगीं और सर्वांग में सिहरन होने लगी। रात क्रमश: ज्यादा होने लगी - महेंद्र को रह-रह कर आशंका होने लगी, अब आशा आएगी, अब आएगी। लेकिन वह न आई। महेंद्र ने सोचा, मैं तो अपने कर्तव्य के लिए तैयार था, अब अगर वह नाहक ही नाराज हो कर न आए तो मैं क्या करूँ? और गहरी रात में उसने विनोदिनी के ध्यान को गाढ़ा कर लिया।
जब एक बज गया, तो महेंद्र से न रहा गया। मसहरी हटा कर वह बाहर निकला। छत पर गया। देखा, चाँदनी रात बड़ी ही सुहानी हो रही है। महेंद्र की जमाने से रुकी पड़ी आकांक्षा अब अपने आपको न रोक सकी। जब से आशा आई, विनोदिनी की झलक भी न दिखाई दी। चाँदनी से उमगी सूनी रात महेंद्र को मोह से आच्छन्न करके विनोदिनी की तरफ ठेल कर ले जाने लगी। महेंद्र नीचे उतरा। विनोदिनी के कमरे के पास गया। देखा, कमरा बंद नहीं है। अंदर गया। सेज बिछी थी, उस पर कोई सोया न था। कमरे में आहट पा कर दक्खिन वाले खुले बरामदे से विनोदिनी ने पूछा - कौन है?
रुँधे हुए गीले स्वर से महेंद्र बोला - मैं हूँ, विनोद।
और महेंद्र सीधा बरामदे में पहुँच गया।
गर्मी की रात। बरामदे में चटाई डाल कर विनोदिनी के साथ राजलक्ष्मी सोई थीं। उन्होंने कहा - महेंद्र, इतनी रात को तू यहाँ कैसे?
अपनी काली घनी भौंहों के नीचे से विनोदिनी ने महेंद्र पर वज्र-कटाक्ष डाला। महेंद्र ने कोई जवाब न दिया। तेजी से वहाँ से चला गया।
दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर कपड़े धोबी को देने लगी। हिसाब लिख कर रखने लगी।
महेंद्र जरा लापरवाह है। इसी से आशा को हिदायत थी कि धोबी को कपड़े देते वक्त जेब जरूर देख लिया करे। आशा ने उसके एक कुरते की जेब में हाथ डाला कि एक चिट्ठी मिली।
वह चिट्ठी अगर जहरीला नाग बन कर उसी क्षण आशा की उँगली को काट खाती, तो अच्छा था, क्योंकि तीखा जहर शरीर में फैल जाता और कुछ ही मिनटों में शायद उसका काम तमाम कर देता; लेकिन जहर मन में फैलता है तो मौत की पीड़ा तो होती है, मौत नहीं होती।
खुली चिट्ठी। निकाल कर देखा तो विनोदिनी की लिखावट। पलक मारते आशा का चेहरा पीला पड़ गया। उस चिट्ठी को उसने बगल के कमरे में ले जा कर पढ़ा।
कल रात तुमने जो हरकत की, उससे भी जी न भरा? आज फिर तुमने नौकरानी के हाथ छिपा कर मुझे पत्र भेजा। छि:, उसने मन में क्या समझा होगा! दुनिया में मुझे किसी को भी मुँह दिखाने लायक नहीं रहने दोगे तुम?